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विज्ञापन जिहाद: लोकतंत्र के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई का खेल

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देहरादून / नई दिल्ली 3 अक्टूबर 2025

उत्तराखंड का चौंकाने वाला खुलासा

उत्तराखंड की बीजेपी सरकार ने बीते पांच सालों में 1001 करोड़ रुपये विज्ञापनों पर खर्च कर डाले। यह रकम इतनी विशाल है कि राज्य में शिक्षा और स्वास्थ्य के वार्षिक बजट के बराबर खड़ी हो जाती है। युवाओं के पेपर लीक से जूझ रहे राज्य में, जहां बेरोजगारी की दर ऊँची है और लाखों छात्र अपनी भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं, वहां सरकार का ध्यान छात्रों की पढ़ाई या रोजगार पर नहीं बल्कि अपने चेहरे चमकाने पर रहा। जनता पूछ रही है—क्या यही “विकास” है, या फिर यह जनता के पैसों से चला “विज्ञापन जिहाद” है?

केंद्र का खेल: मोदी ब्रांडिंग या लोकसेवा?

अगर कोई यह सोचता है कि यह खेल केवल राज्य स्तर पर है, तो आंकड़े केंद्र सरकार की असली तस्वीर दिखाते हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अनुसार, मोदी सरकार ने 2014 से 2022 के बीच 6,491 करोड़ रुपये विज्ञापनों पर फूंक दिए। इतना पैसा अगर अस्पतालों और विश्वविद्यालयों पर खर्च होता, तो भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा का चेहरा बदल सकता था। लेकिन सच्चाई यह है कि यह रकम मीडिया को साधने, जनता की राय मोड़ने और मोदी ब्रांडिंग पर बहाई गई। सवाल उठता है कि यह विज्ञापन खर्च “लोक सेवा” था या “व्यक्तिगत छवि गढ़ने की योजना”?

चुनावी मौसम में विज्ञापन बमबारी

आंकड़े बताते हैं कि 2018–19 से 2022–23 तक केंद्र सरकार ने 3,064 करोड़ रुपये से अधिक विज्ञापनों पर खर्च किए। यही नहीं, चुनावों से ठीक पहले मोदी सरकार ने महंगे विज्ञापनों की बमबारी की। Reuters और Independent की रिपोर्टें कहती हैं कि सिर्फ 10 दिनों में 160 से ज्यादा फुल-पेज विज्ञापन अखबारों में छपे, जिनमें मोदी की तस्वीर और उनके नारे प्रमुख थे। यह केवल सरकारी योजनाओं का प्रचार नहीं था, बल्कि खुलेआम चुनावी जमीन तैयार करने का खेल था। अगर किसी अन्य नेता पर यही आरोप लगे तो बीजेपी इसे “विज्ञापन घोटाला” कहती, लेकिन जब केंद्र करती है, तो उसे “जनसेवा” का नाम दे दिया जाता है।

सरकारी एजेंसियों से चुनावी नारे

और सबसे चौंकाने वाली बात यह रही कि केंद्र सरकार की ही कम्युनिकेशन एजेंसी CBC ने Google पर ₹38.7 करोड़ के विज्ञापन चलाए, जिनमें सीधे-सीधे बीजेपी चुनावी नारे और मोदी केंद्रित संदेश थे। यह लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक उदाहरण है। सरकारी एजेंसी का काम तटस्थ रहकर योजनाओं की जानकारी देना है, न कि सत्ताधारी दल के लिए चुनावी माहौल बनाना। लेकिन यहां जनता का पैसा सीधे राजनीतिक प्रचार में झोंक दिया गया।

राज्य से केंद्र तक: एक ही पैटर्न

उत्तराखंड में 1001 करोड़ का खेल और दिल्ली में 6,491 करोड़ का बिखराव—दोनों में एक ही पैटर्न दिखता है। जब युवाओं को नौकरी नहीं मिल रही, जब किसान आत्महत्या कर रहे, जब अस्पतालों में सुविधाएँ नदारद हैं, तब जनता का पैसा विज्ञापनों पर क्यों बहाया जा रहा है? क्या यह “विज्ञापन जिहाद” नहीं है, जिसमें जनता के भविष्य को गिरवी रखकर सत्ता की तस्वीरें अखबारों और चैनलों पर सजाई जाती हैं?

लोकतंत्र पर हमला या लोकतंत्र का मजाक?

लोकतंत्र में मीडिया चौथा स्तंभ होता है, लेकिन जब मीडिया की कमाई सरकार के विज्ञापनों पर टिकी हो, तो उसकी स्वतंत्रता कहाँ बचती है? आज मीडिया का बड़ा हिस्सा वही दिखा रहा है जो सत्ता चाहती है, क्योंकि विज्ञापन उनके लिए ऑक्सीजन है। जब यह ऑक्सीजन जनता के टैक्स पैसे से दी जाती है, तो लोकतंत्र का गला धीरे-धीरे घुटने लगता है। यही कारण है कि आलोचक इसे “लोकतंत्र पर हमला” कह रहे हैं।

शिक्षा पर क्या असर डाल सकते थे ये अरबों?

उत्तराखंड सरकार ने जिन 1001 करोड़ रुपये को विज्ञापनों पर खर्च किया, उससे पूरे राज्य के सरकारी स्कूलों का कायाकल्प किया जा सकता था। इतने पैसे से लगभग 10,000 आधुनिक स्मार्ट क्लासरूम बनाए जा सकते थे, जिनमें बच्चों को डिजिटल बोर्ड, इंटरनेट और प्रोजेक्टर की सुविधा मिलती। यही नहीं, हर ब्लॉक में नए डिग्री कॉलेज खड़े किए जा सकते थे, जिससे पहाड़ों के युवाओं को उच्च शिक्षा के लिए मैदानों या महानगरों की ओर पलायन नहीं करना पड़ता। दूसरी ओर, केंद्र सरकार ने आठ वर्षों में जो 6491 करोड़ रुपये विज्ञापनों पर बहाए, उनसे कम से कम 65 नए केंद्रीय विश्वविद्यालय या 650 डिग्री कॉलेज बनाए जा सकते थे। यह वही रकम है जो भारत की शिक्षा प्रणाली को एक नई ऊँचाई तक ले जाती, लेकिन इसे टीवी और अखबार के पन्नों पर जलाने में झोंक दिया गया।

स्वास्थ्य सुविधाओं का क्या बदल सकता था चेहरा

उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में 1001 करोड़ रुपये से 100 सुपर-स्पेशलिटी अस्पताल या फिर कम से कम 1000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बन सकते थे। इसका मतलब यह होता कि पहाड़ के सबसे दूरदराज़ गाँव का मरीज भी आधुनिक चिकित्सा पा सकता। लेकिन विज्ञापनबाज़ी में पैसा बहाकर यह मौका गंवा दिया गया। केंद्र सरकार की 6491 करोड़ रुपये की विज्ञापन राशि से पूरे देश में कम से कम 10 नए AIIMS जैसे अस्पताल बनाए जा सकते थे। कल्पना कीजिए, देश के हर बड़े राज्य में एक नया AIIMS खड़ा हो जाता तो गरीब मरीजों को इलाज के लिए महीनों लाइन में नहीं लगना पड़ता। यह पैसा जनता की जान बचाने के बजाय नेताओं की छवि बचाने पर चला गया।

रोजगार और युवाओं के सपने

1001 करोड़ रुपये से उत्तराखंड में दो लाख से ज्यादा युवाओं को सालभर की स्कॉलरशिप या स्टार्टअप ग्रांट दी जा सकती थी। यह राशि छोटे-छोटे उद्यमों और स्वरोजगार की योजनाओं को पंख दे सकती थी। वही पैसा अगर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए पुस्तकालय, छात्रावास और कोचिंग सेंटरों पर लगाया जाता तो हजारों युवाओं का भविष्य बनता। केंद्र सरकार का 6491 करोड़ रुपये का विज्ञापन खर्च इतना है कि इससे पूरे भारत के 65 लाख से ज्यादा युवाओं को कौशल प्रशिक्षण (Skill Development) दिया जा सकता था। यह प्रशिक्षण उन्हें नौकरी दिलाने के लिए सुनहरे मौके पैदा करता। लेकिन आज हकीकत यह है कि करोड़ों युवा बेरोजगारी से परेशान हैं और सरकार का पैसा केवल पोस्टर और टीवी स्पॉट्स में खर्च हो रहा है।

किसान और गांवों का अधूरा सपना

उत्तराखंड जैसे कृषि प्रधान राज्य में 1001 करोड़ रुपये से हर गाँव में आधुनिक सिंचाई योजनाएँ और कोल्ड स्टोरेज यूनिट्स तैयार किए जा सकते थे। इससे किसानों की उपज बरबाद नहीं होती और उन्हें बेहतर दाम मिलता। केंद्र के 6491 करोड़ रुपये से देशभर में 6500 से ज्यादा आधुनिक कृषि मंडियां और वेयरहाउस बनाए जा सकते थे, जहाँ किसान सीधे अपनी फसल बेच सकते। इतना ही नहीं, यही पैसा किसानों के लिए सस्ती खाद, बीज और तकनीकी उपकरण उपलब्ध कराने में लगाया जाता तो खेती का चेहरा बदल जाता। लेकिन विज्ञापन जिहाद में यह सब सपना ही रह गया।

डिजिटल इंडिया का असली चेहरा

मोदी सरकार बार-बार “डिजिटल इंडिया” की बात करती है। लेकिन वही पैसा अगर असली डिजिटल सुविधाओं पर खर्च होता तो हालात अलग होते। 6491 करोड़ रुपये से देशभर के 6.5 करोड़ बच्चों को मुफ्त टैबलेट या लैपटॉप दिया जा सकता था। इसका मतलब यह होता कि हर गरीब छात्र के हाथ में ऑनलाइन पढ़ाई का साधन होता और कोरोना जैसी परिस्थितियों में उनकी पढ़ाई नहीं रुकती। यह वही रकम थी जो भारत को सचमुच डिजिटल बना सकती थी। लेकिन यह पैसा अखबारों में रंगीन पन्ने छापने और टीवी पर महंगे विज्ञापन दिखाने में बहा दिया गया।

जनता का हिसाब लेगा कौन ?

जनता को अब सिर्फ सवाल पूछने पर ही नहीं रुकना चाहिए, बल्कि खुलकर हिसाब मांगना चाहिए। जब 6,491 करोड़ और 1001 करोड़ जैस भारी-भरकम रकम जनता की गाढ़ी कमाई से विज्ञापनों पर बहा दी गई, तो यह जानना हर नागरिक का हक है कि इन पैसों से कितने स्कूल, अस्पताल, रोजगार योजनाएँ और किसान कल्याण प्रोजेक्ट खड़े किए जा सकते थे। लोकतंत्र में विज्ञापन का काम जानकारी देना है, न कि चुनावी माहौल बनाना या सत्ता की छवि चमकाना। अगर जनता अब भी चुप रही, तो यह “विज्ञापन जिहाद” सिर्फ लोकतंत्र की आत्मा को ही नहीं बल्कि आम आदमी के हक और भविष्य को भी कुचल देगा। इसलिए अब वक्त आ गया है कि जनता सत्ता से दो-टूक कहे—हमें हमारे पैसों का पूरा-पूरा हिसाब चाहिए।

 

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