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इज़रायल से मोहभंग: गाज़ा पर हमलों ने अमेरिकी यहूदियों को बाँट दिया, वॉशिंगटन पोस्ट सर्वे में खुलासा

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वॉशिंगटन 5 अक्टूबर 2025

गाज़ा पर जारी युद्ध ने न केवल मध्य पूर्व की राजनीति को झकझोरा है, बल्कि अमेरिका के यहूदी समाज के भीतर भी गहरी दरार डाल दी है। वॉशिंगटन पोस्ट के हालिया सर्वे ने एक ऐसी सच्चाई उजागर की है जो अब तक खुले में नहीं आई थी — बड़ी संख्या में अमेरिकी यहूदी अब इज़रायल की गाज़ा नीति के खिलाफ हैं, और यहूदी समुदाय में यह सवाल गूंजने लगा है कि “क्या इज़रायल की आक्रामकता हमारी आस्था के नैतिक सिद्धांतों के खिलाफ नहीं?”

यह सर्वे अमेरिकी यहूदियों के भीतर जन्मे उस अंतर्द्वंद्व को सामने लाता है जो वर्षों से दबा हुआ था। दशकों तक इज़रायल का अंध समर्थन करने वाला समुदाय अब अपने भीतर से आवाज़ उठा रहा है — और यह आवाज़ सिर्फ असहमति की नहीं, बल्कि नैतिक प्रतिरोध की पुकार है।

सर्वे की गहराई में छिपी बेचैनी — ‘हमारे नाम पर यह युद्ध नहीं’

वॉशिंगटन पोस्ट और यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड द्वारा किए गए इस संयुक्त सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि 52% अमेरिकी यहूदी इज़रायल की गाज़ा पर की जा रही कार्रवाई को “अमानवीय और असंतुलित” मानते हैं।

सिर्फ 22% यहूदी मतदाता ऐसे हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की नीति का समर्थन किया, जबकि बाकी लोग या तो तटस्थ हैं या खुले तौर पर आलोचना कर रहे हैं।

यह आँकड़े इस समुदाय के भीतर बढ़ती असंतुष्टि का प्रतीक हैं। लंबे समय तक “इज़रायल के संरक्षक” कहे जाने वाले अमेरिकी यहूदी अब सवाल पूछ रहे हैं — “क्या सुरक्षा के नाम पर निर्दोषों की हत्या यहूदी मूल्य हो सकते हैं?”

न्यूयॉर्क और लॉस एंजेलिस जैसे शहरों में “Jewish Voice for Peace” और “IfNotNow” जैसे संगठनों के सदस्य खुलेआम सड़कों पर उतर आए हैं, जिनके बैनरों पर लिखा था, “Not In Our Name” — हमारे नाम पर यह खून-खराबा नहीं!

यह सिर्फ एक राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि यहूदी युवाओं का नैतिक घोषणापत्र बन गया है। इन प्रदर्शनों में बड़ी संख्या में युवा, छात्र, कलाकार और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हुए, जिन्होंने कहा कि यह युद्ध उनकी धार्मिक चेतना को झकझोर रहा है।

‘शांति यहूदी पहचान का हिस्सा है’ — युवा पीढ़ी का स्पष्ट संदेश 

अमेरिका में यहूदी युवाओं के बीच अब यह विचार तेजी से फैल रहा है कि “यहूदी होना” अब केवल इज़रायल का समर्थन करना नहीं, बल्कि अन्याय का विरोध करना है।

27 वर्षीय छात्रा राचेल कोहेन ने कहा, “हम यहूदी हैं, लेकिन हम गाज़ा के बच्चों की हत्या का समर्थन नहीं कर सकते। अगर हमारे धर्म की आत्मा करुणा है, तो यह युद्ध उस आत्मा की हत्या कर रहा है।” ऐसे बयान अब सोशल मीडिया पर लाखों बार साझा किए जा रहे हैं।

#NotInOurName और #CeasefireNow जैसे हैशटैग अमेरिकी ट्विटर और इंस्टाग्राम पर ट्रेंड कर रहे हैं।

कई यहूदी रब्बियों ने खुले पत्रों में कहा है कि “इज़रायल की यह हिंसा यहूदी परंपरा के मूल सिद्धांतों — दयालुता (Chesed), न्याय (Tzedek) और शांति (Shalom) — के खिलाफ है।”

यह बदलाव किसी राजनीतिक रुख का नहीं, आध्यात्मिक विद्रोह का संकेत है, जिसमें युवा यहूदी अपनी धार्मिक पहचान को मानवीयता के साथ जोड़ना चाहते हैं, न कि राजनीतिक राष्ट्रवाद के साथ।

राजनीतिक असर — बाइडन प्रशासन पर बढ़ता नैतिक दबाव

अमेरिकी यहूदी समुदाय डेमोक्रेटिक पार्टी का एक प्रमुख वोटबैंक रहा है। लेकिन जब आधे से अधिक यहूदी मतदाता इज़रायल की नीतियों से असहमति जता रहे हैं, तो इसका सीधा असर बाइडन प्रशासन की विदेश नीति पर पड़ना तय है। जो बाइडन गाज़ा संघर्ष में इज़रायल के “सुरक्षा के अधिकार” का समर्थन तो करते हैं, लेकिन मानवीय आपदा बढ़ने के बाद उनके अपने समर्थक उनसे जवाब मांग रहे हैं।

सर्वे में 61% यहूदी मतदाताओं ने कहा कि अमेरिका को “इज़रायल को हथियार देने के बजाय युद्धविराम के लिए दबाव बनाना चाहिए।”

यह बयान अमेरिकी राजनीति में गूंज पैदा कर रहा है — क्योंकि यह वही समुदाय है जिसने हमेशा अमेरिकी कांग्रेस में इज़रायल के पक्ष में लॉबिंग की थी। अब वही लोग कह रहे हैं, “हमारा समर्थन अंधा नहीं है, यह नैतिकता पर आधारित है।”

धार्मिक और सांस्कृतिक यहूदियों के बीच विभाजन

सर्वे का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि ऑर्थोडॉक्स (पारंपरिक धार्मिक) यहूदी अभी भी इज़रायल के समर्थन में हैं, लेकिन रिफॉर्म और कंज़र्वेटिव (प्रगतिशील और सांस्कृतिक) यहूदी इज़रायल से गहराई से निराश हैं।

यह विभाजन अब केवल राजनीति का नहीं, बल्कि पहचान का संघर्ष बन चुका है। कई युवा यहूदी कह रहे हैं कि उनका “यहूदीपन” अब नेतन्याहू की सरकार के साथ नहीं, बल्कि मानवता और शांति की लड़ाई के साथ जुड़ा है। यह स्थिति इज़रायल के लिए चिंताजनक है, क्योंकि अब उसकी सबसे बड़ी वैचारिक ताकत — अमेरिकी यहूदी समर्थन — दरकने लगी है। इज़रायली अख़बार Haaretz ने भी हाल ही में लिखा था, “वॉशिंगटन और न्यूयॉर्क के यहूदी अब हमारे नहीं रहे।” यह वाक्य किसी राजनीतिक दूरी का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विमुखता का प्रतीक बन चुका है।

इज़रायल की प्रतिक्रिया — ‘वे दूर हैं, समझते नहीं’

इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने अमेरिकी यहूदियों की आलोचना को यह कहकर खारिज किया कि “वे दूर हैं, और जमीनी हकीकत को नहीं समझते।”

लेकिन इज़रायल के अंदर भी कई विद्वान और बुद्धिजीवी इस आत्मचिंतन को आवश्यक मान रहे हैं। जेरूसलम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एलियाहू मिजराही ने कहा, “जब हमारे अपने धर्मभाई हमें चेतावनी देते हैं कि हम अपनी नैतिक दिशा खो रहे हैं, तो यह आलोचना नहीं बल्कि हमारी आत्मा का आईना है।” मिजराही का यह कथन उस बेचैनी को प्रतिबिंबित करता है जो अब खुद इज़रायल के भीतर भी बढ़ रही है — जहां युद्ध जीतने के बावजूद नैतिक हार का अहसास गहरा हो रहा है।

गाज़ा की त्रासदी और यहूदी आत्मा का द्वंद्व

गाज़ा में हज़ारों नागरिकों की मौत, नष्ट होते मकान, और लगातार बढ़ते मानवीय संकट ने अमेरिकी यहूदियों की आत्मा को झकझोर दिया है। जो लोग “Never Again” — यानी “फिर कभी नहीं” — का नारा लगाकर हिटलर के अत्याचारों की याद को जिंदा रखते थे, वही अब पूछ रहे हैं, “क्या हमने उसी दर्द को किसी और पर थोपना शुरू कर दिया?” यह सवाल सिर्फ राजनीति का नहीं, बल्कि आत्मा का है। अमेरिका के एक रब्बी सम्मेलन में हाल ही में कहा गया, “हमारा धर्म हमें दूसरों के दर्द को महसूस करना सिखाता है। अगर हम अपने डर के कारण दूसरों की पीड़ा नहीं देख पा रहे, तो हमने यहूदी होना खो दिया है।”

एक समुदाय का अंतर्मंथन और एक युग का मोड़

वॉशिंगटन पोस्ट का यह सर्वे किसी आंकड़े का संकलन नहीं, बल्कि यहूदी आत्मा के द्वंद्व का दस्तावेज़ है। गाज़ा की त्रासदी ने अमेरिकी यहूदी समाज को उस मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहां उन्हें यह तय करना है कि यहूदी होना किसकी तरफ खड़ा होना है — सत्ता के साथ या सत्य के साथ। अब यह समुदाय कह रहा है कि यहूदी पहचान का अर्थ किसी राष्ट्र की नीतियों से नहीं, बल्कि करुणा और न्याय की भावना से तय होगा। और यही वह क्षण है जब दुनिया पहली बार यह सुन रही है, “हम इज़रायल के साथ हैं, लेकिन अन्याय के साथ नहीं।”

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