देहरादून में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 9 नवंबर 2025 की चुनावी रैली से ठीक पहले सोशल मीडिया पर एक नोटिस ने पूरे देश में आग लगा दी। नोटिस में दावा किया गया कि देव भूमि उत्तराखंड यूनिवर्सिटी अपने B.Tech और BCA छात्रों को मोदी की रैली में शामिल होने पर 50 इंटरनल मार्क्स देगी—और यह उपस्थिति “भारतीय ज्ञान प्रणाली” कोर्स का हिस्सा मानी जाएगी। यह दावा जैसे ही सामने आया, सोशल मीडिया पर हंगामा मच गया, और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने पोस्ट को और अधिक वायरल कर दिया। उन्होंने कटाक्ष करते हुए पूछा—“मोदी की रैली में आने पर 50 मार्क्स मिलेंगे—तो ‘मोदी-मोदी’ चिल्लाने पर कितने?”

लेकिन विवाद यहीं नहीं रुका। विश्वविद्यालय और PIB ने तुरंत सफाई देते हुए कहा कि यह नोटिस पूरी तरह फर्जी है और उनकी नीति में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। विश्वविद्यालय ने दावा किया कि वह उक्त वायरल नोटिस की जांच कर रहा है और फर्जी दस्तावेज़ प्रसारित करने वालों के खिलाफ FIR दर्ज कराई जाएगी। सरकार ने भी कहा कि यह एक राजनीतिक चाल है जो प्रधानमंत्री की रैली को विवादों में घसीटने के लिए रची गई है। पर सवाल अब भी हवा में तैर रहा है—आखिर यह फर्जीवाड़ा हुआ कैसे, और किसने इस तरह का नोटिस गढ़ा? क्योंकि यह कोई साधारण मीम नहीं था; यह एक अधिकारिक प्रारूप वाला, विश्वविद्यालय के दो शिक्षकों के नाम से जारी किया गया व्यवस्थित दस्तावेज़ था।
विपक्ष की आपत्ति सिर्फ नोटिस की सत्यता पर नहीं है—बल्कि उस राजनीतिक संस्कृति पर है जो छात्रों और युवा मतदाताओं को रैलियों की भीड़ भरने का साधन बना देती है। विपक्षी दलों का कहना है कि पिछले एक दशक में बार-बार ऐसे मामलों ने जन्म लिया है जहां छात्रों को प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के कार्यक्रमों में जबरन ले जाया गया, कभी प्रैक्टिकल मार्क्स का लालच देकर, कभी “अनिवार्य उपस्थिति” का डर दिखाकर। ऐसे में यह वायरल नोटिस सिर्फ एक नया एपिसोड है, एक बड़े नेशनल पैटर्न का हिस्सा—जहाँ सत्ता पक्ष “लोकतांत्रिक समर्थन” की जगह “बैठाई गई भीड़” से राजनीतिक वैधता खड़ी करने की कोशिश करता है।
प्रशांत भूषण ने आगे तंज कसते हुए कहा कि यदि यह नोटिस फर्जी है, तो भी यह एक कड़वी सच्चाई को उजागर करता है—कि हमने ऐसी राजनीति को जन्म दिया है जहाँ किसी विश्वविद्यालय के नाम पर यह उम्मीद करना भी संभव हो गया है कि छात्रों को अंकों के बदले रैली में ले जाया जा सकता है। भूषण ने पूछा कि आखिर ऐसी स्थिति पैदा कैसे हुई कि लोग इस पर विश्वास कर लें? यह वही सवाल है जिससे सरकार और विश्वविद्यालय दोनों बचते दिखे।
सरकार की सफाई के बाद भी मामला थमा नहीं। सोशल मीडिया पर कई छात्रों ने लिखा कि उन्हें पहले भी विभिन्न राजनीतिक कार्यक्रमों में उपस्थित होने के लिए दबाव झेलना पड़ा है, कभी कॉलेज प्रशासन के नाम पर, कभी स्थानीय नेताओं के निर्देश पर। भले नोटिस “फर्जी” हो, लेकिन उसे देखकर हैरानी नहीं होना—यही स्थिति विपक्ष के आरोपों को और धार देता है। यह घटना एक ऐसे देश में हो रही है जहां हाल ही में छात्रों के वोटर आईडी लिंकिंग, चुनावी ‘वोट शिफ्टिंग’, और सरकारी विश्वविद्यालयों के राजनीतिक दखल पर लगातार सवाल उठते रहे हैं।
इस बीच प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तराखंड की सिल्वर जुबली कार्यक्रमों की घोषणाएँ कीं और 8,000 करोड़ से अधिक की परियोजनाओं का उद्घाटन किया—लेकिन छात्रों के कथित “रैली मार्क्स” विवाद ने उनकी उपलब्धियों से सुर्खियाँ छीन लीं। कई विश्लेषकों ने कहा कि चाहे नोटिस फर्जी हो, लेकिन यह सत्ता की उस मानसिकता पर एक करारी चोट है जिसमें विश्वविद्यालयों को राजनीतिक भीड़ इकट्ठा करने का मैदान माना जाता है।
अंततः सवाल सिर्फ इतना है—क्या यह नोटिस फर्जी था, या फिर यह हमारे समय की असलियत का सबसे नंगा सच था? क्या यह एक घटी हुई घटना थी, या हमारे लोकतंत्र की बिगड़ चुकी संरचना का प्रतिबिंब? सरकार जवाब देती है—यह दस्तावेज़ झूठ है। विपक्ष पूछता है—लेकिन जो तस्वीर इस झूठ ने दिखा दी, क्या वह भी झूठ है?
यह विवाद जल्द शांत होने वाला नहीं। क्योंकि इस देश में जब विश्वविद्यालयों को भी रैलियों की भीड़ का हिस्सा बनाने का संदेह हो, तो यह सिर्फ एक राजनीतिक बहस नहीं—बल्कि भारत के लोकतांत्रिक भविष्य का सवाल बन जाता है।



