राजस्थान की ऐतिहासिक और आध्यात्मिक नगरी अजमेर में बसी है एक ऐसी दरगाह, जहाँ सिर्फ दुआ नहीं माँगी जाती — वहाँ दिल बहलते हैं, मन टूटते हैं और आत्मा जुड़ती है। यह दरगाह है हज़रत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह की, जिन्हें दुनिया भर में “ग़रीब नवाज़” के नाम से जाना जाता है। उन्होंने भारत में सूफी परंपरा की वह मशाल जलाई, जिसकी रौशनी आज भी प्यार, सेवा और इंसानियत को रास्ता दिखा रही है।
ख्वाजा की दरगाह: जहाँ सर झुकता है, आत्मा उठती है
अजमेर की दरगाह कोई साधारण धार्मिक स्थान नहीं। यह वह जगह है जहाँ हिंदू-मुसलमान, सिख-ईसाई, अमीर-गरीब — सब एक ही दर पर सिर झुकाते हैं। इस दरगाह की विशेषता इसकी सरलता, गरिमा और आध्यात्मिक ऊर्जा में है। यहां आने वाला हर व्यक्ति खुद को एक बड़े परिवार का हिस्सा महसूस करता है — ख्वाजा का दरबार सभी का है।
दरगाह का मुख्य गुम्बद, सफेद संगमरमर की दीवारें, फौलादी द्वार, और अंदर विराजमान मजार — हर चीज़ एक दिव्यता से भरी है। लोग फूलों की चादरें लेकर आते हैं, अगरबत्तियाँ जलाते हैं, और खामोशी से दुआ माँगते हैं। दरगाह में कव्वालियों की आवाज़ जब हवा में तैरती है, तो हर ज़ुबान पर वही स्वर फूटता है — “ख्वाजा मेरे ख्वाजा, दिल में समा जा…”
खानकाह: ख्वाजा की परंपरा, सेवा और सच्ची इबादत का केंद्र
ख्वाजा साहब ने केवल मज़ार नहीं छोड़ी — उन्होंने एक खानकाह की परंपरा भी स्थापित की। यह केवल ध्यान और तालीम का स्थल नहीं था, बल्कि सेवा और बराबरी की चेतना का केंद्र था। यहाँ भोजन (लंगर) सभी को समान रूप से परोसा जाता — चाहे वह निर्धन हो या नवाब। यहाँ कोई बड़ा-छोटा नहीं, सब अल्लाह के बंदे थे।
ख्वाजा साहब की खानकाह आज भी दरगाह परिसर में सक्रिय है — वहाँ सूफी मत के अनुसार ध्यान, तालीम, सेवा और अध्यात्म सिखाया जाता है। यह वह स्थान है जहाँ से निकलकर चिश्ती परंपरा के हज़ारों फ़कीर और संत भारत के कोने-कोने में शांति, प्रेम और भाईचारे का संदेश लेकर पहुँचे।
उर्स शरीफ: रूहानी मिलन और श्रद्धा का महासंगम
‘उर्स’ का अर्थ होता है — ‘मिलन’। ख्वाजा साहब की पुण्यतिथि को ‘उर्स शरीफ‘ कहा जाता है, और यह अजमेर में सालभर की सबसे भव्य और आध्यात्मिक घटना होती है। यह दिवस, दरगाह में मौत का मातम नहीं बल्कि जीवन के उस परम क्षण का उत्सव होता है जब सूफी संत अपने रब से मिलन के लिए निकलते हैं।
हर साल रजब महीने की 6वीं तारीख को ख्वाजा साहब का उर्स मनाया जाता है, और इसमें भारत सहित पाकिस्तान, बांग्लादेश, ईरान, अफगानिस्तान, ब्रिटेन, अमेरिका और खाड़ी देशों से भी लाखों जायरीन आते हैं। दरगाह परिसर को फूलों और रोशनी से सजाया जाता है। कव्वालियाँ रात भर चलती हैं, दरगाह के चिराग जलते हैं और ख्वाजा साहब की शान में नातें और मनाजातें पढ़ी जाती हैं।
उर्स के दौरान ‘झंडा चढ़ाना‘, ‘महफिल-ए-समा‘ (कव्वाली सभा), ‘कुल की फातिहा‘, ‘बरकत की देग‘ (विशाल लंगर) जैसी रस्में अद्भुत श्रद्धा और समर्पण के साथ होती हैं। यह आयोजन धर्म नहीं, भक्ति और मानवता का त्योहार होता है।
ख्वाजा का संदेश: मोहब्बत सबसे बड़ी इबादत है
हज़रत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का जीवन और शिक्षाएं आज भी गूंजती हैं, “जो भूखे को रोटी दे, दुखी को सुकून दे, और किसी को बाँटकर मुस्कराए — वही सच्चा आशिक है अल्लाह का”।
ख्वाजा साहब की राह में तलवार नहीं, तस्लीम है। उनका धर्म उपदेश नहीं, उदाहरण था। उन्होंने कभी किसी को धर्म बदलने को नहीं कहा, बल्कि दिल बदलने को कहा। उन्होंने कहा — खुदा किसी मज़हब की इमारत में नहीं, किसी भूखे के पेट, किसी दुखी की आँख, किसी टूटे दिल की पुकार में बसता है।
अजमेर शरीफ — वो दरगाह जहाँ फरिश्ते भी सर झुकाते हैं
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह, उनकी खानकाह और उर्स शरीफ — ये सब मिलकर एक ऐसा आध्यात्मिक संसार बनाते हैं जो मानवता की नींव पर खड़ा है। यह वह स्थान है जहाँ लोग ना केवल अपने दुःख लेकर आते हैं, बल्कि ख्वाजा की दया लेकर लौटते हैं।
यह दरगाह सिर्फ अजमेर की नहीं — यह भारत की साझा संस्कृति, सूफीयत और सहिष्णुता की सांसें हैं।
यहाँ कोई भेद नहीं, बस एक ही पहचान है —”मैं ख्वाजा का मेहमान हूँ, और उसके दर से खाली नहीं जाऊँगा।”