नई दिल्ली, 1 नवंबर 2025 | अवधेश झा
भारत के लिए यह समय चिंता का है। जिस एशिया में कभी भारत की रणनीतिक मौजूदगी मजबूत मानी जाती थी, वहीं अब हमारे पैर कमजोर पड़ते दिख रहे हैं। अफगानिस्तान-ताजिकिस्तान सीमा पर स्थित ऐनी (Ayni) एयरबेस और मालदीव में हमारे सैनिक ठिकाने कभी भारत की ताकत का प्रतीक माने जाते थे। आज स्थिति यह है कि दोनों ही जगहों से भारत की मौजूदगी खत्म हो गई है। इससे यह सवाल उठ रहा है कि आखिर देश की विदेश और सुरक्षा नीति में ऐसा क्या हुआ कि हमारी पकड़ ढीली पड़ गई।
ऐनी एयरबेस का इतिहास काफी दिलचस्प है। 9/11 हमले के बाद जब मध्य एशिया में नई रणनीतिक साझेदारियाँ बन रही थीं, तब भारत ने ऐनी एयरबेस के ज़रिए अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी। यह ठिकाना सिर्फ एक सैन्य अड्डा नहीं था, बल्कि भारत के सेंट्रल एशिया में बढ़ते प्रभाव का प्रतीक था। लेकिन अब वह ठिकाना हमारे नियंत्रण से बाहर हो गया है। कहा जा रहा है कि अब यह क्षेत्र रूस और चीन के प्रभाव में है। इस बदलाव का मतलब सिर्फ एक ठिकाने का खोना नहीं, बल्कि हमारी विदेश नीति और सामरिक योजना में आई कमजोरी का उजागर होना है।
दूसरी ओर, मालदीव में स्थिति और भी चिंताजनक है। हिंद महासागर भारत की समुद्री सुरक्षा की रीढ़ माना जाता है। मालदीव में हमारे सैनिकों की मौजूदगी से भारत को समुद्री निगरानी और त्वरित प्रतिक्रिया की सुविधा मिलती थी। लेकिन अब वहां चीन की सैन्य गतिविधियाँ तेज़ी से बढ़ रही हैं। भारत के सैनिकों की वापसी के साथ ही मालदीव में भारत का प्रभाव भी कमज़ोर हुआ है। यह दिखाता है कि जब भारत पीछे हटता है, तो कोई और ताकत उस खाली जगह को भर देती है — और इस बार वह ताकत चीन है।
इन दोनों घटनाओं ने यह साफ़ कर दिया है कि हमारी रणनीतिक सोच में कुछ न कुछ गंभीर कमी रही है। सवाल उठता है — क्या विदेश मंत्रालय और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) ने समय रहते कदम उठाए? क्या किसी वैकल्पिक योजना पर काम हुआ? या फिर सब कुछ सिर्फ बयानों और कूटनीतिक दिखावे तक सीमित रह गया? जब देश की सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति पर असर पड़ रहा हो, तो सिर्फ प्रचार या विदेश दौरों से स्थिति नहीं सुधरती।
आज भारत को यह स्वीकार करना होगा कि केवल “इमेज मेकिंग” या “हैशटैग डिप्लोमेसी” से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ताकत नहीं बनती। असली ताकत होती है स्थायी और सोच-समझकर बनाई गई रणनीति की। यदि हम अपने हितों की रक्षा नहीं करेंगे, तो दूसरे देश हमारे प्रभाव वाले क्षेत्रों में अपनी जगह बना लेंगे।
अब ज़रूरत है एक खुली समीक्षा की — यह देखने की कि कहाँ गलती हुई, और कैसे सुधार हो सकता है। हमें नई योजनाएँ बनानी होंगी, नए साझेदार ढूंढने होंगे, और सबसे ज़रूरी — नीति-निर्माताओं को जवाबदेह बनाना होगा। अगर यह नहीं हुआ, तो भारत की अंतरराष्ट्रीय स्थिति और कमजोर हो सकती है।
अंततः यह सिर्फ राजनीतिक मुद्दा नहीं, बल्कि देश की सुरक्षा और सम्मान का सवाल है। अगर भारत को फिर से क्षेत्रीय नेतृत्व हासिल करना है, तो उसे आत्ममुग्धता से बाहर आकर यथार्थवादी और मजबूत विदेश नीति अपनानी होगी — वरना आने वाले सालों में हमारी “रणनीतिक गूंज” केवल इतिहास के पन्नों में रह जाएगी।




