पटना / नई दिल्ली, 8 अक्टूबर 2025
बिहार की राजनीति में इस वक्त सबसे बड़ा धमाका हो चुका है। चिराग पासवान ने चुनाव से पहले ऐसा सियासी कदम उठाया है जिसने बीजेपी की रणनीति को पूरी तरह हिला दिया है। दिल्ली और पटना दोनों में बीजेपी के नेताओं में बेचैनी है, क्योंकि जिस युवा नेता को कभी “साथी” समझा गया था, वही अब सत्ता का संभावित केंद्र बन गया है। सूत्रों के अनुसार, बीजेपी के प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान का फोन चिराग पासवान ने उठाने से इनकार कर दिया, और यह घटना बिहार की राजनीति में उस साइलेंट विद्रोह का संकेत है जो अब खुले टकराव की ओर बढ़ रहा है। चिराग अब न तो समझौते के मूड में हैं, न ही किसी के आगे झुकने के। वह जानते हैं कि 2020 में जिस तरह उन्होंने एनडीए की पूरी चुनावी गणित बिगाड़ दी थी, वैसी ही ताकत आज उनके पास फिर से है — बल्कि और ज़्यादा।
बीजेपी की अंदरूनी स्थिति इस समय बेहद अस्थिर मानी जा रही है। जहां उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी अब भी “सत्ता के चरणों” में हैं और बीजेपी की लाइन पर चल रहे हैं, वहीं चिराग पासवान ने अलग राह चुन ली है। उन्होंने अपने कदम बेहद सधे हुए ढंग से बढ़ाए हैं — न कोई बयानबाजी, न कोई अधीरता, सिर्फ रणनीति और संकेत। चिराग इस वक्त बिहार के राजनीतिक माहौल को बारीकी से तौल रहे हैं। वे जानते हैं कि जनता के बीच उनका चेहरा “दलित युवा शक्ति” का प्रतीक बन चुका है। वह अब यह लड़ाई सिर्फ सीटों की नहीं, बल्कि नेतृत्व के केंद्र की बना चुके हैं। सूत्रों की मानें तो चिराग की योजना साफ़ है — 45 सीटों पर दावा और उस पर बीजेपी की झुकने की मजबूरी। बीजेपी के नेता अब खुद स्वीकार कर रहे हैं कि अगर चिराग अलग राह चले गए, तो सत्ता का रास्ता विपक्ष के लिए खुल जाएगा।
बीजेपी के लिए मुश्किल यह है कि उसके पुराने सहयोगी अब “मोलभाव करने वाले साथी” बन गए हैं। दिल्ली में हुई मुलाकात में विनोद तावड़े और धर्मेंद्र प्रधान ने चिराग से मुलाकात की थी, लेकिन चर्चा का नतीजा सिफर रहा। चिराग ने साफ़ कर दिया कि वे सिर्फ “जगह भरने” वाले गठबंधन साथी नहीं हैं, बल्कि “निर्णायक ताकत” बनकर उभरना चाहते हैं। बैठक में चिराग ने 45 सीटों की मांग रखी और कहा कि उनकी पार्टी एलजेपी (रामविलास) बिहार में बीजेपी की तुलना में “जमीन पर ज्यादा सक्रिय” है। उन्होंने यह भी संकेत दिया कि अगर बीजेपी ने उन्हें नज़रअंदाज़ किया, तो वे “सोलो मोड” में चुनाव लड़ेंगे — जैसा उन्होंने लोकसभा चुनाव में किया था और बीजेपी को झुकना पड़ा था।
दरअसल, चिराग के तेवरों में अब रामविलास पासवान की चालाक राजनीति का अनुभव और युवा नेतृत्व की आक्रामकता दोनों झलक रही हैं। बीजेपी नेताओं ने कोशिश की कि उन्हें दिल्ली बुलाकर समझाया जाए, लेकिन चिराग अब केंद्र की राजनीति से ज़्यादा बिहार की ज़मीन पर ध्यान दे रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि चिराग ‘किंगमेकर’ से ‘किंग’ बनने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। उन्होंने बिहार में निचले स्तर तक पार्टी के ढांचे को सक्रिय किया है और ‘चिराग मॉडल’ के नाम से नए उम्मीदवारों की ग्राउंड मीटिंग्स शुरू हो चुकी हैं।
चिराग पासवान की बढ़ती महत्वाकांक्षा अब सिर्फ चुनावी सीटों तक सीमित नहीं रही। उन्होंने खुलकर संकेत दिए हैं कि अगर जनसमर्थन और समीकरण सही बैठे, तो वे मुख्यमंत्री पद की दौड़ में उतरने से पीछे नहीं हटेंगे। उनके करीबी सूत्र बताते हैं कि उन्होंने पार्टी के अंदर “मुख्यमंत्री रोडमैप” तैयार कर लिया है, जिसमें अगड़ी-पिछड़ी और दलित जनसंख्या को जोड़ने की रणनीति शामिल है। वह जातीय गणित को समझते हैं, और यह जानते हैं कि बिहार में दलित मतदाता के साथ-साथ युवा वर्ग भी इस बार निर्णायक भूमिका निभाएगा।
चिराग की टीम का कहना है कि वे “रामविलास की करुणा” और “नरेंद्र मोदी की आक्रामकता” का मिश्रण बनकर उभरना चाहते हैं। इसीलिए वे बीजेपी पर दबाव डाल रहे हैं कि गठबंधन की सीट बंटवारे में उन्हें बराबरी का दर्जा मिले — क्योंकि अब वह सिर्फ एक सहयोगी नहीं, बल्कि “ब्रांड चिराग” बन चुके हैं।
बीजेपी के लिए यह स्थिति बेहद चिंताजनक है। बिहार का सत्ता समीकरण हमेशा गठबंधनों पर टिका रहा है, लेकिन इस बार चिराग पासवान ने जिस तरह राजनीतिक चाल चली है, उसने बीजेपी की “एकतरफा नियंत्रण” की परंपरा तोड़ दी है। बीजेपी के कई नेता मान रहे हैं कि अगर चिराग नाराज़ होकर अलग मोर्चा बनाते हैं, तो उसका सीधा असर 60 से अधिक सीटों पर पड़ेगा, जो बीजेपी के “मिडल वोट बैंक” को सीधे प्रभावित करेगा। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि बीजेपी नेतृत्व अब “नुकसान नियंत्रण” में जुट गया है, लेकिन चिराग की चुप्पी और उनके बढ़ते आत्मविश्वास से यह साफ़ है कि वह अब किसी का आदेश नहीं, बल्कि शर्तें तय करेंगे।
दिलचस्प बात यह है कि चिराग को बिहार का नया “मौसम विज्ञानी” भी कहा जा रहा है। उनके पिता रामविलास पासवान को राजनीति का ‘weather scientist’ कहा जाता था — जो हवा का रुख पहले से भांप लेते थे। अब वही कला चिराग में दिख रही है। उन्होंने बिहार की जनता के मूड को भांप लिया है और समझ लिया है कि वोटर अब पुराने नेताओं से ऊब चुका है। इसीलिए वह खुद को “नई पीढ़ी के नेता” के रूप में पेश कर रहे हैं।
राजनीतिक सूत्रों का कहना है कि चिराग को प्रशांत किशोर का विकल्प बताया जा रहा है, और वे अब अपने खुद के “पीके मॉडल” पर काम कर रहे हैं — जो सोशल मीडिया, युवाओं और जमीनी नेटवर्किंग पर केंद्रित है। यही वजह है कि बीजेपी अब “दुविधा” में है — अगर साथ रखे तो समझौता करना पड़ेगा, अगर छोड़े तो विपक्ष को मजबूत करेगी।
तो क्या चिराग पासवान अब बिहार की राजनीति के ‘गेम चेंजर’ बन चुके हैं? उन्होंने बीजेपी को एक ही झटके में यह एहसास करा दिया कि अब समय बदल चुका है — और बिहार की राजनीति में किसी का “साथी” नहीं, “स्वयं नेता” बनने का अधिकार हर उस युवा को है, जो जनता के बीच खड़ा रहकर अपने नाम पर वोट मांगने की हिम्मत रखता है।
चिराग अब केवल पासवान परिवार के उत्तराधिकारी नहीं, बिहार की राजनीति के नए समीकरण के निर्माता बन चुके हैं।