नई दिल्ली, 19 सितंबर 2025
2020 में हुए दिल्ली दंगों की कथित बड़ी साजिश से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को अहम सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति मनमोहन शामिल थे, ने उमर खालिद, शरजील इमाम और अन्य सह-आरोपियों की जमानत याचिकाओं पर सुनवाई को स्थगित करते हुए अगली तारीख 22 सितंबर तय की। अदालत ने स्पष्ट किया कि मामले की फाइलें उन्हें बहुत देर से, करीब रात 2:30 बजे प्राप्त हुई थीं और इतने जटिल व गंभीर मामले की सुनवाई इतनी जल्दबाजी में संभव नहीं है। इसलिए उचित होगा कि मामले को कुछ दिनों के लिए टाल दिया जाए और अगली तारीख पर पूरी गंभीरता और विस्तार से बहस की जाए।
आरोप और केस का स्वरूप
इस मामले में उमर खालिद, शरजील इमाम, गुलफिशा फातिमा और मीरान हैदर समेत कई युवा कार्यकर्ता और छात्र जेल में बंद हैं। दिल्ली पुलिस ने इन पर केवल दंगा फैलाने के आरोप ही नहीं लगाए बल्कि UAPA (गैर-कानूनी गतिविधियां रोकथाम कानून) जैसे कठोर प्रावधानों के तहत मुकदमे दर्ज किए हैं। पुलिस का दावा है कि नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ चलाए गए विरोध प्रदर्शनों की आड़ में सुनियोजित तरीके से हिंसा की साजिश रची गई थी। पुलिस की थ्योरी के अनुसार, इन प्रदर्शनों का मकसद केवल शांतिपूर्ण प्रदर्शन नहीं था बल्कि इसके पीछे एक प्रि-मेडिटेटेड कॉन्सपिरेसी यानी पूर्व नियोजित साजिश थी, जिसके परिणामस्वरूप फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़की।
हाईकोर्ट का पूर्व फैसला
इससे पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने 2 सितंबर 2025 को इन सभी की जमानत याचिकाएँ खारिज कर दी थीं। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि संविधान प्रत्येक नागरिक को शांतिपूर्ण विरोध का अधिकार देता है, लेकिन यदि कोई प्रदर्शन हिंसा भड़काने या समाज में अस्थिरता पैदा करने की साजिश का हिस्सा हो तो वह कानून की सुरक्षा के दायरे से बाहर हो जाता है। हाईकोर्ट ने पुलिस के तर्कों को स्वीकार करते हुए कहा था कि इस मामले में आरोप गंभीर हैं और फिलहाल अभियुक्तों को राहत नहीं दी जा सकती। इसी आदेश के खिलाफ अब आरोपी सुप्रीम कोर्ट पहुँचे हैं और विशेष अनुमति याचिकाएँ (SLP) दाखिल की हैं।
आरोपियों की दलीलें
दूसरी ओर, अभियुक्तों और उनके वकीलों का कहना है कि इस पूरे मामले में उनके खिलाफ प्रत्यक्ष साक्ष्य बेहद कमजोर हैं। उनका कहना है कि भाषण देना, किसी विचारधारा का समर्थन करना या लोकतांत्रिक तरीके से सरकार की आलोचना करना अपराध नहीं माना जा सकता। बचाव पक्ष का तर्क है कि पुलिस ने उन्हें राजनीतिक कारणों से फँसाया है और वे असल में हिंसा के आयोजक या सूत्रधार नहीं थे। लंबे समय से जेल में रहने की वजह से उनकी पढ़ाई, करियर और व्यक्तिगत जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। उनका कहना है कि जमानत देना अदालत का संवैधानिक दायित्व है क्योंकि जब तक अदालत दोष सिद्ध नहीं करती, तब तक कोई भी अभियुक्त अपराधी नहीं माना जा सकता।
आगे की स्थिति और संभावित असर
अब नज़रें 22 सितंबर पर टिकी हैं, जब सुप्रीम कोर्ट इन याचिकाओं पर विस्तार से सुनवाई करेगा। यह केस केवल एक कानूनी प्रक्रिया भर नहीं है, बल्कि लोकतंत्र, नागरिक स्वतंत्रता और राज्य की कठोरता के बीच संतुलन का भी बड़ा सवाल बन चुका है। अगर सुप्रीम कोर्ट बेल मंजूर करता है, तो इसे न्यायिक प्रणाली द्वारा मौलिक अधिकारों की रक्षा की दिशा में बड़ा कदम माना जाएगा। वहीं अगर बेल खारिज होती है, तो यह संदेश जाएगा कि अदालतें भी मानती हैं कि दंगों के पीछे कोई ठोस और खतरनाक साजिश रची गई थी। दोनों ही स्थितियों में यह फैसला देश की राजनीति, छात्र आंदोलनों और नागरिक अधिकारों की बहस को नई दिशा देगा।