Home » Chhattisgarh » छत्तीसगढ़ : बीजेपी शासन में जनजातीय गौरव और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का नया युग

छत्तीसगढ़ : बीजेपी शासन में जनजातीय गौरव और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का नया युग

Facebook
WhatsApp
X
Telegram

3 जुलाई 2025

छत्तीसगढ़ की राजनीतिक यात्रा अब केवल विकास और सुरक्षा तक सीमित नहीं रही — यह अब सांस्कृतिक पुनर्जागरण और जनजातीय अस्मिता के पुनर्प्रतिष्ठान की दिशा में भी तेज़ी से आगे बढ़ रही है। भाजपा की सरकार ने आदिवासी समाज को केवल ‘वोट बैंक’ की दृष्टि से नहीं देखा, बल्कि उन्हें राज्य की आत्मा मानकर नीतियों की दिशा तय की है। यह परिवर्तनशील सोच छत्तीसगढ़ के हर कोने में एक नई चेतना और आत्मसम्मान का संचार कर रही है।

आज बस्तर में आयोजित होने वाले “बस्तर दशहरा” को अंतरराष्ट्रीय पहचान देने की दिशा में जो प्रयास हो रहे हैं, वे केवल उत्सव नहीं, एक सांस्कृतिक उद्घोष हैं — कि यह धरती किसी परंपरा की अनुकृति नहीं, स्वयं एक परंपरा है। वहीं सरकार ने “शहीद वीर नारायण सिंह गौरव सप्ताह”, “गुंडाधुर स्मृति समारोह”, “महतारी महोत्सव” जैसे आयोजनों को राज्यस्तरीय महत्त्व देकर यह सिद्ध कर दिया है कि आदिवासी इतिहास को अब हाशिए पर नहीं, बल्कि राजनीति के केंद्र में लाया जा रहा है।

पिछली सरकारों में जनजातीय समुदायों की सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करने के नाम पर केवल संग्रहालय बनाए गए थे, लेकिन भाजपा सरकार ने “साक्षात संवर्धन और शिक्षण” पर ज़ोर दिया है। अब स्कूलों में गोंडी, हल्बी, और कुड़ुख भाषाएं पढ़ाई जा रही हैं। यह भाषाई समावेश न केवल शिक्षा का लोकतंत्रीकरण है, बल्कि यह उस लंबे सांस्कृतिक अन्याय का प्रतिकार है, जो आदिवासियों को उनकी ही ज़ुबान से दूर करता आया था।

सरकार ने “वन अधिकार अधिनियम” के तहत पट्टों के वितरण को गति दी है। हजारों आदिवासी परिवारों को उनकी पुश्तैनी जमीनों पर मालिकाना हक मिला है। यह कोई साधारण सरकारी कागज़ी कार्यवाही नहीं, बल्कि उस “स्वराज्य” की स्थापना है जिसकी कल्पना वीरगति को प्राप्त आदिवासी क्रांतिकारियों ने की थी। इसके साथ-साथ लघु वनोपज मूल्य संवर्धन योजना के तहत तेंदूपत्ता, महुआ, सालबीज, और इमली जैसी वस्तुओं के समर्थन मूल्य में उल्लेखनीय वृद्धि की गई है, जिससे आदिवासी युवाओं के लिए स्वरोज़गार के रास्ते खुल रहे हैं।

आदिवासी महिलाएं जो कभी समाज की चुप्पी में खोई रहती थीं, अब “सखी समूह” और “महिला वन उत्पाद सहकारिता समितियों” की प्रमुख बन चुकी हैं। वे आज न केवल अपने परिवार का आर्थिक नेतृत्व कर रही हैं, बल्कि ग्राम पंचायत स्तर पर निर्णयों में सक्रिय भागीदारी निभा रही हैं। यह लोकतंत्र का वह चेहरा है, जो केवल चुनावों से नहीं, आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान से परिभाषित होता है।

वहीं दूसरी ओर, “बस्तर टाइगर” कहे जाने वाले CRPF और जिला पुलिस बल के समन्वय से नक्सल क्षेत्रों में सुरक्षा व्यवस्था इतनी सुदृढ़ हो गई है कि अब पहली बार कई गांवों में तिरंगा फहराया जा सका है। यह केवल एक झंडा नहीं, बल्कि उन लोगों की पीड़ा का अंत है जो दशकों से भय के साए में जीवन जीते आ रहे थे।

छत्तीसगढ़ में आज जो आदिवासी नवजागरण चल रहा है, वह ‘किसी के खिलाफ़’ नहीं, बल्कि ‘अपने लिए’ खड़ा हुआ आंदोलन है — भाषा के लिए, ज़मीन के लिए, शिक्षा के लिए और सम्मान के लिए। इस जागरण में राजनीति एक साधन बन चुकी है, साध्य नहीं। और यही बदलाव का असली संकेत है।

भविष्य की राजनीति अब उस नेता की तलाश करेगी जो बस्तर के जंगल में जनसभा से पहले कुम्हार की चाय की दुकान पर बैठ सके, जो सरगुजा के पहाड़ों में टॉर्च लेकर स्कूलों का निरीक्षण कर सके, और जो आदिवासी मां की गोद में जन्मे बच्चे की आंखों में उजाले का वादा पढ़ सके — यही नेता छत्तीसगढ़ की अगली कहानी लिखेगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *