बात पुरानी है। मुगल अभी भारत में पैर नहीं जमा पाए थे। बाबर ने 1526 में पानीपत की लड़ाई जीती, लेकिन चार साल बाद ही चल बसे। गद्दी पर उनका बेटा हुमायूं बैठा। उस समय दिल्ली और पंजाब के कुछ इलाके ही उसके पास थे। चुनौती दे रहा था फरीद खान—उर्फ़ शेरशाह सूरी। वही शेरशाह जिसने देश में रुपया चलाया, चाँदी का सिक्का गढ़ा और भारतीय मुद्रा की असली बुनियाद रखी।
चौसा की लड़ाई: 1539
26 जून 1539 को बक्सर से 10 किमी दूर गंगा किनारे चौसा में हुमायूं और शेरशाह की भिड़ंत हुई। इसमें हुमायूं की बुरी तरह हार हुई। जान बचाकर वह गंगा की लहरों में कूद पड़ा, पर धारा इतनी तेज़ थी कि डूबने ही वाला था। तभी मुगल सेना का एक भिश्ती (पानी ढोने वाला) मशक भर रहा था। उसने बादशाह को डूबते देखा और कूद पड़ा। लहरों से जूझते हुए उसने हुमायूं को किनारे खींचकर बचा लिया।
हुमायूं ने होश में आते ही कहा—”तूने मेरी जान बचाई है, जो चाहे मांग ले।”
भिश्ती बोला—”हुजूर, एक नई मशक दिलवा दीजिए।”
बादशाह हँस पड़े।
एक दिन का बादशाह
साल 1555 में हुमायूं ने शेरशाह के वारिसों को हराकर दिल्ली की गद्दी फिर से पा ली। उसने भिश्ती को ढूँढा, जो अब भी गलियों में “पानी-पानी” पुकारते हुए मशक लटकाए फिरता था।
हुमायूं ने उसे दरबार में बुलाकर कहा, “भिश्ती, तूने चौसा में मेरी जान बचाई थी। आज मैं तुझे एक दिन के लिए भारत का बादशाह बनाता हूँ।” भिश्ती दंग रह गया। उसे शाही पगड़ी पहनाई गई, गद्दी पर बैठाया गया।
चमड़े के सिक्कों का तमाशा
अब “भिश्ती बादशाह” ने सोचा—कुछ यादगार करना चाहिए। मशक देखकर आइडिया आया और फरमान निकाला, “आज से सोना-चाँदी बंद! अब चलेंगे चमड़े के सिक्के।” उसने मशक को काट-काटकर गोल टुकड़े बनाए और उन पर अपनी तस्वीर चिपका दी। यह थे दुनिया के पहले “भिश्ती कॉइन”।
- कुछ ही घंटों में दिल्ली के बाजारों में हंगामा मच गया।
- हलवाई बोला—”ये सिक्के तो मेरे लड्डू से भी सस्ते लगते हैं।”
- कपड़े वाला चिल्लाया—”ये चमड़ा मेरे कुत्ते ने चबा लिया।”
- अनाजवाला गुस्से में बोला—”इसके बदले तो मैं भूसा भी न लूँ।”
- बाजार ठप हो गया, व्यापार रुक गया और गलियों में लोग भिश्ती बादशाह का मजाक उड़ाने लगे।
हुमायूं का गुस्सा और भिश्ती बादशाह
हुमायूं ने दिन ढलते ही गुस्से में भिश्ती से कहा—”ये क्या तमाशा कर दिया? तूने मेरी इकॉनमी को चमड़े की मशक बना दिया!” मासूम भिश्ती बोला—”हुजूर, मैंने सोचा चमड़ा सस्ता है, सब अमीर हो जाएंगे। और मेरी तस्वीर वाले सिक्के कितने प्यारे लगते हैं, ना?” यह जवाब हुमायूं के लिए कड़वी सीख बन गया कि शासन केवल ताज पहनाने से नहीं चलता। उसकी असली नींव बुद्धिमत्ता, समझदारी और दूरदर्शिता है।
आज के भिश्ती बादशाह
आज के हालात पर नज़र डालें तो इतिहास मानो खुद को दोहराता प्रतीत होता है। बाजार मंदा है, रुपये की कीमत लगातार गिर रही है और जनता मायूस है। फैसले ऐसे लिए जा रहे हैं जो कागज पर आकर्षक दिखते हैं, लेकिन जमीन पर उनका असर उल्टा पड़ रहा है। नीतियों की दिशा अक्सर दिखावे में मजबूत लगती है, जबकि हकीकत में वे लोगों के जीवन को और मुश्किल बना रही हैं।
भिश्ती बादशाह की कहानी यही सिखाती है कि सत्ता अगर समझ और विवेक के बिना दी जाए तो वह साम्राज्य की अर्थव्यवस्था और जनता की उम्मीदों को मशक की तरह छलनी कर देती है। सबक साफ है: राजसिंहासन पर बैठाना आसान है, पर शासन करने के लिए केवल ताक़त नहीं, बल्कि दूरदृष्टि चाहिए। और जब नीतियाँ जनता को हँसी का पात्र बना दें, तो समझ लेना चाहिए कि गद्दी पर बैठा शख्स “भिश्ती बादशाह” ही है।
सबक साफ है:
गद्दी पर बैठाने से कोई बादशाह नहीं बनता। समझदारी और दूरदर्शिता ही असली ताज है। “भिश्ती बादशाह” ने अपनी तस्वीर वाले सिक्कों पर छापा लगवाया था। आज भी वैसी ही छाप लगाई जा रही है— “राष्ट्राय स्वाहा!”