भोपाल 6 अक्टूबर 2025
छिंदवाड़ा की घटना ने देश के स्वास्थ्य ढांचे, दवा नियमन और चिकित्सा प्रणाली की कमजोरियों को फिर से उजागर कर दिया है। 14 मासूम बच्चों की मौत केवल एक सिरप की गलती नहीं है — यह उस पूरी व्यवस्था की विफलता है जो वर्षों से चेतावनियों के बावजूद सुधार नहीं कर पाई। दवा वही थी जो “मान्य” थी, डॉक्टर वही था जो “सरकारी” था, और अस्पताल वही था जो “जनता के भरोसे” पर चलता था — लेकिन नतीजा यह हुआ कि दवा इलाज नहीं, जहर बन गई।
भारत की दवा सुरक्षा प्रणाली की खोखली हकीकत
भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा दवा उत्पादक देश है। ‘मेड इन इंडिया’ लेबल अब सिर्फ़ देश के नहीं, बल्कि अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के बाज़ारों तक पहुंच चुका है। लेकिन यह गौरव अब चिंता में बदल रहा है, क्योंकि बार-बार हमारे देश की बनी दवाएँ ज़हर साबित हो रही हैं।
2022 में गाम्बिया में 70 बच्चों की मौत, 2023 में उज्बेकिस्तान में 19 बच्चों की जान, और अब 2025 में मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में 14 मासूमों की मौत — इन तीनों त्रासदियों में एक समानता है: सस्ती दवाएँ, बिना गुणवत्ता जांच और सरकारी लापरवाही।
भारत में Central Drugs Standard Control Organization (CDSCO) और राज्यों के ड्रग कंट्रोल विभाग मौजूद हैं, लेकिन उनके पास न तो पर्याप्त कर्मचारी हैं, न आधुनिक प्रयोगशालाएँ। ज़्यादातर कंपनियाँ बैच रिपोर्ट फाइलिंग में नियमों का पालन नहीं करतीं और “बिना जांच” दवाएँ बाज़ार में उतर जाती हैं। यह किसी तकनीकी भूल का नहीं, प्रणालीगत अपराध का मामला है।
डॉक्टरों की ज़िम्मेदारी और नैतिक संकट
डॉक्टर समाज का सबसे भरोसेमंद चेहरा होता है, लेकिन जब वही बिना पुष्टि किए दवा लिख दे, तो यह लापरवाही नहीं, अपराध बन जाता है। छिंदवाड़ा के डॉक्टर प्रवीण सोनी पर जो आरोप हैं, वे केवल एक व्यक्ति की गलती नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की विफलता हैं जिसमें सरकारी चिकित्सक मरीजों की बजाय फार्मा कंपनियों पर ज्यादा भरोसा करने लगते हैं।
कई बार दवा प्रतिनिधियों (Medical Representatives) की सिफारिश पर डॉक्टर बिना बैच या सैंपल जांच के सिरप या एंटीबायोटिक लिख देते हैं। यह प्रथा भारत के सरकारी अस्पतालों में आम हो चुकी है। सवाल यह है कि क्या डॉक्टरों को किसी दवा को “प्रिस्क्राइब” करने से पहले उसका क्लिनिकल डेटा, बैच नंबर, और रासायनिक सुरक्षा प्रमाण देखना जरूरी नहीं होना चाहिए?
सरकार की नियामक नींद और प्रशासनिक ‘जुगाड़’
हर हादसे के बाद एक ही ढर्रा दोहराया जाता है — जांच समिति बनेगी, रिपोर्ट आएगी, कुछ लोग सस्पेंड होंगे, और मामला ठंडा पड़ जाएगा। लेकिन इस बार बात 14 मासूमों की है, और यह घटना दर्शाती है कि भारत की दवा निगरानी प्रणाली कागज़ों में ज़्यादा, ज़मीनी हकीकत में बहुत कमज़ोर है।
भारत में लगभग 12,000 से अधिक फार्मास्युटिकल यूनिट्स हैं, लेकिन नियमित निरीक्षण (inspection) मुश्किल से 10% तक होता है। DCGI और राज्य ड्रग इंस्पेक्टरों की क्षमता इतनी सीमित है कि सैकड़ों दवा ब्रांड बिना सुरक्षा जांच के बिक्री में आ जाते हैं।
यह केवल नियामक कमजोरी नहीं, बल्कि राजनीतिक और कॉर्पोरेट गठजोड़ का नतीजा है। कई छोटे निर्माता राजनीतिक संरक्षण में चल रहे हैं, और जब तक त्रासदी नहीं होती, तब तक किसी की नींद नहीं खुलती।
दवा उद्योग में ‘गुणवत्ता’ बनाम ‘मुनाफ़ा’ की लड़ाई
दवा उद्योग आज मुनाफे की दौड़ में क्लिनिकल एथिक्स को पीछे छोड़ चुका है। सस्ती और फर्जी दवाओं का बाजार केवल झुग्गी-बस्तियों तक सीमित नहीं, बल्कि सरकारी अस्पतालों तक पहुंच चुका है। “लागत घटाओ, उत्पादन बढ़ाओ” के नाम पर निर्माता डायएथीलीन ग्लाइकोल जैसे सस्ते रसायनों का इस्तेमाल करते हैं जो सिरप में मिठास तो लाते हैं, लेकिन शरीर में ज़हर बनकर जाते हैं।
मज़ेदार बात यह है कि यही भारत, जो दुनिया को जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा निर्यातक है, अपने ही नागरिकों के लिए दवा सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर पा रहा। यह उस विरोधाभास की कहानी है जहाँ “फार्मा पावर” का गर्व, “फूड एंड ड्रग सेफ्टी” की शर्म में बदल गया है।
समाधान: सख़्त निगरानी और जवाबदेही का नया मॉडल
अब सिर्फ़ जांच नहीं, संरचनात्मक सुधार की ज़रूरत है।
- राष्ट्रीय स्तर पर दवा सुरक्षा आयोग बने, जो हर बैच का अनिवार्य नमूना परीक्षण करे।
- डिजिटल ट्रेसिंग सिस्टम शुरू किया जाए ताकि हर सिरप की बोतल का स्रोत और बैच नंबर ट्रैक किया जा सके।
- डॉक्टरों की जवाबदेही तय हो — अगर कोई दवा बिना उचित पुष्टि के लिखी जाती है और नुकसान होता है, तो लाइसेंस निलंबित किया जाए।
- जन जागरूकता अभियान चलाया जाए ताकि लोग सस्ती और बिना बिल की दवाएँ न खरीदें।
- राज्य प्रयोगशालाओं को आधुनिक उपकरणों और प्रशिक्षित स्टाफ से लैस किया जाए।
इन कदमों के बिना भारत की “फार्मा महाशक्ति” की छवि केवल नारेबाज़ी रह जाएगी।
मीडिया और नागरिक समाज की भूमिका
यह भी सच है कि जब तक मीडिया और नागरिक समाज ऐसे मुद्दों को लगातार नहीं उठाते, तब तक सुधार की गति धीमी रहेगी। दवा उद्योग के विज्ञापन और सरकारी दावे लोगों का ध्यान भटकाते हैं, जबकि हकीकत यह है कि हर साल हजारों मरीज फर्जी या घटिया दवाओं से प्रभावित होते हैं।
मीडिया को केवल “मौतों की खबर” नहीं दिखानी चाहिए, बल्कि यह पूछना चाहिए कि मौतें रोकी क्यों नहीं जा सकीं? नागरिकों को यह हक है कि उन्हें सुरक्षित दवाएँ मिलें — यह कोई उपकार नहीं, बल्कि उनका संवैधानिक अधिकार है।
भरोसे की सबसे बड़ी बीमारी
छिंदवाड़ा की घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि भारत में असली बीमारी क्या है — कफ, बुखार या भरोसे का जहर? जब सरकारी दवाएँ असुरक्षित हों, डॉक्टरों की सलाह संदेहास्पद हो, और प्रशासन की जवाबदेही खोखली हो, तो आम नागरिक किस पर भरोसा करे?
अब वक्त आ गया है कि भारत की “मेड इन इंडिया” फार्मा नीति को केवल निर्यात और मुनाफे से नहीं, बल्कि मानव जीवन की सुरक्षा और नैतिक दायित्वों से जोड़ा जाए। क्योंकि दवा अगर जहर बन जाए, तो विकास का कोई अर्थ नहीं रह जाता। भारत को अब एक ऐसी औषधि नीति चाहिए जो हर नागरिक को यह भरोसा दे सके कि इलाज ज़िंदगी देगा, मौत नहीं।