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“Approximate” या “Adjustment”? — बिहार चुनाव में आंकड़ों का खेल, जनमत के साथ साजिश का अंदेशा!

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नई दिल्ली 7 नवंबर 2025

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का पहला चरण ऐतिहासिक बताया गया। चुनाव आयोग (ECI) ने बड़े गर्व से कहा कि इस बार 64.66% का रिकॉर्ड मतदान हुआ है — बिहार के चुनावी इतिहास का सबसे ऊँचा प्रतिशत। आयोग ने इसे “चुनाव का पर्व” और “बिहार का गर्व” कहा। पर सवाल यह है कि जब तकनीकी दृष्टि से हर मतदान केंद्र पर नियुक्त Presiding Officer (PRO) ने स्वयं मतदान समाप्त होने के तुरंत बाद ECINet सिस्टम पर वोटर टर्नआउट यानी मतदान प्रतिशत सीधे दर्ज किया, तो फिर चुनाव आयोग उन आंकड़ों को “approximate voter turnout trends” यानी “अनुमानित मतदान रुझान” क्यों कह रहा है? क्या यह शब्द मात्र एक तकनीकी औपचारिकता है या फिर इसके पीछे कोई गहरी साजिश छिपी हुई है? जबकि वास्तविकता यह है कि जब मतदान शुरू होता है, तो चुनाव आयोग (ECI) हर दो घंटे में आंकड़े जारी करता है, जिसमें बताया जाता है कि उस समय तक कितने प्रतिशत मतदान हुआ है। शाम को जब मतदान समाप्त हो जाता है, तो कुछ घंटों बाद आयोग एक अंतिम आंकड़ा जारी करता है — जो आमतौर पर पहले से 1 या 2 प्रतिशत ज्यादा होता है। तो फिर सवाल यह है — जब सब कुछ उसी दिन पूरा हो जाता है, तो अंतिम आंकड़े जारी करने में 2 से 3 दिन क्यों लगते हैं?

 परंतु चुनाव आयोग अपने जारी किए गए आंकड़ों में लगातार फेरबदल करता रहा है। चुनाव के दिन जो मतदान प्रतिशत बताया जाता है, वह अक्सर दो दिन बाद बदल जाता है। पहले 60% बताया जाता है, फिर दो दिन में वही आंकड़ा 64% या 67% हो जाता है। कोई कारण नहीं बताया जाता, कोई पारदर्शी रिपोर्ट नहीं आती, बस एक प्रेस नोट या वेबसाइट अपडेट — और जनता को कहा जाता है कि “अंतिम आंकड़ा यही है।” सवाल यह उठता है कि क्या यह सिर्फ एक तकनीकी देरी है या जानबूझकर की जाने वाली आंकड़ों की हेराफेरी है जो सत्ता के पक्ष में वातावरण बनाने के लिए की जाती है?

अगर Presiding Officers ने उसी दिन सभी मतदान केंद्रों से डेटा फीड कर दिया, तो यह “Approximate” क्यों कहा जा रहा है? क्या यह बहाना भविष्य में प्रतिशत बदलने के लिए पहले से रखा गया गुंजाइश का दरवाज़ा है? यह लोकतंत्र के नाम पर खेले जाने वाले उस राजनीतिक खेल का हिस्सा लगता है, जिसमें जनमत की पवित्रता को “Trend” बना दिया गया है।

चुनाव आयोग हमेशा दावा करता है कि भारत का चुनाव तंत्र सबसे पारदर्शी और भरोसेमंद है। मगर “Approximate” जैसा शब्द उस भरोसे की जड़ में ही कील ठोंक देता है। जब आयोग खुद अपने आंकड़ों को “अनुमानित” कह रहा है, तो जनता क्या माने? क्या हम ऐसे लोकतंत्र में जी रहे हैं जहाँ जनता की गिनती भी अनुमान पर टिकी है? क्या यह वही भारत है जहाँ हर वोट की कद्र होती है, या फिर अब वोटों की गिनती का अर्थ सुविधाजनक आंकड़ा बन गया है?

यह पहली बार नहीं है जब ऐसा हुआ हो। 2019 के लोकसभा चुनाव, 2020 के बिहार चुनाव और कई राज्य चुनावों में भी मतदान प्रतिशत को लेकर यही “Approximate” बहाना दिया गया था। पहले बताया गया प्रतिशत और अंतिम घोषित प्रतिशत में हमेशा 3 से 7% का अंतर देखा गया। सवाल यह है कि इतने बड़े अंतर का कारण क्या है? क्या यह सिर्फ प्रशासनिक भूल है या कोई पूर्व नियोजित राजनीतिक चाल जो जनता की नज़रों से छिपा दी जाती है?

यहाँ असल मुद्दा तकनीक नहीं, ईमानदारी का है। चुनाव आयोग ने कहा है कि “Presiding Officers updated the Voter Turnout figures before leaving the polling station as per ECI’s latest instructions.” यानी हर PRO ने अपने स्तर पर अंतिम आंकड़े अपलोड किए। फिर आखिर यह “Approximate” शब्द क्यों जोड़ा गया? यह शब्द अपने आप में पारदर्शिता पर ताला लगाने जैसा है।

अगर 1,570 PROs का डेटा देर से आया, तो क्या इसके कारण पूरा आंकड़ा “Approximate” कहा जा सकता है? क्या इतने विशाल सिस्टम में कुछ देर से अपडेट होने को बहाना बनाकर पूरे राज्य के मतदान प्रतिशत को अनिश्चित कहा जाना न्यायसंगत है? नहीं! यह असल में जनता के मनोबल के साथ खिलवाड़ है। यह जनादेश को धुंधला करने की संस्थागत तकनीक है।

इतिहास गवाह है कि जब भी सत्ता पर संकट आता है, आंकड़े बदल जाते हैं। पहले मतदान का प्रतिशत घटा-घटाकर दिखाया जाता है ताकि लोगों को लगे कि जनता उत्साहित नहीं थी, फिर नतीजों के बाद वही प्रतिशत बढ़ाकर बताया जाता है ताकि विजेता दल की वैधता को मजबूत किया जा सके। यह एक राजनीतिक मनोविज्ञान है — जनमत को आंकड़ों के माध्यम से कंट्रोल करने का तरीका। यह केवल एक प्रशासनिक खेल नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की आत्मा पर वार है।

बिहार के इस चुनाव में भी वही पैटर्न नजर आ रहा है। ECI का प्रेस नोट एक तरफ “Historic Turnout” का दावा करता है, तो दूसरी तरफ उसे “Approximate” बताता है। इसका मतलब साफ है — या तो आयोग को अपने सिस्टम पर भरोसा नहीं है, या फिर वह जानबूझकर एक लचीलापन छोड़ रहा है ताकि आगे चलकर परिस्थितियों के अनुसार आंकड़ों में सुधार किया जा सके। लोकतंत्र में “सुधार” शब्द जितना आकर्षक लगता है, चुनावी आंकड़ों में वह उतना ही खतरनाक बन जाता है।

अब यह समय है जब जनता को यह सवाल पूछना चाहिए — क्या हम वास्तव में मतदान कर रहे हैं या सिर्फ “वोटर ट्रेंड्स” बना रहे हैं? क्या हमारी भागीदारी को आंकड़ों की साजिश के हवाले कर दिया गया है? जब हर वोट गिना जा चुका है, जब हर पोलिंग बूथ से डेटा सीधे ECINet पर अपलोड हो चुका है, तब किसी “Approximation” की कोई जरूरत नहीं है।

इस पूरे प्रकरण से यही संदेश निकलता है कि चुनाव आयोग की प्राथमिकता अब “Transparency” नहीं बल्कि “Manageability” बन चुकी है। जो आंकड़े जनता को उत्साहित करते हैं, उन्हें तुरंत जारी किया जाता है; जो आंकड़े सवाल उठाते हैं, उन्हें “Approximate” कहकर दबा दिया जाता है। यह रवैया किसी स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्था का नहीं, बल्कि एक प्रबंधकीय तंत्र का है जो ऊपर से लोकतंत्र का मुखौटा पहने हुए है।

बिहार का यह चुनाव न केवल राज्य की राजनीति का निर्धारण करेगा, बल्कि भारत के लोकतंत्र की साख का भी परीक्षण है। जब जनता यह महसूस करने लगे कि उसके वोट की गिनती भी “Approximate” है, तब लोकतंत्र का आधार ही हिल जाता है। क्योंकि लोकतंत्र अनुमान पर नहीं, विश्वास पर चलता है। और जब यह विश्वास डगमगाने लगे, तो चुनाव का हर नतीजा संदिग्ध बन जाता है।

आज सवाल यह नहीं है कि 64.66% मतदान हुआ या 67% — सवाल यह है कि क्या यह संख्या सच्ची है? क्या आयोग के आंकड़े जनता के वोटों की सही कहानी कह रहे हैं, या फिर यह केवल राजनीतिक सुविधा के हिसाब से गढ़ी गई कहानी है?

लोकतंत्र का मतलब सिर्फ वोट डालना नहीं, बल्कि उस वोट की गिनती पर यकीन होना भी है। जब चुनाव आयोग “Approximate” शब्द जोड़ता है, तो वह दरअसल जनता से कह रहा होता है — “हम आपको पूरी सच्चाई नहीं बता सकते।” यही सबसे बड़ा खतरा है। यह धीरे-धीरे लोकतंत्र को “असली जनादेश” से “प्रबंधित जनादेश” में बदल देता है।

चुनाव आयोग को जनता को यह स्पष्ट जवाब देना होगा कि आखिर यह “Approximate” शब्द किसके लिए इस्तेमाल किया गया है। अगर PRO के आंकड़े फाइनल नहीं हैं, तो फिर कौन तय करेगा कि फाइनल क्या है? अगर जनता की गिनती “अनुमानित” है, तो लोकतंत्र अब सिर्फ एक प्रक्रिया रह गया है, जनता की शक्ति नहीं।

 सच्चाई यही है कि यह “Approximate” शब्द एक प्रशासनिक तकनीक नहीं, था एक राजनीतिक हथियार है — जो हर उस मौके पर इस्तेमाल किया जाता है जब सच्चाई को थोपा नहीं जा सकता, तो उसे टाला जाता है।

भारत को “Approximate Democracy” नहीं चाहिए। हमें चाहिए — Absolute Transparency, Absolute Accountability, और Absolute Truth.
क्योंकि अगर जनता का वोट “Approximate” हो गया, तो फिर लोकतंत्र भी “Approximate” ही रह जाएगा।

 

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