नई दिल्ली 19 जुलाई
शाहिद सईद (वरिष्ठ पत्रकार एवं समाजसेवी)
विश्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट ने दावा किया है कि भारत में आय और संपत्ति की असमानता में पिछले वर्षों में तीव्र गिरावट आई है। इस रिपोर्ट के अनुसार, आर्थिक असमानता में यह गिरावट 2011 से 2020 के बीच सबसे अधिक रही, जो भारत जैसे विविधता और विषमता से भरे देश के लिए एक बड़ी बात मानी जा रही है। विश्व बैंक ने इस बदलाव का श्रेय सरकारी योजनाओं, डिजिटलीकरण, डीबीटी (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर), आधार और जनधन जैसी पहलों को दिया है। लेकिन क्या ये आंकड़े जमीनी हकीकत के साथ मेल खाते हैं? या फिर यह ‘डेटा में विकास’ का भ्रम है?
भारत की असमानता को समझने के लिए सिर्फ आंकड़ों की सतही व्याख्या करना पर्याप्त नहीं है। हमें यह समझना होगा कि इस असमानता का ताना-बाना सामाजिक, जातिगत, क्षेत्रीय और लैंगिक स्तर पर कितना गहराई से जुड़ा हुआ है। देश में आर्थिक विकास की रफ्तार पिछले दशक में भले ही तेज़ हुई हो, लेकिन क्या यह विकास हर क्षेत्र, वर्ग और जाति को समान रूप से मिला? जवाब है — नहीं।
आधिकारिक आंकड़ों में गिरावट दिख सकती है, लेकिन यदि हम ग्रामीण भारत, दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों, महिलाओं और अशिक्षित समुदायों की स्थिति देखें, तो पाएंगे कि उनके लिए जीवन की बुनियादी सुविधाएं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण और सुरक्षित आवास अब भी एक दूर का सपना हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) में बताया गया कि आदिवासी समुदायों में कुपोषण की दर सामान्य से कहीं ज्यादा है। महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच अब भी असमान बनी हुई है।
विश्व बैंक ने इस गिरावट का आधार सरकारी डेटा और टैक्स रिटर्न जैसी संस्थाओं पर रखा है। लेकिन यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि भारत की एक बड़ी आबादी अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती है, जिनकी आय और संपत्ति टैक्स सिस्टम में नहीं आती। साथ ही, देश में टैक्स चुकाने वालों की संख्या कुल जनसंख्या का मात्र 5-6% है। ऐसे में टैक्स डेटा पर आधारित किसी भी निष्कर्ष को समग्रता में लेना मुश्किल है। क्या यह मुमकिन है कि अमीरों ने टैक्स छूट और निवेश छुपाने के नए तरीके अपनाए हों और इस वजह से रिपोर्ट में उनकी आय कम दिखी हो?
यह भी विचारणीय है कि इस अवधि (2011-2020) में भारतीय अर्थव्यवस्था ने कई झटके झेले – जैसे नोटबंदी, जीएसटी का कार्यान्वयन, कोविड-19 महामारी और बेरोजगारी का बढ़ता संकट। क्या इन कारकों ने गरीबों की आमदनी इतनी ज्यादा बढ़ा दी कि असमानता अपने आप घट गई? या फिर यह संभव है कि अमीरों की आय में ‘कागजी गिरावट’ हुई, जिससे गिनी इंडेक्स और अन्य मापदंड बेहतर दिखने लगे?
भारत की असमानता को केवल आय से नहीं मापा जा सकता। हमें धन संपदा, अवसर, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, लैंगिक न्याय और जातिगत संरचना जैसे पहलुओं पर भी गौर करना होगा। उदाहरण के लिए, ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट 2023 बताती है कि भारत के टॉप 1% अमीरों के पास देश की कुल संपत्ति का 40% से अधिक हिस्सा है, जबकि सबसे गरीब 50% के पास केवल 3% है। ऐसे में यदि विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि असमानता कम हुई है, तो यह आंकड़ा किस आधार पर है — इसका समुचित विश्लेषण आवश्यक है।
पिछले वर्षों में सरकारी योजनाओं जैसे पीएम आवास योजना, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत, और जनधन खातों का प्रभाव सकारात्मक रहा है — इसमें दो राय नहीं। लेकिन इनके प्रभाव का दायरा, गहराई और स्थायित्व अभी भी बहस के विषय हैं। उदाहरण के लिए, उज्ज्वला योजना में सिलेंडर तो मिल गया, लेकिन क्या महिलाएं नियमित रूप से गैस भरवा पा रही हैं? क्या जनधन खाते में नियमित ट्रांजैक्शन हो रहा है या सिर्फ ‘नंबर की गिनती’ है? यह सब कुछ समावेशी विकास की सही तस्वीर पेश नहीं करता।
एक और प्रमुख पक्ष शिक्षा है। शिक्षा का स्तर, विशेष रूप से सरकारी स्कूलों में, आज भी गुणवत्ता से कोसों दूर है। ASER रिपोर्ट्स लगातार बताती रही हैं कि सरकारी स्कूलों में बच्चों की पढ़ने-लिखने और गणित की बुनियादी समझ कमजोर होती जा रही है। उच्च शिक्षा में भी दाखिले का आंकड़ा तो बढ़ रहा है, लेकिन इसके भीतर जातिगत, लैंगिक और क्षेत्रीय असमानता बनी हुई है। ग्रामीण भारत में अब भी लाखों छात्र इंटरनेट, लैपटॉप और अच्छी टीचिंग से वंचित हैं।
स्वास्थ्य सुविधाओं में भी ऐसी ही गहराई है। निजी अस्पतालों की तुलना में सरकारी अस्पतालों में संसाधनों की भारी कमी है। कोविड-19 महामारी के समय यह स्पष्ट हो गया कि शहरी अमीरों और ग्रामीण गरीबों के बीच स्वास्थ्य तक पहुंच में कितनी बड़ी खाई है।
असमानता सिर्फ आर्थिक नहीं होती, बल्कि वह सामाजिक और सांस्कृतिक मानसिकता में भी जमी होती है। जाति व्यवस्था, धार्मिक ध्रुवीकरण और लैंगिक भेदभाव — ये सभी असमानता के स्थायी कारण हैं। चाहे वह दलित समुदाय की जमीन तक पहुंच हो, आदिवासी समुदाय की जल-जंगल-जमीन से बेदखली हो, या मुस्लिम समुदाय के खिलाफ बढ़ता राजनीतिक और सामाजिक बहिष्कार — इन सभी ने मिलकर ‘विकास’ को असंतुलित और असमान बना दिया है।
इस संदर्भ में मीडिया की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। कई बार आंकड़ों की सतही व्याख्या या सेंसेशनल हैडलाइंस असली तस्वीर को छुपा देती हैं। ‘भारत में असमानता घटी’ जैसे शीर्षक पढ़कर आम पाठक यह मान सकता है कि अब सब कुछ ठीक हो गया है। जबकि हकीकत यह है कि आंकड़ों के पीछे कई बार नीतिगत चूक, संकीर्ण सर्वे का दायरा, और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी छुपी होती है।
सरकार को चाहिए कि वह केवल ‘डेटा सुधार’ या ‘इमेज बिल्डिंग’ तक सीमित न रहे, बल्कि समावेशी नीतियों की गहराई से समीक्षा करे। उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि विकास का फल वास्तव में सबसे पिछड़े और वंचित तबकों तक पहुंचे। इसके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में बड़े स्तर पर निवेश, सामाजिक न्याय की नीतियों का पुनर्निर्माण और रोजगार सृजन की ठोस रणनीति की आवश्यकता है।
इसलिए यह जरूरी है कि हम विश्व बैंक की रिपोर्ट को एक अवसर के रूप में लें — एक आईना, जो हमें खुद को जांचने का मौका देता है। असमानता केवल आंकड़ों की बाजीगरी नहीं, बल्कि यह उस सपने का प्रश्न है जो हमने 2047 तक ‘विकसित भारत’ बनाने के लिए देखा है। यदि हम सामाजिक न्याय, समावेशिता और संवेदनशील शासन की राह नहीं अपनाते, तो वह सपना केवल पोस्टरों और घोषणाओं तक सीमित रह जाएगा।