दार्जिलिंग 5 अक्टूबर 2025
दार्जिलिंग, जिसे कभी “पूर्व का स्विट्ज़रलैंड” कहा जाता था, इन दिनों प्राकृतिक सौंदर्य नहीं बल्कि प्रकृति की क्रूरता का दृश्य बन गया है। भारी बारिश ने पहाड़ी शहर में ऐसी तबाही मचाई कि बालसन नदी पर बना पुराना पुल पूरी तरह ढह गया, और कई लोगों की मौत हो गई। प्रशासन ने राहत और बचाव कार्य शुरू कर दिए हैं, लेकिन हालात बेहद गंभीर बने हुए हैं। लगातार हो रही बारिश से भू-स्खलन, जलभराव और सड़कें टूटने की घटनाएँ आम हो गई हैं।
दआर्जिलिंग-शिलिगुड़ी मार्ग पर बना पुल रविवार देर रात भारी बारिश के कारण बह गया। उस समय कई वाहन उस पुल से गुजर रहे थे। नदी में जलस्तर अचानक बढ़ने से दो वाहनों समेत कई लोग तेज़ बहाव में फँस गए। अब तक 6 लोगों के मरने की पुष्टि हुई है, जबकि दर्जनों लापता बताए जा रहे हैं। बचाव दल, एनडीआरएफ और पुलिस की टीमें मौके पर हैं, लेकिन खराब मौसम के कारण राहत कार्यों में बाधा आ रही है।
प्रकृति का कहर या मानव लापरवाही?
यह केवल प्राकृतिक आपदा नहीं, एक प्रशासनिक चेतावनी भी है। बालसन नदी पर बना यह पुल दशकों पुराना था और कई बार तकनीकी मरम्मत की मांग उठाई जा चुकी थी। स्थानीय लोगों ने बताया कि पिछले साल भी इस पुल के जर्जर होने की रिपोर्ट सार्वजनिक हुई थी, लेकिन सरकारी फाइलों और ठेकेदारों के खेल में वह चेतावनी दबा दी गई। नतीजा अब सबके सामने है — एक पुल के साथ न केवल कई जिंदगियाँ टूटीं, बल्कि शासन की जिम्मेदारी भी नदी में बह गई।
उत्तर बंगाल का इलाका लगातार मौसमीय असंतुलन और अत्यधिक वर्षा का शिकार हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग और अवैध निर्माण के कारण यहाँ की पारिस्थितिकी पर लगातार दबाव बढ़ा है। पहाड़ों की ढलानों पर अनियंत्रित निर्माण कार्य और जंगलों की कटाई ने बारिश के असर को और भयावह बना दिया है। यह घटना उसी असंतुलन का नतीजा है।
प्रशासन की चुनौतियां और राहत कार्य की हकीकत
दार्जिलिंग जिला प्रशासन ने सभी स्कूलों और सरकारी दफ्तरों को अगले तीन दिन के लिए बंद कर दिया है। एनडीआरएफ की तीन टीमें इलाके में राहत कार्यों में जुटी हैं। बालसन नदी का जलस्तर लगातार बढ़ रहा है, जिससे कई निचले इलाकों में पानी भर गया है। कुरसियांग, सिलीगुड़ी और कालिम्पोंग के बीच संपर्क लगभग टूट चुका है।
राज्य सरकार ने आपात बैठक बुलाकर मुआवज़े की घोषणा की है, लेकिन स्थानीय निवासियों में रोष है। उनका कहना है कि सरकार हर साल “आपदा प्रबंधन” के नाम पर वादे करती है, मगर न तो नालों की सफाई होती है, न नदी तटों की मरम्मत। इस बार भी हालात बिगड़ने से पहले कोई चेतावनी जारी नहीं की गई।
दार्जिलिंग की आपदा, भारत के पर्वतीय इलाकों का भविष्य
दार्जिलिंग की यह त्रासदी केवल एक भौगोलिक घटना नहीं है, बल्कि भारत के सभी पर्वतीय क्षेत्रों के लिए चेतावनी है। उत्तराखंड, हिमाचल, सिक्किम और अब दार्जिलिंग — हर जगह एक जैसी कहानियां दोहराई जा रही हैं।
विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति के साथ छेड़छाड़, अवैध होटल निर्माण, नदी किनारों की अतिक्रमण और कमजोर इन्फ्रास्ट्रक्चर ने इन क्षेत्रों को मौत के फंदे में बदल दिया है।
भारत में 80% प्राकृतिक आपदाएं उन्हीं क्षेत्रों में घटती हैं जहाँ पर्यावरणीय नियमों का सबसे ज़्यादा उल्लंघन होता है। दार्जिलिंग इसका सबसे नया उदाहरण है। अगर सरकारें केवल राहत की राजनीति के बजाय दीर्घकालिक भू-संरक्षण नीति पर ध्यान दें, तो ऐसी त्रासदियांं टाली जा सकती हैं।
यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि विकास का मॉडल आखिर किसके लिए है — क्या हम पहाड़ों को तोड़कर समृद्धि की इमारत खड़ी कर रहे हैं, या धीरे-धीरे अपने ही भविष्य की कब्र खोद रहे हैं?
हर ढहा पुल हमें याद दिलाता है — हमारी नीतियां भी कमजोर हैं
बालसन नदी का टूटा पुल केवल लोहे और कंक्रीट का ढांचा नहीं था, यह उस प्रशासनिक सोच का प्रतीक था जो आपदा से पहले नहीं, बाद में जागती है।
दार्जिलिंग की बारिश ने जो तबाही मचाई है, वह हमें यह सिखाती है कि प्रकृति के साथ समझौता नहीं, संतुलन जरूरी है। “अगर विकास की दौड़ में हम पर्यावरण को पीछे छोड़ देंगे, तो एक दिन नदियाँ, पहाड़ और बारिश हमें रोकने का हिसाब खुद मांगेंगी।”
दार्जिलिंग की यह त्रासदी केवल एक खबर नहीं — यह एक संदेश है कि भारत को अपने विकास के रास्ते को फिर से परिभाषित करना होगा, वरना आने वाले समय में हर बारिश एक आपदा बन जाएगी।