Home » Opinion » भारत रतन प्रणव मुखर्जी: भारतीय राजनीति में छोटे कद का शिखर पुरुष

भारत रतन प्रणव मुखर्जी: भारतीय राजनीति में छोटे कद का शिखर पुरुष

Facebook
WhatsApp
X
Telegram

नई दिल्ली 31 अगस्त 2025

भारत की राजनीति में बहुत कम ऐसे नेता हुए हैं जिन्होंने हर दौर, हर परिस्थिति और हर राजनीतिक उतार-चढ़ाव में न केवल अपनी उपस्थिति दर्ज कराई बल्कि अपनी निष्ठा, कर्तव्यपरायणता और अद्वितीय राजनीतिक सूझबूझ से देश की दिशा और दशा तय करने में अहम भूमिका निभाई। प्रणव मुखर्जी, जिन्हें हम स्नेहपूर्वक ‘प्रणब दा’ कहकर पुकारते हैं, ऐसे ही महान नेताओं में से एक रहे। वे केवल कांग्रेस पार्टी के नेता या भारत के राष्ट्रपति ही नहीं थे, बल्कि वे भारतीय लोकतंत्र की आत्मा के संरक्षक और संवैधानिक मर्यादा के प्रतीक बनकर उभरे। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करना न केवल श्रद्धांजलि देना है बल्कि उस विरासत को पुनर्जीवित करना है जो भारत को आज भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा: एक गाँव से राष्ट्र तक की यात्रा

प्रणव मुखर्जी का जन्म 11 दिसंबर 1935 को पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के मिराटी गाँव में हुआ। एक साधारण किसान परिवार से आने वाले प्रणव दा ने बचपन से ही शिक्षा को अपना सबसे बड़ा साधन माना। उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से इतिहास और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की पढ़ाई की और फिर कानून की डिग्री हासिल की। शिक्षा ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा और उन्हें भारतीय राजनीति की जटिलताओं को समझने का दृष्टिकोण प्रदान किया। उनके जीवन की यह यात्रा इस बात का प्रमाण है कि कठिन परिस्थितियों से निकलकर भी एक व्यक्ति अपनी मेहनत और लगन से राष्ट्र के उच्चतम पद तक पहुँच सकता है।

राजनीति में प्रवेश और प्रारंभिक चुनौतियाँ

1969 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी में सक्रिय राजनीति की शुरुआत करने वाले प्रणव मुखर्जी ने जल्दी ही अपनी बौद्धिक क्षमता और संगठनात्मक कौशल से पहचान बनाई। 1969 में राज्यसभा में नामांकन के बाद वे लगातार संसद के महत्वपूर्ण सदस्य बने रहे। उनके शुरुआती वर्षों में ही यह साफ हो गया था कि वे मात्र एक राजनेता नहीं, बल्कि एक रणनीतिकार और दूरदर्शी विचारक हैं। उनके लिए राजनीति सत्ता पाने का साधन नहीं बल्कि राष्ट्र निर्माण की जिम्मेदारी थी।

इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र और ‘क्राइसिस मैनेजर’

प्रणव मुखर्जी इंदिरा गांधी के बेहद विश्वासपात्र थे। चाहे आपातकाल का दौर हो या 1980 में सत्ता वापसी के बाद सरकार की नीतियों का निर्धारण, प्रणव दा हर परिस्थिति में इंदिरा गांधी के सबसे बड़े संकटमोचक साबित हुए। उनकी पहचान एक ऐसे मंत्री के रूप में हुई जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हल निकालने की क्षमता रखते थे। इंदिरा गांधी उन्हें ‘मैन ऑफ डिटेल’ कहा करती थीं क्योंकि वे हर नीतिगत मसले पर गहरी जानकारी रखते थे और ठोस सुझाव देते थे।

वित्त मंत्री के रूप में निर्णायक योगदान

प्रणव मुखर्जी कई बार भारत के वित्त मंत्री रहे और हर बार उन्होंने भारत की आर्थिक दिशा तय करने में निर्णायक भूमिका निभाई। 1982 से 1984 के बीच वित्त मंत्री रहते हुए उन्होंने भारत को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं में प्रतिष्ठा दिलाई। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक में भारत की भूमिका को मजबूत किया। 2004 में दोबारा वित्त मंत्री बनने के बाद उन्होंने भारत को वैश्विक आर्थिक संकट से उबारने में अहम भूमिका निभाई। उनके बजट भाषण को आज भी ‘गंभीरता और व्यावहारिकता’ का आदर्श माना जाता है।

विदेश नीति में कुशल रणनीतिकार

प्रणव दा ने विदेश मंत्री के रूप में भी भारत की विदेश नीति को नई दिशा दी। वे भारत के पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने के पक्षधर थे और साथ ही वैश्विक मंचों पर भारत की आवाज को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते थे। चाहे अमेरिका के साथ परमाणु करार हो या रूस, यूरोप और अफ्रीका के साथ संबंधों का विस्तार—प्रणव मुखर्जी की भूमिका निर्णायक रही। उन्होंने यह साबित किया कि भारत की विदेश नीति केवल कूटनीति तक सीमित नहीं है बल्कि यह भारत के आर्थिक और रणनीतिक हितों से गहराई से जुड़ी है।

रक्षा मंत्री और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टा’

रक्षा मंत्री रहते हुए प्रणव मुखर्जी ने भारतीय सेना के आधुनिकीकरण पर विशेष जोर दिया। वे समझते थे कि बिना मजबूत सेना के भारत अपनी सीमाओं की सुरक्षा और वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकता। उन्होंने रक्षा खरीद प्रक्रियाओं में पारदर्शिता और सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाए। कारगिल युद्ध के बाद सेना को आधुनिक बनाने की दिशा में उनकी योजनाएँ मील का पत्थर साबित हुईं।

संगठन कौशल और ‘किंगमेकर’ की भूमिका

प्रणव मुखर्जी का सबसे बड़ा गुण यह था कि वे केवल मंत्री या प्रशासक ही नहीं थे बल्कि संगठन चलाने की कला में भी निपुण थे। उन्हें कांग्रेस पार्टी का ‘थिंक टैंक’ कहा जाता था। सोनिया गांधी के नेतृत्व में जब कांग्रेस सत्ता में आई तो प्रणव दा ने हर बार ‘किंगमेकर’ की भूमिका निभाई। प्रधानमंत्री पद के लिए जब भी नाम तय करने की स्थिति आती, प्रणव मुखर्जी का नाम चर्चा में होता लेकिन उन्होंने कभी पद के लिए लालसा नहीं दिखाई। उनके लिए राष्ट्र सेवा सर्वोपरि थी।

भारत के राष्ट्रपति के रूप में गरिमा का प्रतीक

2012 में प्रणव मुखर्जी भारत के 13वें राष्ट्रपति बने। राष्ट्रपति भवन में रहते हुए उन्होंने जिस गरिमा, संतुलन और संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन किया, वह आज भी उदाहरण है। उन्होंने कभी भी अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि को राष्ट्रपति पद की मर्यादा पर हावी नहीं होने दिया। उनके कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति भवन न केवल राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र रहा बल्कि सांस्कृतिक और बौद्धिक आदान-प्रदान का मंच भी बना।

विद्वता और लेखन: एक चिंतक की पहचान

प्रणव दा केवल राजनेता ही नहीं, बल्कि गहरे चिंतक और विद्वान भी थे। उन्होंने राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज पर कई किताबें लिखीं। उनके लेखन से यह स्पष्ट होता है कि वे घटनाओं को केवल सतही तौर पर नहीं देखते थे बल्कि उसके पीछे की गहराई और दीर्घकालिक प्रभावों को भी समझते थे। उनकी किताबें आज भी राजनीति विज्ञान के छात्रों और शोधकर्ताओं के लिए मार्गदर्शक हैं।

विनम्रता और सादगी का जीवन

अपने उच्च पदों और उपलब्धियों के बावजूद प्रणव मुखर्जी हमेशा जमीन से जुड़े रहे। वे सरल जीवन जीते थे, और अपनी बंगाली सांस्कृतिक जड़ों से गहराई से जुड़े थे। उनकी विनम्रता ने उन्हें हर वर्ग के लोगों का प्रिय बना दिया। चाहे संसद के गलियारों में हो या गाँव की पगडंडियों पर, प्रणव दा हर जगह सहज और अपनापन से भरे रहते थे।

विपक्ष और सहयोगियों से संबंध

प्रणव मुखर्जी का एक और महत्वपूर्ण गुण था—उनकी विपक्ष से संवाद करने की क्षमता। वे मानते थे कि लोकतंत्र में विपक्ष दुश्मन नहीं बल्कि सहयात्री होता है। यही कारण था कि वे बीजेपी, लेफ्ट और अन्य दलों के नेताओं से समान सहजता से बातचीत करते और हर विवाद का शांतिपूर्ण समाधान ढूँढ़ने का प्रयास करते। उनकी यह विशेषता उन्हें भारतीय राजनीति में ‘सर्वस्वीकार्य नेता’ बनाती थी।

आलोचनाएँ और चुनौतियाँ

किसी भी बड़े नेता की तरह प्रणव मुखर्जी को भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। कई बार उन पर अत्यधिक व्यावहारिक राजनीति करने का आरोप लगा, तो कभी यह कहा गया कि वे प्रधानमंत्री बनने के योग्य होते हुए भी उस पद तक नहीं पहुँच पाए। लेकिन यह उनकी महानता थी कि उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को राष्ट्रहित से ऊपर नहीं रखा। यही कारण है कि वे आज भी ‘कर्तव्यनिष्ठ नेता’ के रूप में याद किए जाते हैं।

भारत रत्न और सम्मान

2019 में उन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ दिया गया। यह केवल प्रणव मुखर्जी का सम्मान नहीं था बल्कि भारतीय लोकतंत्र की उस परंपरा का सम्मान था जिसमें एक साधारण परिवार का बेटा राष्ट्र के सर्वोच्च पद तक पहुँच सकता है। उनके लिए यह सम्मान एक निजी उपलब्धि नहीं बल्कि जनता के विश्वास की मान्यता थी।

विरासत और सीख

प्रणव मुखर्जी की विरासत हमें यह सिखाती है कि राजनीति केवल सत्ता की लड़ाई नहीं बल्कि सेवा और कर्तव्य का माध्यम है। उन्होंने हमें यह दिखाया कि एक नेता की सबसे बड़ी ताकत उसकी ईमानदारी, निष्ठा और विवेकशीलता होती है। आज जब राजनीति में ध्रुवीकरण और कटुता बढ़ रही है, प्रणव दा की शैली हमें संवाद, सहिष्णुता और संतुलन की ओर ले जाती है।

प्रणव दा को स्मरण

प्रणव मुखर्जी केवल कांग्रेस के नेता नहीं थे, वे भारतीय लोकतंत्र की आत्मा थे। उन्होंने अपने जीवन से यह साबित किया कि सच्चा नेतृत्व वही है जो सत्ता से ऊपर उठकर राष्ट्र की भलाई के लिए काम करे। उनकी पुण्यतिथि पर हम सभी को यह संकल्प लेना चाहिए कि हम उनके आदर्शों और मूल्यों को आगे बढ़ाएँगे। प्रणव दा आज भले ही हमारे बीच न हों, लेकिन उनकी स्मृतियाँ, उनकी शिक्षा और उनकी नीतियाँ भारत को आगे बढ़ाने में मार्गदर्शन करती रहेंगी।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *