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रिश्वत का राष्ट्र — जहां मौत भी सुकून से नहीं मरती

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मुंबई ब्यूरो | 31 अक्टूबर 2025

यह केवल एक ख़बर नहीं, सभ्य समाज के माथे पर लगा एक अक्षय कलंक है। मुंबई जैसे महानगरीय केंद्र में, जहाँ ‘डिजिटल इंडिया’ और ‘भ्रष्टाचार मुक्त शासन’ के दावों की गूँज सुनाई देती है, वहाँ एक रिटायर्ड BPCL अधिकारी शिवकुमार को अपनी मृत बेटी का अंतिम संस्कार करवाने के लिए हर कदम पर रिश्वत की भीख देनी पड़ी। उनकी यह करुण व्यथा, जिसे उन्होंने सोशल मीडिया पर “मेरी बेटी मर चुकी थी… पर मैंने जिंदा सिस्टम की लाश देखी” कहकर व्यक्त किया, केवल एक व्यक्ति का निजी दुःख नहीं, बल्कि उस राष्ट्रीय त्रासदी का दर्पण है जहाँ मौत भी सुकून से नहीं मरती। यह घटना हमें आत्म-मंथन के लिए मजबूर करती है कि जब एक उच्च-पदाधिकारी, जिसने पूरी ज़िंदगी ईमानदारी से सेवा की, इस पीड़ा से गुज़रता है, तो उस आम नागरिक की क्या दुर्दशा होती होगी जिसके पास न पहुँच है, न पद का रौब। यह दिखाता है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार अब सिर्फ विकास परियोजनाओं तक सीमित नहीं रहा; यह जीवन के सबसे दुखद और पवित्र क्षणों—यानी मृत्यु और अंतिम संस्कार—को भी अपनी काली कमाई का साधन बना चुका है।

इस पूरे घटनाक्रम का सबसे हृदय विदारक और राजनीतिक रूप से विस्फोटक पहलू यह है कि यह ‘सेवा शुल्क’ या ‘पूजा-पानी का खर्चा’ एक अनौपचारिक, लेकिन सुव्यवस्थित ‘डेथ-टैक्स’ प्रणाली का हिस्सा बन चुका है। एंबुलेंस ड्राइवर से लेकर पुलिसकर्मी, नगर निगम के कर्मचारी, और श्मशान घाट के संचालकों तक—एक पूरी अदृश्य शृंखला है जो जानती है कि दुःख और शोक में डूबा परिवार ‘मोलभाव’ (Bargain) करने की स्थिति में नहीं होता। 

वे जानते हैं कि इस असहनीय वेदना के समय कोई भी पिता या परिजन ₹200, ₹500 या ₹1000 के लिए बहस करके अपने प्रियजन के अंतिम सम्मान को विलंबित नहीं करेगा। यह भ्रष्टाचार अब भय या लालच से नहीं, बल्कि मानवीय मजबूरी पर पनप रहा है, जो इसे सबसे घृणित और नैतिक रूप से पतनशील बनाता है। ‘ईमानदारी’ एक ऐसा सिक्का बन गई है जो दुःख के बाज़ार में चलता ही नहीं। यह हमें सोचने पर विवश करता है कि ‘स्वच्छ भारत’ का नारा क्या केवल भौतिक स्वच्छता के लिए है, जबकि देश की आत्मा और व्यवस्था अंदर से सड़ी हुई है, जहाँ लोग लाशों पर हँसकर अपनी जेबें भर रहे हैं।

शिवकुमार का यह अनुभव एक नैतिक आह्वान है, जिसे सरकार और समाज दोनों को गंभीरता से लेना होगा। यह दिखाता है कि तथाकथित “भ्रष्टाचार मुक्त शासन” का दावा जमीनी हकीकत से कितना दूर है। यह ‘सिस्टम की सड़ांध’ इसलिए जारी है क्योंकि इसे संरक्षण प्राप्त है—या तो ऊंचे अधिकारियों की अनदेखी का, या फिर जनता की लाचारी और सामान्यीकरण (Normalization) का। हम भारतीयों ने दुःख की घड़ी में रिश्वत देने को अब ‘सामान्य’ मान लिया है; यह ‘दक्षिणा’ या ‘खर्चा’ हमारी संस्कृति का नहीं, बल्कि हमारी राजनीतिक और प्रशासनिक विफलता का प्रमाण बन चुका है। 

जब एक रिटायर्ड CFO, जिसने लाखों लोगों को वित्तीय अनुशासन सिखाया होगा, रिश्वत देकर अपनी बेटी को अंतिम विदाई देता है, तो यह दर्शाता है कि नैतिकता का पतन कितना गहरा है। यह कोई साधारण सरकारी अक्षमता नहीं है, बल्कि यह वह “स्थायी महामारी” है जो हमारे राष्ट्र की आत्मा को खोखला कर रही है, और इसका इलाज केवल बड़े-बड़े ‘सुधार’ (Reforms) नहीं, बल्कि सबसे निचले स्तर पर जवाबदेही (Accountability) और सज़ा का भय पैदा करके ही किया जा सकता है।

अंत में, यह संपादकीय लेख शिवकुमार की उस पुकार को दोहराता है जो अब राष्ट्रीय विलाप बन चुकी है। हमें इस मृतप्राय व्यवस्था को जगाना होगा। यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम इस ‘मौत पर टैक्स’ लगाने वाले सिस्टम को अस्वीकार करें। सरकार को तुरंत ‘मृत्यु और अंतिम संस्कार सेवा प्रक्रियाओं’ को पूरी तरह से डिजिटल, पारदर्शी और शून्य-नकद (Cashless) बनाने के लिए एक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाना चाहिए, जिसमें हर चरण की निगरानी हो और शिकायत निवारण की त्वरित व्यवस्था हो। हम, नागरिक, तब तक चुप नहीं बैठ सकते जब तक कि यह सुनिश्चित न हो जाए कि अगली बार जब कोई पिता अपनी बेटी को जलाए, तो उसे हर कदम पर नोटों के बजाय केवल आंसुओं से विदा करने दिया जाए। शिवकुमार की बेटी का अंतिम संस्कार तो हो गया, लेकिन उनकी पोस्ट ने जिस ‘जिंदा सिस्टम’ की मौत की घोषणा की है, उसकी जवाबदेही तय होना बाकी है। यह देश तब तक शांति से नहीं सो सकता जब तक कि ‘रिश्वत की राख’ हटाकर न्याय और करुणा के फूल न खिलें।

 

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