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बिहार में वोटर लिस्ट घोटाला: लाखों मुसलमानों के नाम गायब — चुनाव आयोग मालिक के मिशन पर?

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पटना, 16 अक्टूबर 2025

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की आहट के बीच, राज्य के लोकतांत्रिक ढाँचे पर एक भयावह और सीधा हमला सामने आया है, जहाँ अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के लाखों मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट से रहस्यमय तरीके से ‘गायब’ कर दिए गए हैं। सीमांचल के संवेदनशील और निर्णायक राजनीतिक क्षेत्रों — अररिया, कटिहार, पूर्णिया, किशनगंज — के साथ-साथ दरभंगा और भागलपुर जैसे महत्त्वपूर्ण जिलों में हजारों की संख्या में मुस्लिम मतदाताओं के नाम अचानक हटाए जाने से राज्य की राजनीति में भूचाल आ गया है। इस कार्रवाई को चुनाव आयोग द्वारा ‘तकनीकी सुधार’ और ‘शुद्धिकरण’ बताया जा रहा है, लेकिन विपक्ष, मानवाधिकार संगठनों और नागरिक समूहों का एकमत आरोप है कि यह महज़ कोई प्रशासनिक गलती नहीं, बल्कि “सुनियोजित चुनावी हेराफेरी” और “राजनीतिक षड्यंत्र” है, जिसका एकमात्र लक्ष्य सत्तारूढ़ बीजेपी को चुनावी लाभ पहुँचाना है। सवाल अब सीधा और बेहद तीखा है — क्या भारत का चुनाव आयोग, जो कभी विश्व का सबसे सम्मानित निकाय माना जाता था, अब अपनी निष्पक्षता को तिलांजलि देकर, बिहार में बीजेपी को सत्ता की राह आसान करने के मिशन पर जुट गया है?

आयोग का ‘तकनीकी सुधार’ बयान: लेकिन संदेह गहराया और बढ़ा राजनीतिक आक्रोश

वोटर लिस्ट से बड़े पैमाने पर नाम हटाए जाने के आरोपों के बाद, चुनाव आयोग ने एक सतही बयान जारी कर कहा कि यह संशोधन ‘SIR (Systematic Intensive Revision)’ प्रक्रिया के तहत किया गया है, जिसके माध्यम से मृतक, स्थानांतरित या दोहराए गए नामों को हटाने की कार्रवाई की गई है। लेकिन आयोग की यह ‘तकनीकी सफाई’ न केवल जनता को और ज़्यादा शक में डाल रही है, बल्कि राजनीतिक आक्रोश को भी भड़का रही है, क्योंकि जमीनी हकीकत कुछ और ही बयाँ करती है। संदेह का सबसे बड़ा कारण यह है कि ‘संशोधन’ की आड़ में जिन लाखों नामों को हटाया गया है, उनमें से सर्वाधिक संख्या मुस्लिम मतदाताओं की है, और यह छँटनी विशेष रूप से सीमांचल के उन मुस्लिम-बहुल विधानसभा क्षेत्रों में हुई है जहाँ अल्पसंख्यक वोट हमेशा से चुनावी नतीजों में निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। क्या यह केवल एक ‘संयोग’ है कि छँटनी की यह कार्रवाई ठीक चुनाव से पहले और केवल उन्हीं क्षेत्रों में हो रही है जहाँ बीजेपी की स्थिति कमजोर मानी जाती है? विपक्ष का आरोप है कि आयोग अब उस खतरनाक ‘ट्रेंड’ पर चल रहा है, जो देशभर में “धार्मिक पहचान के आधार पर मतदाता नियंत्रण” और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दूषित करने का स्पष्ट संकेत देता है।

विपक्ष का सीधा हमला: “चुनाव आयोग अब निष्पक्ष नहीं, बीजेपी का विस्तार कार्यालय बन गया है”

बिहार के विपक्षी नेताओं ने इस घटनाक्रम को भारतीय लोकतंत्र के लिए एक काला अध्याय बताया है और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सीधा व कड़ा प्रहार किया है। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेता तेजस्वी यादव ने हमला बोलते हुए कहा है, “जब देश के सबसे बड़े लोकतंत्र में आयोग ही एक पक्ष का बनकर सत्ता के आदेश पर काम करने लगे, तो जनता की आवाज कौन सुनेगा?” वहीं, कांग्रेस प्रवक्ता ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि “आयोग अब संविधान की पवित्रता से नहीं, बल्कि सत्ता के आदेश और दबाव से चलता है।” सबसे तीखा प्रहार सीपीआई-एमएल (CPI-ML) की ओर से आया, जिसने इसे “राजनीतिक सफाई अभियान” करार दिया, जिसका सीधा और स्पष्ट लक्ष्य है — “बीजेपी को मुस्लिम वोट से मुक्त चुनाव का मैदान देना।” ये गंभीर आरोप अब केवल राजनीतिक मंचों तक सीमित नहीं हैं; वे सोशल मीडिया पर भी व्यापक रूप से वायरल हो रहे हैं, जहाँ यह दावा किया जा रहा है कि आयोग की यह संदिग्ध प्रक्रिया चयनित बूथों और जिलों में ही चल रही है, जिससे यह सिद्ध होता है कि यह एक प्रशासनिक गलती नहीं, बल्कि एक सुनियोजित ‘वोटर-कटिंग’ रणनीति है, जो सीधे तौर पर बीजेपी को लाभ पहुँचाने के लिए बनाई गई है।

सीमांचल में विरोध और आक्रोश की लहर: “हमारे नाम कटे, पर हम मरे नहीं!”

सीमांचल के प्रमुख जिलों — किशनगंज, अररिया, कटिहार, और पूर्णिया — से सैकड़ों की संख्या में हैरान करने वाली शिकायतें सामने आई हैं, जो आयोग के दावों को झूठा साबित करती हैं। कई परिवारों ने अपनी आपबीती बताते हुए कहा कि उनके पूरे परिवार का नाम वोटर लिस्ट से हटा दिया गया है, जबकि वे वर्षों से उसी पते पर रह रहे हैं और उनके पास आधार कार्ड तथा वैध वोटर कार्ड मौजूद हैं। पूर्णिया के एक निवासी, मोहम्मद साजिद का आक्रोश स्पष्ट है: “हम 30 साल से यहीं वोट डालते आए हैं, इस बार कहा गया कि हमारा नाम लिस्ट में नहीं है। क्या सिर्फ इसलिए कि हम मुसलमान हैं, हम अब इस देश के नागरिक नहीं रहे?” ऐसे व्यक्तिगत मामले आयोग की कार्यप्रणाली पर गंभीर संदेह पैदा करते हैं। यह सवाल अब एक राष्ट्रीय बहस बन चुका है: क्या यह महज अक्षमता या प्रशासनिक गलती है — या फिर बीजेपी सरकार के राजनीतिक आदेश का क्रूर और दमनकारी पालन? ये आक्रोशित आवाज़ें स्पष्ट संदेश देती हैं कि नाम हटाए गए हैं, पर जनता की चेतना मरी नहीं है।

चुनाव आयोग की भूमिका पर अंतिम प्रश्न: निष्पक्षता या सत्ता के प्रति निष्ठा?

भारत का चुनाव आयोग दुनिया की सबसे सम्मानित संस्थाओं में गिना जाता है, लेकिन बिहार का यह मामला उसकी संवैधानिक विश्वसनीयता पर गहरी चोट है। अगर आयोग ही सत्ता के दबाव में झुकेगा, तो चुनाव लोकतांत्रिक नहीं, बल्कि “प्रबंधित परिणाम” बन जाएंगे। कानून स्पष्ट कहता है कि वोट डालना नागरिक का संवैधानिक अधिकार है, न कि सरकार की अनुमति पर निर्भर। तो फिर आयोग को कौन सा ‘SIR’ प्रक्रिया इतनी ज़रूरी लगी कि उसने चुनाव से कुछ ही हफ्ते पहले इतने बड़े पैमाने पर नाम काटना शुरू कर दिया? क्या आयोग ने उन लोगों से सत्यापन करवाया? क्या स्थानीय प्रशासन ने बीजेपी के इशारे पर मुस्लिम क्षेत्रों में बिना जांच के बड़े पैमाने पर नाम हटाने का आदेश दिया? यह स्थिति बताती है कि जब संवैधानिक संस्थाएँ अपनी निष्पक्षता खो देती हैं, तो लोकतंत्र एक दिखावा मात्र रह जाता है, और जनता के अधिकारों की रक्षा करने वाला कोई नहीं बचता।

बीजेपी के लाभ की आशंका: क्या वोटर लिस्ट से ही तय हो रहा है चुनाव का परिणाम?

राजनीतिक विशेषज्ञ और चुनावी डेटा विश्लेषक मानते हैं कि बिहार में करीब 2.5 करोड़ मुस्लिम वोटर हैं। अगर इस पूरी आबादी में से सिर्फ 10% भी जानबूझकर वोटर लिस्ट से हटा दिए गए, तो इसका सीधा और निर्णायक असर 40 से ज़्यादा विधानसभा सीटों पर पड़ेगा। ये वही सीटें हैं जहाँ बीजेपी गठबंधन की स्थिति कमजोर मानी जाती है और जहाँ मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण जीत-हार तय करता है। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है — क्या यह सब बीजेपी की “मुस्लिम-मुक्त रणनीति” को लागू करने का प्रशासनिक तरीका है? क्या अब चुनाव जीतने के लिए उम्मीदवारों को मजबूत नहीं किया जा रहा, बल्कि बीजेपी द्वारा वोटरों की संख्या ही कम की जा रही है? यह रणनीति लोकतांत्रिक सिद्धांतों की पूरी तरह से अवहेलना है, जहाँ सत्ता पाने के लिए जनता के अधिकारों की बलि चढ़ाई जा रही है।

नागरिक संगठनों की मांग: “सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में तत्काल जाँच हो”

कई मानवाधिकार संगठनों और सक्रिय नागरिक मंचों ने इस पूरे मामले को गंभीरता से लेते हुए मांग की है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय को इसमें तत्काल दखल देना चाहिए। इलेक्शन वॉच इंडिया की रिपोर्ट में यह भयावह तथ्य सामने आया है कि बिहार के सीमांचल और दरभंगा डिवीजन में पिछले दो महीनों में कुल 4.3 लाख नाम हटाए गए हैं, जिनमें से एक चौंकाने वाली संख्या यानी 73% मुस्लिम समुदाय से हैं। इस रिपोर्ट ने आयोग के “तकनीकी सुधार” के दावे को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है। अब मांग उठ रही है कि इस पूरे राजनीतिक अपराध की जांच एक न्यायिक आयोग या चुनाव पर्यवेक्षकों की स्वतंत्र और उच्च-स्तरीय टीम से कराई जाए, ताकि लाखों नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जा सके और लोकतंत्र को बीजेपी के राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाया जा सके।

यह सिर्फ एक समुदाय की नहीं, भारत की आत्मा की लड़ाई है

बिहार के चुनाव 2025 अब सिर्फ राजनीतिक दलों के बीच की सत्ता की जंग नहीं रहे, बल्कि एक समुदाय के संवैधानिक अस्तित्व और भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की गंभीर परीक्षा बन चुके हैं। जब 17% आबादी को वोट देने से पहले ही लिस्ट से मिटा दिया जाए, तो यह न केवल एक “प्रशासनिक गलती”, बल्कि एक सुनियोजित राजनीतिक अपराध है। चुनाव आयोग को अपनी गरिमा और अपने दायित्वों को याद रखना चाहिए। अगर आयोग सचमुच निष्पक्ष है और वह बीजेपी के दबाव में काम नहीं कर रहा है, तो उसे तत्काल और पारदर्शिता के साथ यह बताना चाहिए कि क्यों, कैसे और किसके आदेश पर बिहार में लाखों मुसलमानों के नाम वोटर लिस्ट से हटाए गए। लोकतंत्र में नाम काटना, नागरिकों की आवाज़ काटने जैसा है। अगर आज बिहार में मुसलमानों के नाम गायब हैं, तो कल किसी भी वर्ग का नंबर आ सकता है — यह सिर्फ एक समुदाय की बात नहीं है — यह भारत की आत्मा की और संविधान की रक्षा की लड़ाई है।

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