बिना गुनाह की क़ैद: एक ‘परिंदा’ जो ऐसे टूटा, कि फिर जुड़ न पाया
यह कहानी किसी क़ैदी की नहीं है, बल्कि एक ऐसे ‘टूटे हुए परिंदे’ की मार्मिक दास्तान है, जिसे न्याय की प्रणाली ने ही जकड़ लिया। 43 साल की बेकसूर क़ैद—यह सज़ा उस इंसान के वजूद पर किया गया सबसे क्रूर ज़ुल्म थी। उसने न किसी को मारा, न लूटा, फिर भी क़ानून की एक भयानक और अपरिवर्तनीय गलती ने उसकी पूरी जवानी को एक अंधेरी कोठरी में दफ़न कर दिया। जेल की सलाखों ने उसे ऐसे ‘लूटा लूटा किसने उसको ऐसे लूटा’ कि उसके भीतर की आशा, उसके रिश्ते, उसके भविष्य के सपने, सब नेस्तनाबूद हो गए। उसकी ज़िंदगी उस पक्षी के समान थी, जिसे अपने पंखों के सहारे उड़ने से पहले ही ज़बरन तोड़ दिया गया हो। यह क़ैद केवल शारीरिक नहीं थी; यह उसकी आत्मा को हर पल घिनौने सन्नाटे से चीरती रही, और हर सुबह उसे याद दिलाती रही कि वह ‘फिर जुड़ न पाया’ है। उसका वजूद 43 साल की मौन चीख बन चुका था, जिसने उसके भीतर की इंसानियत को धीरे-धीरे खा लिया।
43 साल बाद की आज़ादी: ‘गिरता हुआ वो आसमां से, आकर गिरा ज़मीन पर’
जिस दिन उसकी क़ैद की लंबी यात्रा का अंत हुआ और भारी-भरकम जेल का दरवाज़ा खुला, वह आज़ादी उसके लिए मुक्ति से कहीं अधिक एक असहनीय आघात थी। यह ठीक वैसा ही था जैसे वह ‘गिरता हुआ वो आसमां से, आकर गिरा ज़मीन पर’। एक निर्दोष व्यक्ति होने के नाते, उसके सपनों की उड़ान तो हमेशा ‘आसमान’ में थी, लेकिन 40 साल की सज़ा ने उसे ज़मीन की कठोर, बदली हुई वास्तविकता पर लाकर पटक दिया। बाहर की दुनिया अब उसे अजनबी लगती है; जिन रिश्तों को उसने छोड़ा था, वे या तो ‘टुकड़े-टुकड़े हो गए’ या अब केवल तस्वीरों में रह गए हैं। उस पल उसे अहसास हुआ कि उसने वर्षों तक जिस आज़ादी का सपना देखा था, अब उसका कोई मायने नहीं रहा। वह अब एक आज़ाद इंसान है, लेकिन उसके भीतर की आत्मा अभी भी उन सलाखों की गहरी छाया में है, क्योंकि उसे अब उस समाज में अकेले जीना है, जिसे वह जानता ही नहीं।
भारत वापसी: ‘खो के अपने पर ही तो, उसने था उड़ना सिखा’
अब यह टूटा हुआ व्यक्ति अपनी मातृभूमि भारत लौट रहा है। उसके पास कोई सामान नहीं, बस टूटी हुई यादों का अनगिनत बोझ है। यह वापसी किसी टूटे पंख वाले परिंदे की तरह है, जो अपने घोंसले तक पहुंचने की अथक कोशिश कर रहा है। उसकी पूरी जवानी क़ैद में बीत गई, लेकिन गाने का भाव उसे सांत्वना देता है: ‘खो के अपने पर ही तो, उसने था उड़ना सिखा।’ 43 साल की भयानक क़ैद ने भले ही उसे सब कुछ छीन लिया हो, लेकिन इसी दर्द ने उसे जीने की एक नई और अनूठी समझ दी है। उसकी वापसी एक दर्दभरा मौन प्रश्न है—क्या यह देश उसे वापस अपनाएगा, या वह हमेशा एक अजनबी बनकर रहेगा? यह लौटना भौतिक भले ही हो, पर भावनात्मक रूप से यह उस व्यक्ति की वापसी है, जिसने ‘गम को अपने साथ में ले ले, दर्द भी तेरे काम आएगा’ के दर्शन को जीया है। उसकी आँखों की ख़ामोशी में वह सारी वेदना छिपी है, जो न्याय के नाम पर उसके जीवन से लूटी गई है।
न्याय का ज़ख्म और आशा का मंत्र: ‘अल्लाह के बन्दे हंस दे, जो भी हो कल फिर आएगा’
यह मार्मिक त्रासदी केवल इस व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस पूरी व्यवस्था की है, जिसने एक निर्दोष की ज़िंदगी को बेरहमी से छीन लिया। क़ानून की गलती और समाज की चुप्पी ने मिलकर उस शख्स की पूरी ज़िंदगी तबाह कर दी। उसकी कहानी उस दर्द को दर्शाती है जहाँ ‘टुकड़े-टुकड़े हो गया था हर सपना’। फिर भी, उसकी इस दर्दनाक वापसी में, एक अदृश्य, ईश्वरीय शक्ति पर विश्वास का भाव छिपा है, जैसा कि गीत कहता है: “बिखरे टुकड़ों में अल्लाह की मर्ज़ी का मंज़र पायेगा।” उस व्यक्ति के पास अब किसी के लिए शिकायत नहीं, बस जीवन की गहरी थकान है। उसकी टूटी हुई आज़ादी हमें सिखाती है कि हम न्याय में देरी न करें। उसकी वापसी एक मांग नहीं, बल्कि एक आशीर्वाद है, जो हमें उस शाश्वत मंत्र की याद दिलाता है: “के अल्लाह के बन्दे हंस दे, अल्लाह के बन्दे। अल्लाह के बन्दे हंस दे, जो भी हो कल फिर आएगा।” उसकी कहानी हमें याद दिलाती है कि भले ही आज वह लूटा हुआ और टूटा हुआ है, कल आने की आशा हमेशा बाक़ी रहनी चाहिए।