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तानाशाही के अंधेरे में लोकतंत्र की लौ: मारिया कोरिना माचाडो की कहानी जिन्होंने नोबेल शांति पुरस्कार जीता

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11 अक्टूबर 2025

वेनेज़ुएला — दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप का वह देश, जो कभी तेल के सोने से लबालब था, अब राजनीतिक दमन, आर्थिक पतन और मानवाधिकारों के हनन का प्रतीक बन चुका है। इस अंधेरे दौर में, जब लोकतंत्र का दम घुट रहा था, जब हर आवाज़ पर सेंसर की तलवार चल रही थी, और जब सत्ता के खिलाफ बोलना गुनाह बन गया था, तब एक महिला ने हिम्मत दिखाई — उसका नाम है मारिया कोरिना माचाडो। वह केवल विपक्ष की नेता नहीं हैं, बल्कि एक प्रतीक हैं — उस साहस की जो अत्याचार के सामने भी झुकता नहीं। यही वजह है कि 2025 का नोबेल शांति पुरस्कार उनके नाम हुआ, और ओस्लो से उठी वह खबर पूरी दुनिया के लिए उम्मीद की किरण बन गई।

मारिया कोरिना माचाडो का जन्म 7 अक्टूबर 1967 को वेनेज़ुएला की राजधानी काराकास में हुआ। उनका परिवार संपन्न था, लेकिन उन्होंने अपनी ज़िंदगी आराम से नहीं बिताई। उन्होंने औद्योगिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और फिर समाजसेवा व राजनीति की ओर रुख किया। वे लोकतांत्रिक सुधारों और पारदर्शी शासन के लिए काम करने वाले संगठन Súmate की संस्थापक बनीं। उनका मिशन था—जनता को मतदान की शक्ति के महत्व से जागरूक करना और तानाशाही की जड़ों को उखाड़ फेंकना। जब ह्यगो चावेज़ का शासन अपने चरम पर था, तब भी मारिया ने खुलकर भ्रष्टाचार, सत्ता के दुरुपयोग और दमन के खिलाफ आवाज़ उठाई।

2004 से 2014 के बीच वेनेज़ुएला की राजनीति उथल-पुथल से भरी रही। माचाडो ने 2010 में संसदीय चुनाव लड़ा और भारी मतों से जीतीं। संसद में उन्होंने सरकार के मनमाने फैसलों और मीडिया सेंसरशिप के खिलाफ आवाज़ बुलंद की। लेकिन यही आवाज़ सत्ता को नागवार गुज़री। 2014 में, निकोलस मादुरो की सरकार ने उन्हें संसद सदस्यता से बेदखल कर दिया। न केवल पद छीना गया बल्कि उन पर देशद्रोह और विदेशी ताकतों से मिलीभगत जैसे बेबुनियाद आरोप लगाए गए। माचाडो को गिरफ्तार करने की कोशिशें हुईं, उन्हें धमकियाँ दी गईं, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उन्होंने कहा था, “मैं किसी पार्टी की नेता नहीं, बल्कि उस जनता की आवाज़ हूँ जिसे चुप करा दिया गया है।”

सत्ता ने उन्हें तोड़ने की कोशिश की, लेकिन माचाडो ने विपक्ष को एकजुट किया। उन्होंने “वेंते वेनेज़ुएला” (Vente Venezuela) नाम से एक पार्टी बनाई और लोकतंत्र के पुनरुद्धार के लिए आंदोलन शुरू किया। 2023 में जब विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्राथमिक चुनाव आयोजित किए, तो माचाडो ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की। लेकिन इससे घबराकर सरकारी नियंत्रक ने उन्हें 15 साल तक किसी भी सार्वजनिक पद पर प्रतिबंधित कर दिया। यह कदम उनके राजनीतिक सफर पर ताला लगाने की कोशिश थी, लेकिन इसने उनकी आवाज़ को और बुलंद कर दिया। माचाडो ने कहा था — “आप मुझे पद से रोक सकते हैं, लेकिन जनता के दिल से नहीं।”

2024 के चुनावों में उन्होंने विपक्षी गठबंधन को मजबूती दी और एडमुंडो गोंज़ालेज़ को अपना प्रतिनिधि उम्मीदवार बनाया। जब सरकार ने चुनावों में धांधली की, माचाडो ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की कि वे वेनेज़ुएला की जनता के साथ खड़े हों। उस समय वे भूमिगत थीं, गिरफ्तारी के डर से छिपी हुईं, लेकिन उनकी आवाज़ सोशल मीडिया और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गूंजती रही। उनकी तस्वीरें पोस्टरों, दीवारों और सोशल मीडिया अभियानों का प्रतीक बन गईं — “मारिया मतलब लोकतंत्र”, यह नारा पूरे वेनेज़ुएला में गूंजने लगा।

उनकी इस निरंतर लड़ाई ने आखिरकार अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान खींचा। 2024 में उन्हें सखारोव पुरस्कार और वैक्लाव हवेल मानवाधिकार पुरस्कार से नवाजा गया। और फिर आया 2025 — जब नॉर्वे की नोबेल समिति ने घोषणा की कि इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार “वेनेज़ुएला की साहसी नेता मारिया कोरिना माचाडो” को दिया जाएगा, जिन्होंने शांतिपूर्ण तरीक़े से तानाशाही के खिलाफ संघर्ष किया और लोकतंत्र की लौ को बुझने नहीं दिया। समिति ने अपने बयान में कहा — “माचाडो ने साबित किया कि शांति का मतलब चुप रहना नहीं होता, बल्कि अत्याचार के खिलाफ बोलना होता है।”

नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद दुनिया भर से प्रतिक्रियाएँ आने लगीं। अमेरिका, यूरोपीय संघ और कई लैटिन अमेरिकी देशों ने इसे “लोकतंत्र की जीत” कहा। वहीं वेनेज़ुएला की सरकार ने इस फैसले की आलोचना करते हुए कहा कि “यह एक राजनीतिक साजिश है।” लेकिन सच्चाई यह है कि यह पुरस्कार माचाडो के लिए नहीं, बल्कि उन लाखों लोगों के लिए है जो दमन और गरीबी के बावजूद लोकतंत्र की आस लगाए हुए हैं। यह उस देश के लिए है जो अपनी खोई हुई पहचान को पुनः पाने की कोशिश कर रहा है।

आज जब माचाडो ओस्लो में सम्मान ग्रहण करने के बाद वापस लौट रही हैं, तो वेनेज़ुएला की जनता फिर से सड़कों पर उतर रही है। लोग मोमबत्तियाँ जलाकर कह रहे हैं — “वो लौ जिसने अंधेरे को चीर दिया।” यह वही लौ है जो मारिया कोरिना माचाडो की आंखों में जलती रही — डर के बावजूद, बर्बादी के बावजूद, हार के बावजूद। उन्होंने अपने देश को यह विश्वास दिलाया कि लोकतंत्र मरता नहीं, बस कुछ समय के लिए मौन हो जाता है।

मारिया कोरिना माचाडो की कहानी सिर्फ वेनेज़ुएला की नहीं है, बल्कि उन तमाम देशों के लोगों की भी है जो किसी न किसी रूप में दमन झेल रहे हैं। उन्होंने साबित किया कि लोकतंत्र की रक्षा बंदूक से नहीं, विचारों से होती है। और यही कारण है कि आज पूरी दुनिया कह रही है — तानाशाही के अंधेरे में अगर कोई लौ जल रही है, तो उसका नाम है — मारिया।

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