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AK के बाद PK निकला BJP का छोटा रिचार्ज: जनसुराज बना जनसमर्पण, प्रत्याशियों ने टेक घुटने

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भारतीय राजनीति में “जनता का रणनीतिकार” होने का दावा करने वाले प्रशांत किशोर (PK) के बहुचर्चित जनसुराज अभियान पर अब यह आरोप लग रहा है कि यह भारतीय जनता पार्टी (BJP) का एक सुनियोजित “छोटा रिचार्ज पैक” है, जिसका एकमात्र उद्देश्य विपक्ष की एकता में सेंध लगाना है। राजनीतिक गलियारों से प्राप्त जानकारी और हालिया घटनाक्रम इस संदेह को मजबूती देते हैं कि किशोर हर चुनाव से पहले विपक्षी खेमे में सेंधमारी करने और उनके वोट काटने का एक स्पष्ट ‘ठेका’ उठाए रहते हैं। विश्लेषकों का मानना है कि अरविंद केजरीवाल (AK) की तरह ही, प्रशांत किशोर भी एक ही सुनियोजित स्क्रिप्ट पर चलते दिखाई दे रहे हैं— जिसकी मंशा है “बीजेपी के लिए विपक्ष में डेंट डालना, और फिर नैतिकता की आड़ में विपक्ष के वोटों को काटना।” यह आरोप इसलिए भी पुख्ता होता है क्योंकि बिहार में उनके “जनसुराज” अभियान की पोल उस समय खुल गई जब उनके तीन प्रत्याशियों ने चुनाव से ठीक पहले खुलेआम BJP के आगे घुटने टेक दिए; उम्मीदवारों ने न केवल अपना नाम वापस लिया, बल्कि सार्वजनिक रूप से विरोधी खेमे के प्रत्याशियों को गले लगाकर जनसुराज को ‘जनसमर्पण’ में बदल दिया। सूत्रों के मुताबिक, यह सब बीजेपी की “मल्टी-लेयर रणनीति” का हिस्सा है, जहाँ इंडिया गठबंधन या महागठबंधन जैसे विपक्षी समूहों में ऐसे “मोहरों” को भेजा जाता है जो अंदर से उन्हें कमजोर करें, और इसी “बंदरबांट के करोड़ों के खेल” में प्रशांत किशोर अपनी ‘वोट-कटुआ’ भूमिका निभाते दिख रहे हैं, जिसका अंतिम परिणाम बीजेपी को “जनसुविधा” पहुंचाना ही बताया जा रहा है।

जनसुराज की खुली पोल: प्रत्याशियों का ‘जनसमर्पण’ और टिकट का काला खेल

प्रशांत किशोर के “जनसुराज” अभियान की पोल उस समय खुल गई जब बिहार में उनके तीन प्रत्याशियों ने खुलेआम भारतीय जनता पार्टी (BJP) के आगे घुटने टेक दिए, जिसने इस पूरे अभियान की ईमानदारी पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। गोपालगंज और ब्रह्मपुर के जनसुराज उम्मीदवारों ने न केवल अपना नाम वापस लिया, बल्कि सार्वजनिक मंच पर बीजेपी प्रत्याशियों को गले लगा लिया, जो सीधे तौर पर जनसुराज के “जनसमर्पण” में बदलने का प्रतीक था। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह रही कि दानापुर के उम्मीदवार ने तो नामांकन ही दाखिल नहीं किया, ताकि सीधे तौर पर बीजेपी को वॉकओवर मिल जाए।

 इस घटना के बाद भी प्रशांत किशोर ने बयान जारी कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश की और कहा कि “बीजेपी हमारे उम्मीदवारों को तोड़ रही है, धर्मेंद्र प्रधान उन्हें खरीद रहे हैं।” लेकिन बिहार के कई राजनीतिक सूत्रों की अंदरखाने की कहानी कुछ और ही बयां करती है। सूत्रों के अनुसार, जनसुराज के कई टिकट खुद ‘बेचे गए’ थे। कई दावेदारों ने आरोप लगाया कि PK की टीम के कुछ लोग टिकट देने के नाम पर लाखों की वसूली कर रहे थे, और अब जब कुछ प्रत्याशी खुलेआम पाला बदल गए हैं, तो “खरीदे जाने” या “तोड़े जाने” का बहाना बनाया जा रहा है।

राजनीतिक सौदेबाज़ी की कहानी: वैचारिक आंदोलन या ठेका आधारित कंपनी?

राजनीति के जानकार अब प्रशांत किशोर की “जनसुराज यात्रा” को “जनसुराज्य” नहीं, बल्कि “जनसौदेबाज़ी” के रूप में देख रहे हैं। कई नेताओं ने खुलकर कहा है कि “प्रशांत किशोर ने जनसुराज को वैचारिक आंदोलन नहीं, बल्कि ठेका आधारित कंपनी बना दिया है—जहाँ प्रत्याशी और पैसा, दोनों बिकाऊ हैं।” यह स्थिति लोकतंत्र में रणनीतिकारों की भूमिका और चुनावी ईमानदारी पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाती है। यह मानना मुश्किल है कि इतनी आसानी से पाला बदलने वाले प्रत्याशी वास्तव में “वैचारिक प्रतिबद्धता” के साथ जनसुराज से जुड़े थे। 

यह पूरा घटनाक्रम इस बात की पुष्टि करता है कि बिहार में राजनीति अब विचारधारा से हटकर व्यावसायिक सौदेबाज़ी का खेल बन चुकी है। यह दर्शाता है कि लोकतंत्र में जब रणनीतिकार व्यक्तिगत लाभ और मुनाफ़े को प्राथमिकता देते हैं, तो वह किसी भी विपक्षी समूह के लिए वोट कटुआ की भूमिका निभाकर सत्ताधारी दल की अप्रत्यक्ष रूप से मदद करते हैं। इस तरह की राजनीति, जहाँ पारदर्शिता और ईमानदारी का अभाव होता है, अंततः जनता के विश्वास को कम करती है।

बीजेपी की मल्टी-लेयर स्ट्रैटेजी और लोकतंत्र का कॉर्पोरेट प्रोजेक्ट

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का स्पष्ट कहना है कि यह सारा घटनाक्रम बीजेपी की “मल्टी-लेयर स्ट्रैटेजी” का हिस्सा है, जिसे कॉर्पोरेट स्टाइल में लागू किया जा रहा है। इस रणनीति के तहत एक ओर मुख्य विपक्ष को वैचारिक रूप से और संगठनात्मक रूप से तोड़ा जाता है, वहीं दूसरी ओर वोट-कटुआ समूहों को धन और प्रचार देकर विपक्ष की एकता को कमजोर किया जाता है।

 प्रशांत किशोर और केजरीवाल जैसे “मॉडर्न ब्रांड” इसी रणनीति के हिस्से हैं—जो लोकतंत्र की सूरत में कॉर्पोरेट प्रोजेक्ट चलाते हैं। यह दर्शाता है कि लोकतंत्र में जब रणनीतिकार विचारधारा से ज़्यादा सौदेबाज़ी पर टिके हों, तब चुनावी ईमानदारी की कब्र खुद जाती है। आज बिहार में जो राजनीतिक खेल दिख रहा है— जहाँ प्रशांत किशोर बीजेपी का छोटा रिचार्ज है और जनसुराज उसका ‘प्लान बी’— वही खेल कल पूरे देश में फैलने वाला है। निष्कर्षतः, कहावत अब यूँ बदली जा सकती है: “जहाँ जनसुराज है, वहाँ जनहित की सुराज नहीं—बस बीजेपी की मुराज पूरी होती है।”

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