कभी लखनऊ की शामें इन नवाबों के नाम हुआ करती थीं — महलों की छतों पर रोशनियाँ जगमगाती थीं, बाज़ारों में शेरो-शायरी गूंजती थी, और दरबारों में तबले, सरोद और सितार की झंकार गूंजा करती थी। पर आज वही नवाब, वही राजघराने, वही वंशज वक़्त के थपेड़ों में गुम हो चुके हैं। जिनके पास कभी ज़मींदारियाँ, घोड़े, नौकर-चाकर और शानो-शौकत थी, आज वे अपनी पुरानी रियासतों के ढहते हुए दीवारों के साये में जी रहे हैं।
उनकी हालत इतनी दयनीय है कि कुछ लोग तो अब अपनी “राजसी पेंशन” के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाते हैं — और वह भी सिर्फ कुछ सौ रुपये महीने की। जो परिवार कभी अपने मेहमानों को सोने के प्यालों में शरबत पेश करते थे, आज वही कहते हैं, “जितनी हम छोड़ दिया करते थे मयख़ाने में, उतनी भी आज मयस्सर नहीं पैमाने में…”
यह एक पंक्ति नहीं, बल्कि एक पूरी सदी के पतन की पुकार है। उत्तर प्रदेश के कई पुराने राजघराने, जो कभी अवध, प्रतापगढ़, बाराबंकी, बलरामपुर और शाहजहांपुर जैसे इलाकों में राज करते थे, आज गुमनामी में धकेल दिए गए हैं। स्वतंत्रता के बाद इन राजवंशों को ब्रिटिश कालीन समझौतों के तहत जो “वासिका पेंशन” दी जाती थी, वह उनकी हैसियत का प्रतीक थी।
यह पेंशन एक तरह से सम्मान का संकेत थी — यह बताने के लिए कि भारत अपने इतिहास, अपने पूर्वजों और अपनी सांस्कृतिक विरासत को नहीं भूला है। लेकिन समय बदला, नीतियाँ बदलीं, और अब वही वासिका एक औपचारिकता बनकर रह गई है — नाम तो है, मगर उसका अर्थ और मूल्य समाप्त हो गया।
आज इन पेंशनों की राशि इतनी कम है कि कई पूर्व राजघरानों को अपने मकानों की मरम्मत तक के पैसे नहीं मिलते। एक वंशज ने बताया कि पहले उन्हें जो पेंशन मिलती थी, उससे घर चलता था; अब वह बिजली और दवा के बिलों में भी पूरी नहीं होती। उनकी हवेलियाँ धीरे-धीरे जर्जर हो रही हैं।
बरामदों में झाड़ियाँ उग आई हैं, झूमर टूट चुके हैं, और दीवारों पर रेंगते नामों में इतिहास के निशान मिटते जा रहे हैं। कुछ लोगों ने अपने महलों के हिस्से किराए पर दे दिए हैं, तो कुछ ने पुरानी ज़मीनें बेच दीं — ताकि किसी तरह रोटी का बंदोबस्त हो सके। यह वही परिवार हैं जिनके पूर्वज कभी ब्रिटिश गवर्नरों और वायसरायों के साथ शतरंज खेला करते थे, और अब वे बैंक की लाइन में खड़े होकर पेंशन के कुछ नोट लेने को मजबूर हैं।
लखनऊ का नवाबी अदा कभी हिंदुस्तान की पहचान हुआ करती थी। वह तहज़ीब, वह नफ़ासत, वह अदब — अब इतिहास के पन्नों में कैद है। इन वंशजों की जुबान पर अब भी अदब और सलीका कायम है, मगर हालात ने इनकी कमर तोड़ दी है। जो लोग कभी “मुस्कराकर” मेहमानों का स्वागत करते थे, अब “सर झुकाकर” गुज़ारा कर रहे हैं। अवध के एक नवाबजादे ने कहा, “हमारे पुरखे जो विरासत छोड़ गए थे, वह तहज़ीब थी — लेकिन हमने अब सिर्फ़ तंगहाली पाई है।” इस दर्द में न सिर्फ़ आर्थिक कमी की बात है, बल्कि वह सम्मान और पहचान की कमी भी है जो पीढ़ियों से चली आ रही थी।
इतिहासकार मानते हैं कि यह सिर्फ़ कुछ परिवारों की कहानी नहीं, बल्कि भारतीय समाज की उपेक्षा की गवाही है। यह वह समाज है जिसने आधुनिकता की दौड़ में अपने सांस्कृतिक प्रतीकों को पीछे छोड़ दिया। सरकारें बदलती रहीं, घोषणाएँ होती रहीं, लेकिन इन पूर्व राजघरानों की दशा कभी नहीं सुधरी। उनकी हवेलियाँ अब खंडहर बन रही हैं, और उनकी कहानियाँ धीरे-धीरे मिटती जा रही हैं। उनके पास अब भी पुरानी तस्वीरें, राजसी फरमान और मोहरें हैं, मगर उनका कोई खरीदार नहीं। यह इतिहास अब संग्रहालयों में नहीं, बल्कि लाचारी की गलियों में सिसकता हुआ इतिहास बन गया है।
कभी जिन महलों में कव्वाल रात भर गाते थे, अब वहाँ दीवारों पर सीलन की बदबू है। जिन बरामदों में कभी शेरो-शायरी के मजलिस सजते थे, वहाँ अब खामोशी का मातम है। कभी जिनके मेज़ पर सोने के बर्तनों में खाना परोसा जाता था, आज उन्हीं घरों में सिलबट्टे की दाल और रोटी पर गुज़ारा होता है। वक़्त ने जो छीना है, वह सिर्फ़ दौलत नहीं — वह एक पूरा दौर, एक पूरी तहज़ीब है।
आज अगर कोई इन पुराने नवाबों से मिले, तो उनकी आँखों में अब भी वो पुराना “अदब” दिखाई देता है — लेकिन उसके नीचे छिपा होता है दर्द, ग़ुरबत और एक गहरी खामोशी। यह खामोशी पूछती है — “क्या हमारी विरासत का यही अंजाम होना था?” शायद यही वजह है कि अब ये लोग अपने अतीत को शान नहीं, बोझ की तरह ढोते हैं।
और जब कोई उनसे पूछता है कि “आपके पास अब क्या बचा है?”, तो वे मुस्कुराकर वही अमर पंक्ति कहते हैं, “जितनी हम छोड़ दिया करते थे मयख़ाने में, उतनी भी आज मयस्सर नहीं पैमाने में…”