“अब्बा, मैं IAS बन गया!” – यह एक लाइन सिर्फ भावनाओं का इज़हार नहीं, बल्कि भारत के मुस्लिम समाज के सपनों की ऊँचाई और मेहनत की गहराई का प्रतीक है। इस बार UPSC यानी संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में करीब 30 मुस्लिम युवाओं ने बाज़ी मारी, और उनमें कई ऐसी कहानियाँ छिपी हैं जो सिर्फ सफलता नहीं, बल्कि बदलाव का प्रतीक हैं। ये आंकड़ा छोटा लग सकता है, लेकिन यह एक बहुत बड़ा संकेत है – मुस्लिम समाज अब नेतृत्व, प्रशासन और राष्ट्रनिर्माण के बड़े मंच पर अपने आत्मविश्वास के साथ कदम रख चुका है।
शहरों से लेकर गांवों तक गूँजी सफलता की कहानियाँ
इस साल जिन मुस्लिम युवाओं ने UPSC की परीक्षा पास की, उनमें से कई का संबंध छोटे कस्बों, पिछड़े गांवों और आम मुस्लिम परिवारों से है। उत्तर प्रदेश, बिहार, कश्मीर, केरल और असम जैसे राज्यों से आए इन होनहार युवाओं ने कड़ी मेहनत, सीमित संसाधनों और कभी-कभी सामाजिक चुनौतियों को मात देकर यह सफलता हासिल की। लखनऊ के अर्शद अहमद, जिनके पिता ऑटो चलाते हैं, ने 26वीं रैंक हासिल की। वहीं, केरल की फरज़ाना शमीम, जो एक अकेली माँ की बेटी हैं, ने 73वीं रैंक के साथ इतिहास रच दिया। इन कहानियों ने यह साबित किया कि हौसलों के आगे मज़हब, गरीबी और सीमाएं कोई मायने नहीं रखतीं।
कोचिंग नहीं, जज़्बा था साथ – ‘खुद पढ़ा, खुद बढ़ा’ का युग
इन युवाओं में से अधिकतर ने बिना किसी बड़े कोचिंग संस्थान की मदद के, खुद के दम पर तैयारी की। सोशल मीडिया, यूट्यूब और सरकारी ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म इनका सहारा बने। शकील मंसूरी ने बताया कि उन्होंने घर पर बैठकर स्मार्टफोन से तैयारी की और लाइब्रेरी में घंटों बिताए। “मैंने ठान लिया था कि सिर्फ शिकायत करने से कुछ नहीं होगा, खुद बदलाव बनना होगा,” वे मुस्कराते हुए कहते हैं। यह एक नया ट्रेंड है – मुस्लिम युवा अब खुद को केवल सीमित अवसरों तक नहीं, बल्कि पूरे भारत के भविष्य तक फैला हुआ देखना चाहते हैं।
मुस्लिम लड़कियों की धमाकेदार उपस्थिति – पर्दे से परफॉर्मेंस तक
इस बार जो बात सबसे ज़्यादा ध्यान खींचती है, वह है मुस्लिम लड़कियों की प्रभावशाली भागीदारी। वे सिर्फ पढ़ाई में नहीं, आत्मबल और नेतृत्व में भी आगे निकल रही हैं। कश्मीर की रूबिना गुलाम, जिनके गाँव में अभी भी लड़कियों की शिक्षा पर सवाल उठते हैं, ने 140वीं रैंक हासिल की। “हमेशा सुना कि लड़कियाँ कुछ नहीं कर सकतीं। मैंने सोच लिया कि अब करने का वक्त है,” उन्होंने मीडिया को बताया। मुस्लिम समाज की यह लड़कियाँ आज की ‘शेरनियाँ’ हैं, जो अपने घरों, मोहल्लों और शहरों में रोल मॉडल बन रही हैं।
मौलाना और मदरसा शिक्षक भी दे रहे हैं अब नया संदेश
इस बदलते दौर में मुस्लिम समाज के धार्मिक शिक्षकों का भी रवैया बदला है। कई जगहों पर मदरसों में UPSC व अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए अलग कोने बनाए जा रहे हैं। शिक्षा को अब सिर्फ दीनी तक सीमित नहीं रखा जा रहा, बल्कि दुनियावी ज्ञान को भी अहमियत दी जा रही है। दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम साहब ने हाल में एक बयान में कहा – “हुकूमत में बैठने वाले अगर हमारे घरों से आएँगे, तो समाज का हक़ भी बखूबी मिलेगा।” यह सोच समाज के भीतर नई हवा का संकेत देती है।
समाज के अंदर से उभरती लहर – बदलेगी तसवीर और तक़दीर
यही वो वक्त है जब मुस्लिम समाज को अब सिर्फ वोट बैंक नहीं, विज़न बैंक बनने की ज़रूरत है। UPSC में सफलता पाने वाले ये युवा अब सिर्फ IAS, IPS या IFS अधिकारी नहीं हैं, ये हमारे समाज की नई आवाज़ें हैं – वो आवाज़ जो विकास, न्याय, नेतृत्व और बराबरी की बात करती है। जो यह कहती है कि “हम भारत के निर्माण में सिर्फ दर्शक नहीं, सहभागी बनना चाहते हैं।”
अब ज़रूरत है – इस रफ्तार को रुकने न देना
यह सफलता एक शुरुआत है, मंज़िल नहीं। ज़रूरत है कि मुस्लिम समाज में और ज़्यादा लाइब्रेरी बने, मुफ़्त गाइडेंस सेंटर शुरू हों, गाँव-कस्बों तक मोटिवेशनल वर्कशॉप पहुंचें और वक्फ संपत्तियों को शिक्षा केंद्रों में बदला जाए। मुस्लिम माता-पिता को यह समझना होगा कि बेटा डॉक्टर या इंजीनियर ही नहीं, कलेक्टर या अफसर भी बन सकता है।
नतीजा
UPSC 2024-25 का परिणाम सिर्फ एक परीक्षा का परिणाम नहीं, यह उस परिवर्तन की आहट है जो भारत के मुस्लिम समाज को अंधेरे से उजाले की ओर ले जा रही है। यह सिर्फ एक लाइन नहीं कि “अब्बा, मैं IAS बन गया” – यह एक उम्मीद है, एक आंदोलन है, और एक भविष्य का वादा है। लेकिन अभी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है। एक साल पहले 50 मुस्लिम बच्चों का UPSC में चयन हुआ था जो घट कर इस बार 30 रह गया।