नई दिल्ली 21 अक्टूबर 2025
जब एक पूर्व IAS अधिकारी ने तोड़ी चुप्पी
भारत के कॉर्पोरेट जगत और सत्ता की साजिशों पर एक और तीखा प्रहार हुआ है — और इस बार प्रहारक कोई साधारण नेता नहीं, बल्कि देश के वरिष्ठतम पूर्व IAS अधिकारी और तृणमूल कांग्रेस (TMC) के राज्यसभा सांसद जवाहर सरकार हैं। उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट X (पूर्व ट्विटर) पर एक ऐसी टिप्पणी की जिसने न सिर्फ़ अडानी समूह, बल्कि मोदी सरकार की नैतिकता पर भी बड़ा प्रश्नचिह्न लगा दिया।
जवाहर सरकार ने लिखा —“Look at the goon next to me — he’s the CFO of Adani! Would any educated top executive of any respected company use such language? A company is known by the people it keeps!”
यह बयान जितना सीधा था, उतना ही गहरा और खतरनाक भी — क्योंकि यह किसी एक अधिकारी पर नहीं, बल्कि पूरे अडानी साम्राज्य की कार्यशैली और उसके राजनीतिक संरक्षण पर चोट थी।
अडानी और अंबानी की दौलत मोदी राज में 1500% तक बढ़ी
जवाहर सरकार ने सिर्फ़ टिप्पणी नहीं की, बल्कि एक गंभीर आर्थिक तुलना भी पेश की। उन्होंने कहा कि “मोदी सरकार के कार्यकाल में मुकेश अंबानी की संपत्ति 542% और गौतम अडानी की 1,535% तक बढ़ी है।”
सरकार का आरोप था कि यह वृद्धि किसी “उद्योग की ईमानदार मेहनत” का परिणाम नहीं, बल्कि “राजनीतिक कृपा और सरकारी ठेकों की सौगात” का नतीजा है।
उन्होंने कहा कि जब देश में छोटे उद्योग बंद हो रहे हैं, किसानों की आय ठहरी हुई है और युवाओं को रोजगार नहीं मिल रहा, तब कुछ गिने-चुने उद्योगपति सत्ता के संरक्षण में रातोंरात साम्राज्य खड़ा कर रहे हैं।
सरकार ने इसे “राजनीतिक पूंजीवाद (Political Capitalism)” का सबसे भयावह रूप बताया — जहां विकास का लाभ जनता को नहीं, बल्कि सत्ता के करीब बैठे अरबपतियों को मिलता है।
कॉर्पोरेट नैतिकता या सत्ता का अहंकार?
जवाहर सरकार ने जिस CFO को “goon” कहा, वह हाल ही में एक टीवी डिबेट में विपक्षी नेताओं और आलोचकों के खिलाफ़ असभ्य और उग्र भाषा का इस्तेमाल करते दिखाई दिए थे।
जवाहर सरकार ने इस पर तीखा पलटवार करते हुए कहा, “क्या किसी शिक्षित और सम्मानित कंपनी का अधिकारी इस तरह की भाषा बोल सकता है? कंपनी की पहचान उसके लोगों से होती है, और अडानी समूह के लोगों का व्यवहार बताता है कि उनके अंदर सत्ता की छाया ने अहंकार भर दिया है।”
यह टिप्पणी सीधे तौर पर अडानी समूह की कॉर्पोरेट संस्कृति पर प्रहार है — जो पिछले कुछ वर्षों से सत्ता के संरक्षण में लगातार विवादों से घिरी रही है।
सरकार ने कहा कि किसी कंपनी की पहचान उसकी बैलेंस शीट से नहीं, बल्कि उसके कर्मचारियों के आचरण, नैतिकता और सार्वजनिक व्यवहार से होती है — और अगर कंपनी के शीर्ष अधिकारी खुद असभ्य भाषा बोलें, तो यह कंपनी नहीं, पूरे तंत्र की सड़ांध का प्रतीक बन जाती है।
सत्ता और उद्योग का ‘गठबंधन मॉडल’ उजागर
यह बयान ऐसे समय में आया है जब अडानी समूह पहले से ही अंतरराष्ट्रीय जांचों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा हुआ है। अमेरिका में दायर एक अभियोग में आरोप लगाया गया है कि अडानी समूह ने भारत में सरकारी अधिकारियों को लगभग ₹2,029 करोड़ की रिश्वत देने का प्रस्ताव रखा, ताकि Solar Energy Corporation of India (SECI) से ऊर्जा सौदे मंज़ूर हो सकें।
इसी बीच, हिन्डनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट ने भी यह दावा किया कि अडानी समूह ने शेयर मूल्यों में हेराफेरी, फर्जी फ्रंट कंपनियों और टैक्स हैवन नेटवर्क का इस्तेमाल कर अपने शेयरों को कृत्रिम रूप से बढ़ाया।
जवाहर सरकार का बयान इसी पृष्ठभूमि में आया है — यानी जब अडानी समूह पहले से वैश्विक स्तर पर “राजनीतिक रूप से संरक्षित उद्योगपति” के रूप में देखा जा रहा है।
सरकार ने कहा कि यह रिश्ता केवल व्यावसायिक नहीं, बल्कि “सत्ता और संपत्ति के वैवाहिक गठबंधन” जैसा है — जहां दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।
अडानी की चुप्पी और जनता के सवाल
अब तक अडानी समूह ने जवाहर सरकार की इस टिप्पणी पर कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है। लेकिन यह मौन ही सबसे बड़ा संकेत है कि सत्ता से जुड़े उद्योगपति अब जवाबदेही से ऊपर महसूस करने लगे हैं। सोशल मीडिया पर लोग पूछ रहे हैं — अगर जवाहर सरकार के आरोप झूठे हैं, तो अडानी समूह खुलकर खंडन क्यों नहीं करता?
विपक्षी दलों ने भी इस चुप्पी को “कबूलनामा” बताया है। कांग्रेस और आप (AAP) के नेताओं ने कहा कि यह वही घमंड है जो “सत्ता की गोद में पल रहे पूंजीवाद” की निशानी है। जनता के बीच यह सवाल तेजी से फैल रहा है — क्या आज भारत में कॉर्पोरेट ताकतें इतनी शक्तिशाली हो चुकी हैं कि वे सरकार से भी बड़ी बन गई हैं?
लोकतंत्र बनाम कॉर्पोरेट साम्राज्य
जवाहर सरकार के शब्दों में यह सिर्फ़ एक बयान नहीं था, बल्कि एक नैतिक उद्घोषणा थी। उन्होंने कहा कि भारत आज ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है जहां सत्ता और उद्योग के बीच की रेखा मिट चुकी है। जब राजनीतिक संरक्षण में उद्योगपति फलते-फूलते हैं, तो लोकतंत्र कमजोर पड़ता है — क्योंकि तब निर्णय जनता के हित में नहीं, बल्कि धन के हित में लिए जाते हैं।
सरकार ने कहा, “जब मीडिया अरबपतियों के कब्जे में आ जाए, जब एजेंसियां सत्ता की कठपुतली बन जाएं, और जब उद्योगपति नेताओं से ज़्यादा ताकतवर हो जाएं — तब समझिए लोकतंत्र अब नाम भर रह गया है।”
उन्होंने इसे ‘कॉर्पोरेट सामंतवाद (Corporate Feudalism)’ कहा, जहां जनता प्रजा बन जाती है, और सत्ता पूंजी की रक्षक।
जब कंपनी नहीं, चरित्र बिकने लगे
जवाहर सरकार का यह बयान केवल अडानी समूह पर हमला नहीं, बल्कि एक पूरी व्यवस्था के पतन की घोषणा है। यह उस संस्कृति की आलोचना है जिसमें कॉर्पोरेट सत्ता ने नैतिकता को निगल लिया है, और लोकतंत्र सिर्फ़ पोस्टर पर बचा है।
उनका संदेश साफ़ था, “एक कंपनी अपनी पूंजी से नहीं, अपने चरित्र से जानी जाती है। और जब उसका चरित्र सत्ता के संरक्षण से पनपता है, तो वह राष्ट्र की आत्मा को गिरवी रख देती है।”
भारत के इतिहास में शायद पहली बार किसी पूर्व नौकरशाह ने इतनी बेबाकी से सत्ता-संरक्षित उद्योग साम्राज्य को चुनौती दी है। यह बयान आने वाले दिनों में न केवल राजनीतिक हलचल बढ़ाएगा, यह कॉर्पोरेट जवाबदेही, मीडिया स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक पारदर्शिता पर भी नए विमर्श को जन्म देगा। सवाल अडानी का नहीं, भारत की आत्मा का है —क्योंकि जब सत्ता और उद्योग एक हो जाएं, तो जनता सिर्फ़ दर्शक रह जाती है।”