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BCCI : बोर्ड ऑफ क्रोनिज़ एंड कनेक्शंस इन इंडिया — खिलाड़ियों ने बचाई क्रिकेट की लाज वरना ‘खेल’ हो जाता खत्म

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भारतीय क्रिकेट आज उस चौराहे पर खड़ा है जहाँ खेल से ज़्यादा सत्ता और राजनीति का बोलबाला है। जो बोर्ड कभी देश के गौरव, अनुशासन और प्रतिभा का प्रतीक हुआ करता था, वही आज नेताओं, अफसरों और उनके बेटों की “विरासत” का हिस्सा बन गया है। बीसीसीआई अब “Board of Cricket Control in India” नहीं बल्कि “Board of Cronies and Connections in India” बन चुका है। यहाँ टैलेंट और योग्यता की कोई कीमत नहीं, और जो महत्त्व रखता है वो है — किसका बेटा है, किससे संबंध हैं, और कौन सत्ता के करीब है। यह वो सड़ा हुआ दौर है जहाँ खेल से जुड़े फैसले मैदान पर नहीं, बल्कि एसी कमरों में, राजनीतिक जोड़-घटाव और व्यक्तिगत ईगो के हिसाब से लिए जा रहे हैं। जिन हाथों में कभी बैट और बॉल हुआ करती थी, अब वहाँ फ़ाइलें और फेवर हैं। यही वजह है कि आज भारतीय क्रिकेटर मैदान पर अपनी जान झोंककर देश की लाज बचा रहे हैं, वरना बोर्ड और चयनकर्ताओं की राजनीति अब तक इस खेल को भी मिट्टी में मिला चुकी होती।

कभी भारतीय क्रिकेट देश की पहचान था। यह सिर्फ खेल नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का हिस्सा था। सचिन तेंदुलकर की विनम्रता, सौरव गांगुली की आक्रामकता, राहुल द्रविड़ की स्थिरता, धोनी की रणनीति और विराट कोहली की जुनून भरी ऊर्जा — इन सबने भारत को क्रिकेट महाशक्ति बनाया। लेकिन आज उस खेल का संचालन उन लोगों के हाथों में है जिन्होंने बल्ला कभी पकड़ा नहीं, जिन्होंने मैदान में पसीना बहाने की तकलीफ कभी नहीं जानी। दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन में अरुण जेटली के बेटे रोहन जेटली, मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के बेटे, और बीसीसीआई के शीर्ष पर गृह मंत्री अमित शाह के बेटे जय शाह — यह तीन नाम ही भारतीय क्रिकेट की गिरावट की कहानी बयां करने के लिए काफी हैं। ये लोग किसी क्रिकेटिंग मेरिट से नहीं, बल्कि राजनीतिक वंशवाद से कुर्सियों पर बैठे हैं। सवाल यह नहीं कि ये कौन हैं, सवाल यह है कि ये वहाँ क्यों हैं। जब क्रिकेट में कोई पारिवारिक विरासत नहीं होती, तो बीसीसीआई में यह “वंशानुगत खेल” कैसे वैध हो गया?

सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जो लोग खुद अपने करियर में मैदान पर टिक नहीं पाए, वही आज यह तय कर रहे हैं कि देश के लिए कौन खेलेगा। अजित आगरकर, जिनका टेस्ट करियर लगातार शून्य पर समाप्त होता रहा — ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सात बार “डक” पर आउट होना — वह आज भारतीय टीम के चयनकर्ता हैं। यह भारतीय क्रिकेट की विडंबना नहीं, बल्कि उसकी नैतिक मृत्यु का संकेत है। जो व्यक्ति खुद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थायित्व नहीं पा सका, वही विराट कोहली और रोहित शर्मा जैसे खिलाड़ियों के भविष्य का निर्णय ले रहा है। यह व्यवस्था इस कदर सड़ चुकी है कि “डक पर डक” मारने वाले चयनकर्ता अब “सेंचुरी पर सेंचुरी” जड़ने वालों का भाग्य तय कर रहे हैं। विराट कोहली और रोहित शर्मा जैसे महान खिलाड़ियों के साथ जो हुआ है, वह सिर्फ व्यक्तिगत अपमान नहीं, बल्कि खेल की आत्मा की हत्या है।

भारत के पास क्रिकेट टैलेंट की ऐसी गहराई है जो किसी भी देश को गर्व से भर दे। आज भारत के पास एक नहीं, तीन मजबूत अंतरराष्ट्रीय स्तर की टीमें बनाने की क्षमता है। देश का हर राज्य, हर ज़िला, हर गली क्रिकेट की नई प्रतिभाओं से भरा हुआ है। आईपीएल ने इस टैलेंट को दुनिया के सामने लाकर यह साबित किया कि भारत क्रिकेट का भविष्य है। लेकिन जब इन खिलाड़ियों का चयन और करियर ऐसे लोगों के हाथ में हो जो राजनीति के दरबार के वफादार हैं, तो यह टैलेंट कुचल दिया जाता है। बोर्ड और चयन समिति का काम था इन प्रतिभाओं को निखारना, उन्हें तैयार करना, लेकिन जो हो रहा है वह इसका उल्टा है — खिलाड़ी मेहनत करते हैं, और उसका श्रेय बोर्ड के कमरे में बैठे लोग खा जाते हैं। बीसीसीआई दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड है, लेकिन उस अमीरी में खिलाड़ियों की नहीं, बोर्ड की विलासिता की चमक झलकती है।

रोहित शर्मा और विराट कोहली के साथ जो हुआ, वह भारतीय क्रिकेट की आत्मा पर गहरा वार है। रोहित, जिसने 2023 और 2024 में मात्र आठ महीनों के अंतराल में भारत को दो आईसीसी खिताब दिलाए, आज कप्तानी से बाहर हैं। विराट, जिसने देश को विश्व क्रिकेट में एक नई पहचान दी, उसे बार-बार निशाना बनाया गया। यह किसी चयन-नीति की गलती नहीं, बल्कि सत्ता और व्यक्तिगत ईर्ष्या की साजिश है। जब तक निर्णय लेने वालों के पदों पर क्रिकेट की समझ रखने वाले लोग नहीं होंगे, तब तक यह सिलसिला चलता रहेगा — खिलाड़ी मैदान में खून-पसीना बहाएंगे और कुछ अयोग्य चेहरे उनके करियर से खेलते रहेंगे। यह खेल अब क्रिकेट नहीं रहा, यह “क्लिकरेट” — ग्रुपबाज़ी, वंशवाद और शक्ति प्रदर्शन का मेल बन गया है।

आज की हकीकत यह है कि भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों की मेहनत से बचा हुआ है। विराट, रोहित, बुमराह, सिराज, हार्दिक, गिल, शुभमन और सूर्यकुमार जैसे खिलाड़ी देश की लाज संभाले हुए हैं, वरना बीसीसीआई की राजनीति अब तक क्रिकेट को भी “डूबा” चुकी होती। जब मैदान में खिलाड़ी जीत के लिए लड़ते हैं, तो वे सिर्फ विपक्षी टीम से नहीं, बल्कि अपने ही बोर्ड के अंदर बैठे सियासी शेरों से भी जंग लड़ रहे होते हैं। अगर आज भारत क्रिकेट में विश्व का बादशाह है, तो वह इन खिलाड़ियों के समर्पण की वजह से है — न कि किसी सचिवालय की वजह से। यह खिलाड़ी ही हैं जिन्होंने देश का सिर ऊँचा रखा है, नहीं तो बोर्ड की नीतियों और चयनकर्ताओं की अयोग्यता ने क्रिकेट की इज़्ज़त का जनाज़ा निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

भारत के क्रिकेट बोर्ड को अब आईने में झाँकना होगा। सवाल साफ है — क्या बीसीसीआई खिलाड़ियों का बोर्ड है या सत्ता का? क्या इस संस्था का उद्देश्य टैलेंट को बढ़ावा देना है या नेताओं की औलादों को पद देना? जब तक इस सवाल का जवाब नहीं दिया जाता, भारतीय क्रिकेट अपनी आत्मा खोता रहेगा। अब समय आ गया है कि क्रिकेट को फिर से क्रिकेटरों के हाथ में लौटाया जाए, नेताओं और नौकरशाही के बेटों के नहीं। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो आने वाली पीढ़ियाँ यह कहेंगी — “भारत ने क्रिकेट नहीं, क्रिकेट ने भारत को खो दिया।”

क्रिकेट आज बचा हुआ है क्योंकि मैदान में खेलने वाले खिलाड़ी अब भी देश के लिए खेल रहे हैं, वरना बोर्ड की राजनीति और सत्ता के खेल ने इसे भी बर्बाद कर दिया होता। यह खिलाड़ी हैं जिन्होंने देश की लाज बचाई है —

और अगर यह लाज कभी इनके हाथ से फिसली, तो क्रिकेट की भी बज जाएगी “बजा”। क्योंकि जिस दिन खिलाड़ी हार मान गए, उस दिन क्रिकेट नहीं, पूरा भारत हार जाएगा।

 

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