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दुर्गा पूजा का आर्थिक चमत्कार: आस्था, रोज़गार और एक लाख करोड़ का उत्सव बाजार

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शिवाजी सरकार, अर्थशास्त्री 

नई दिल्ली 6 अक्टूबर 2025

दुर्गा पूजा अब सिर्फ़ फूल, भोग और आरती तक सीमित नहीं रही। कोलकाता, दिल्ली, पटना, वाराणसी, नोएडा और गुवाहाटी जैसे शहरों में यह त्योहार भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक और आर्थिक उत्सव बन चुका है — जहाँ आस्था, फैशन, व्यापार और विज्ञापन का संगम होता है। जो कभी मोहल्लों की सीमित परंपरा हुआ करती थी, वह अब करोड़ों लोगों को जोड़ने वाला आर्थिक पर्व बन चुकी है। पंडालों की जगमग रोशनी, मां दुर्गा की भव्य प्रतिमाएं, बाजारों की भीड़, डिजिटल विज्ञापन और खचाखच भरे होटल — सब मिलकर यह साबित करते हैं कि दुर्गा पूजा अब सिर्फ़ पूजा नहीं, बल्कि एक उद्योग बन गई है।

कोलकाता की पूजा तो राजनीति से भी अछूती नहीं रही। यहां हर बड़ा पंडाल किसी न किसी राजनीतिक संरक्षण से जुड़ा दिखता है — कोई “ऑपरेशन सिंदूर” का हिस्सा बनता है, तो कोई विरोध में अपना रंग दिखाता है। पर राजनीति के इस रंग के पीछे सबसे दिलचस्प पहलू है — दुर्गा पूजा की अर्थव्यवस्था। 2019 में ब्रिटिश काउंसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार, केवल पश्चिम बंगाल की पूजा अर्थव्यवस्था 32,377 करोड़ रुपये की थी, जो राज्य की जीडीपी का लगभग 2.6 प्रतिशत थी। 2023 तक यह आँकड़ा बढ़कर 84,000 करोड़ तक पहुँच गया, और अब 2025 में अनुमान है कि यह 1 लाख करोड़ रुपये के पार हो चुका है। इनमें से लगभग 50,000 करोड़ रुपये का कारोबार सिर्फ़ बंगाल में होता है, जबकि बाकी धनराशि देशभर के गरबा, नवरात्र और क्षेत्रीय मेलों में बंट जाती है।

सिर्फ़ विज्ञापन क्षेत्र में ही दुर्गा पूजा का प्रभाव विस्मयकारी है। 2019 में पूजा से जुड़े विज्ञापन करीब 90 करोड़ रुपये के थे, जो अब कई गुना बढ़ चुके हैं। डिजिटल कैंपेन, इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग, और पंडालों में ब्रांड एक्टिवेशन के जरिए यह पर्व विज्ञापनदाताओं के लिए सोने की खान साबित हुआ है। हिंदुस्तान यूनिलीवर, आईटीसी, टाइटन, तनिष्क, सैमसंग, एलजी, मारुति सुजुकी और ह्युंडई जैसे ब्रांड इस समय अपनी बिक्री रणनीतियों का बड़ा हिस्सा इसी सीज़न में निवेश करते हैं। अमेज़न और फ्लिपकार्ट जैसे ई-कॉमर्स दिग्गज दिवाली से पहले अपनी प्रमोशन रणनीति पूजा पर केंद्रित करते हैं, ताकि पूर्वी भारत के बाजारों में अधिक हिस्सेदारी मिल सके।

दुर्गा पूजा की आर्थिक लहर का असर सिर्फ़ कोलकाता तक सीमित नहीं है। बिहार, उत्तर प्रदेश और असम के छोटे-बड़े शहरों में भी पंडालों का बजट 5 लाख से लेकर 40–50 लाख रुपये तक पहुंचता है। इन आयोजनों को सामाजिक निवेश माना जाता है क्योंकि यह सिर्फ़ भक्ति नहीं, रोज़गार का साधन भी बनते हैं। पंडाल कलाकार, मूर्तिकार, बढ़ई, बिजलीकर्मी, बांस के कारीगर, डेकोरेटर, ढाक वादक और खाने-पीने के स्टॉल लगाने वाले — सभी की आजीविका इन दिनों पर निर्भर रहती है।

पटना जैसे शहरों में पूजा के दौरान सांस्कृतिक आयोजनों की भी अपनी खास पहचान है। शहर के दानापुर क्लब से लेकर गांधी मैदान तक, शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में देश के बड़े कलाकार प्रदर्शन करते हैं। इन आयोजनों को प्रायोजित करने में बड़े-बड़े उद्योग समूह, बैंक, और जीवनशैली ब्रांड्स आगे रहते हैं — जैसे टाटा टिस्कॉन, इंडसइंड बैंक, कोका-कोला, इको वॉटर और कई स्थानीय कंपनियाँ। यह सिर्फ़ संगीत नहीं, बल्कि आर्थिक गतिविधि का एक और बड़ा उदाहरण है।

दिल्ली के चितरंजन पार्क (CR Park) की पूजा में पंडालों की रचनात्मकता देखने लायक होती है। हर साल यहाँ की समितियाँ महीनों पहले थीम तैयार करती हैं — कोई सोने का किला “सोनार केला” बनाता है, तो कोई धरती माता के सम्मान में 50,000 दीयों से सजी झोंपड़ी बनाता है। मेलाग्राउंड पंडाल तो इस साल ईस्ट मिदनापुर के महिषादल राजबाड़ी की 16वीं सदी की ऐतिहासिक इमारत को जीवंत कर रहा है। इन पंडालों में कला, तकनीक और भक्ति का अनोखा संगम देखने को मिलता है।

कोलकाता के बाहर भी पूजा का बाजार फलफूल रहा है। बंगाल के कुम्हारटोली के मूर्तिकारों से लेकर धाकियों तक, सबका साल का सबसे बड़ा कारोबार यही होता है। होटल और ट्रैवल एजेंसियाँ भी इस समय बुकिंग से भरी रहती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे पंडालों और स्थानीय मेलों से भी हजारों लोगों को काम मिलता है। यही वजह है कि अब यह पर्व ग्रामीण अर्थव्यवस्था का भी इंजन बन गया है।

2021 में यूनेस्को द्वारा कोलकाता की दुर्गा पूजा को Intangible Cultural Heritage का दर्जा मिलने के बाद, विदेशी पर्यटक और प्रवासी भारतीयों की दिलचस्पी और बढ़ गई है। अब पूजा पर्यटन (Cultural Tourism) एक नया उद्योग बन गया है, जिससे होटल, ट्रैवल एजेंसी, टैक्सी सेवाएं और हस्तशिल्प बाजार सभी को लाभ होता है।

अब पूजा सिर्फ़ धर्म का प्रतीक नहीं रही — यह संस्कृति और अर्थव्यवस्था का महोत्सव बन चुकी है। पंडाल अब सिर्फ़ मां दुर्गा की मूर्ति देखने की जगह नहीं, बल्कि अनुभवों का संसार बन गए हैं — कहीं मंदिर की प्रतिकृति, कहीं किले का रूप, कहीं विश्व धरोहरों की नकल, और साथ में डिजिटल अनुभव, संगीत, रोशनी और आर्ट इंस्टॉलेशन। यह सब एक ही मकसद से किया जाता है — भक्ति को आधुनिकता और उपभोग से जोड़ना।

युवा पीढ़ी के लिए पूजा अब सिर्फ़ श्रद्धा का नहीं, बल्कि फैशन, संगीत और सोशल मीडिया का भी उत्सव है। वहीं, बुजुर्गों के लिए यह अब भी घर-परिवार और परंपरा से जुड़ने का अवसर है। यही दुर्गा पूजा की सबसे बड़ी खूबी है — यह बदलते समय के साथ कदम से कदम मिलाती है, लेकिन अपनी जड़ों से अलग नहीं होती।

आख़िर में, दुर्गा पूजा यह साबित करती है कि भारत में त्योहार केवल आस्था का प्रतीक नहीं होते — वे आर्थिक इंजन हैं। वे रोज़गार पैदा करते हैं, स्थानीय उद्योगों को जीवित रखते हैं, और लाखों लोगों को जोड़ते हैं। यह त्योहार भक्ति को अर्थशास्त्र से जोड़ता है, संस्कृति को बाज़ार से मिलाता है और एक संदेश देता है — जब संस्कृति और सृजन मिलते हैं, तो पूरा समाज प्रगति करता है।

दुर्गा पूजा अब बंगाल का त्योहार नहीं, भारत की पहचान बन चुकी है — एक ऐसा पर्व जो देवी की शक्ति, कलाकार की कल्पना और आम आदमी की मेहनत — तीनों को एक साथ मनाता है।

 

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