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अडानी को बचाने की साज़िश: अमेरिकी नोटिस को भारत में दबाने का पर्दाफाश

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वाशिंगटन/ नई दिल्ली/ अहमदाबाद 21 अक्टूबर 2025

अमेरिकी शिकंजे से बचाने की ‘राजनीतिक ढाल’

अमेरिका के सिक्योरिटीज़ एंड एक्सचेंज कमीशन (SEC) द्वारा अडानी समूह के मुखिया गौतम अडानी और उनके भतीजे सागर अडानी के खिलाफ दायर किए गए मुकदमे के बाद, भारत सरकार की एजेंसियाँ जिस तरह से सक्रिय रूप से बचाव में उतर आईं हैं, उस पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। यह मुकदमा न्यूयॉर्क के ईस्टर्न डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में केस संख्या 1:24 Civ. 8080 के तहत दर्ज किया गया है। SEC, जिसकी ओर से क्षेत्रीय निदेशक एंटोनिया एम. एप्स और अधिवक्ता क्रिस्टोफर एम. कोलोराडो प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, ने अडानी ग्रीन एनर्जी लिमिटेड के इन शीर्ष अधिकारियों पर अरबों रुपये के अनुबंधों को अवैध रूप से हासिल करने के लिए एक “सुनियोजित रिश्वतखोरी योजना” चलाने का अत्यंत गंभीर आरोप लगाया है। इस मामले में जूरी ट्रायल की मांग की गई है, जो इस केस की उच्चस्तरीय संवेदनशीलता और अंतरराष्ट्रीय न्यायिक गंभीरता को दर्शाता है। यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनी प्रक्रिया से अपने करीबी उद्योगपति को बचाने के लिए भारत में एक ‘राजनीतिक ढाल’ का निर्माण किया गया है, जिसने न्यायिक प्रक्रिया में खुली बाधा उत्पन्न की है।

अडानी और अमेरिकी कोर्ट से जुड़े तथ्य : https://www.sec.gov/files/litigation/complaints/2024/comp-pr2024-181.pdf

न्यायिक प्रक्रिया में बाधा: अमेरिकी नोटिस को भारत में दबाने का सुनियोजित तंत्र

अमेरिकी अदालत द्वारा आधिकारिक सम्मन जारी किए जाने के बाद, कानूनी औपचारिकता के तहत यह न्यायिक दस्तावेज़ पहले भारत सरकार के क़ानून मंत्रालय को भेजा गया, फिर गुजरात हाईकोर्ट के माध्यम से अहमदाबाद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट तक पहुँचा। कानूनी प्रक्रिया के अनुसार, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट को इसे प्रतिवादियों, यानी गौतम अडानी और सागर अडानी को सर्व करना था। लेकिन, सूत्रों के अनुसार, यहीं से “नोटिस दफनाने की प्रक्रिया” शुरू हुई। जिस दिन यह नोटिस अहमदाबाद कोर्ट में पहुँचा, उसी दिन संबंधित जज का अचानक तबादला कर दिया गया। इतना ही नहीं, महीनों बीत जाने के बाद भी उस पद पर नए जज की नियुक्ति नहीं की गई है, जिससे यह संदेह गहराता है कि यह महज प्रशासनिक चूक नहीं, बल्कि एक सटीक और समयबद्ध साज़िश थी। विपक्षी दलों और न्यायविदों का स्पष्ट आरोप है कि यह जानबूझकर बनाया गया “राजनीतिक सुरक्षा कवच” है, जिसका एकमात्र और स्पष्ट उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि प्रधानमंत्री मोदी के सबसे करीबी माने जाने वाले उद्योगपति तक अमेरिकी अदालत का केस नोटिस कभी न पहुँचे।

चेन ऑफ़ कवर-अप: उच्चतम राजनीतिक स्तर पर रचित साज़िश

इस पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण ‘चेन ऑफ़ कवर-अप’ (Chain of Cover-up) के रूप में किया जा रहा है। न्यायिक प्रक्रिया का सामान्य मार्ग अमेरिका ➜ भारत सरकार ➜ क़ानून मंत्रालय ➜ गुजरात हाईकोर्ट ➜ अहमदाबाद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट था, लेकिन डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में पहुँचते ही नोटिस को जानबूझकर रोक दिया गया। विश्वसनीय स्रोतों का कहना है कि यह निर्णय किसी निम्न-स्तरीय प्रशासनिक अधिकारी द्वारा नहीं लिया गया, बल्कि “उच्चतम राजनीतिक स्तर” पर हस्तक्षेप करके लिया गया। इस बात की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि अहमदाबाद कोर्ट के जज का ट्रांसफर उसी दिन किया गया जब नोटिस पहुँचा, और पद को महीनों तक खाली रखा गया, ताकि नोटिस की डिलीवरी कानूनी रूप से असंभव हो जाए। यह कदम स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि सरकार और सत्ता के गलियारों में बैठे लोग अपने ‘मित्र उद्योगपतियों’ को अंतरराष्ट्रीय कानूनी जवाबदेही से बचाने के लिए किस हद तक न्यायिक ढांचे को नियंत्रित करने की क्षमता रखते हैं, जो लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के विपरीत है।

लोकतंत्र बनाम दलाली तंत्र

कानूनी विशेषज्ञों और सेवानिवृत्त अधिकारियों का मानना है कि जज का तबादला और पद को खाली रखना कोई प्रशासनिक भूल नहीं, बल्कि एक “टाइम्ड पॉलिटिकल ऑपरेशन” था। एक वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी ने इस पर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा कि, “जब सरकार अपने मित्र उद्योगपतियों को अंतरराष्ट्रीय न्याय से बचाने के लिए अदालतों के ट्रांसफर और नियुक्तियाँ तक नियंत्रित करने लगे — तो यह लोकतंत्र नहीं, ‘दलाली तंत्र’ बन जाता है।” यह घटना एक ऐसी स्थिति को दर्शाती है जहाँ कानून का शासन गौण हो जाता है, और सत्ता तथा पूंजी का गठजोड़ सर्वोच्च हो जाता है। यह साफ़ संकेत है कि भारत की न्यायिक और प्रशासनिक मशीनरी को प्रधानमंत्री के “राजनीतिक मित्र” के बचाव के लिए पूरी तरह से इस्तेमाल किया जा रहा है, जिससे संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता और निष्पक्षता पर एक गहरा प्रश्नचिह्न लग गया है।

न्यायिक निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर गहरा आघात

यह गंभीर मामला अब केवल एक उद्योगपति पर लगे आरोपों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसने सीधे तौर पर भारत की न्यायिक निष्पक्षता और लोकतंत्र की अंतर्राष्ट्रीय विश्वसनीयता पर गहरा प्रहार किया है। इस पूरे घटनाक्रम का मुख्य प्रश्न यह है कि “अगर अडानी निर्दोष हैं, तो उन्हें अमेरिकी नोटिस से डरने की क्या वजह है? और अगर वे निर्दोष नहीं हैं, तो मोदी सरकार उन्हें बचाने में इतनी खुली सक्रियता क्यों दिखा रही है?” विपक्षी दलों का सीधा और गंभीर आरोप है कि यह पूरी साज़िश इसीलिए रची गई, ताकि अमेरिकी अदालत में चल रही रिश्वतखोरी और मनी लॉन्ड्रिंग जांच की आंच अडानी समूह से होते हुए सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) तक न पहुँचे। यह स्थिति दिखाती है कि भारत का न्यायिक ढांचा एक खास वर्ग के लिए ‘राजकीय अभयारण्य’ (State Sanctuary) बन चुका है, जहाँ सत्ता और संपत्ति मिलकर कानून की पहुँच को अवरुद्ध कर देते हैं।

संवैधानिक अपराध: न्याय की हत्या, सत्ता की रक्षा का खुला प्रदर्शन

कानूनविदों और न्याय के जानकारों का स्पष्ट मत है कि एक जज का तबादला ठीक उस समय करना जब कोर्ट को एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय नोटिस सर्व करना हो, और फिर महीनों तक नए जज की नियुक्ति में देरी करना — यह मात्र प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि संवैधानिक अपराध की श्रेणी में आता है। न्यायविदों का कहना है कि यदि यह मामला किसी सामान्य नागरिक से जुड़ा होता, तो नोटिस को सर्व करने में 48 घंटे भी नहीं लगते। लेकिन, जब मामला प्रधानमंत्री के “राजनीतिक मित्र” गौतम अडानी से जुड़ा हुआ है, तो पूरी सरकारी और न्यायिक मशीनरी को जानबूझकर ठप कर दिया गया है। यह स्पष्ट रूप से न्याय की हत्या और सत्ता की रक्षा का एक खुला प्रदर्शन है, जो दिखाता है कि देश में कानून का इस्तेमाल एक वर्ग को सुरक्षा प्रदान करने के लिए किया जा रहा है, जबकि आम नागरिक के लिए कानून तत्काल प्रभाव से काम करता है।

लोकतंत्र बनाम पूंजीतंत्र की निर्णायक लड़ाई

इस पूरे घटनाक्रम से सबसे बड़ा और निर्णायक प्रश्न यह उठता है कि क्या यह सारा घटनाक्रम प्रधानमंत्री मोदी की जानकारी और सहमति के बिना संभव हो सकता है? क्या न्यायपालिका और कानून मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण संस्थान इतने बड़े अंतरराष्ट्रीय कानूनी केस को किसी भी “टॉप-लेवल राजनीतिक इशारे” के बिना महीनों तक रोके रख सकते हैं? विश्लेषकों का मानना है कि आज भारत में सरकार की पहचान उसके किए गए विकास कार्यों से नहीं, बल्कि उन लोगों से हो रही है — जिन्हें वह बचाने में सक्रिय है। यह मामला केवल अडानी समूह का नहीं है, बल्कि यह इस सवाल का प्रतीक है कि क्या भारत में अब भी कानून सबके लिए समान है? जब न्याय को पूंजी के इशारों पर मोड़ा जाता है, जज हटाए जाते हैं और कानूनी नोटिस दबाए जाते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि “राज बचाने” के नाम पर लोकतंत्र को पूंजी के सामने झुकने पर मजबूर किया गया है, और न्याय को मारा जा चुका है।

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