एशिया कप में खेल या राजनीति का खेल?
पहल्गाम की घटना के बाद भारत-पाक संबंध ठप हैं, बातचीत बंद है, राजनयिक स्तर पर भी तनाव है। ऐसे में सरकार का रवैया यह था कि “खेल और राजनीति अलग हैं” इसलिए टीम को एशिया कप खेलने भेज दिया गया। लेकिन मैदान पर जो दृश्य देखने को मिले, उन्होंने यह साबित कर दिया कि यह सिर्फ खेल नहीं, राजनीति का स्क्रिप्टेड ड्रामा भी है। मैच के दौरान साफ दिखा कि भारतीय खिलाड़ियों को सख्त आदेश दिए गए थे कि किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी से न हाथ मिलाएं, न ज्यादा बातचीत करें। यह खेल का मैदान था या सीमा पर मोर्चा? खेल के बुनियादी शिष्टाचार को तिलांजलि दे दी गई।
बंद कमरे में दोस्ती, मैदान पर दुश्मनी
सबसे बड़ा खुलासा तब हुआ जब टूर्नामेंट के शुरुआती दिनों में सोशल मीडिया पर तस्वीरें और रिपोर्ट्स सामने आईं कि वही खिलाड़ी बंद कमरे में पाकिस्तानी कप्तान और अधिकारियों से हाथ मिला रहे थे, हंसी-ठहाके कर रहे थे, लेकिन जैसे ही मैदान पर कैमरे ऑन हुए, अचानक ठंडापन और दूरी दिखने लगी। Suryakumar Yadav (SKY) को भी पाक कप्तान और पीसीबी के चेयरमैन मोहसिन नक़वी से हाथ मिलाते देखा गया था — लेकिन मैच में वही SKY दिखावटी दूरी बनाए रखते नज़र आए। सवाल यह है कि अगर असल में दुश्मनी थी तो बंद कमरे में दोस्ती क्यों? और अगर दोस्ती थी तो मैदान पर नौटंकी क्यों?
खिलाड़ी बने प्रॉक्सी प्रोपेगेंडा के मोहरे
खिलाड़ी मैदान में खेलते हैं, लेकिन इस पूरे प्रकरण ने साफ कर दिया कि वे कहीं न कहीं राजनीतिक संदेश देने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं। बंद कमरे में सब कुछ सामान्य रखना और कैमरे के सामने आकर “सख्ती” दिखाना सिर्फ दर्शकों को बेवकूफ बनाने के लिए किया गया। ये वही प्रोपेगेंडा है जिससे दोनों देशों की सरकारें अपनी-अपनी जनता के सामने “कड़ा रुख” दिखा सकें। लेकिन इस नाटक में खेल की आत्मा कुचली जा रही है और खिलाड़ियों को राजनीतिक मोहरा बना दिया गया है।
इतिहास गवाह है — खेल में दूरी भी रही है, लेकिन साफ-साफ
भारत का इतिहास बताता है कि कई बार जब रिश्ते बेहद खराब हुए, तब भारत ने पाकिस्तान से खेलने से साफ मना किया — चाहे क्रिकेट हो, हाकी हो या कबड्डी। तब BCCI उतना ताकतवर नहीं था, लेकिन देशहित के लिए दूरी बनाए रखी। आज जब BCCI दुनिया की सबसे ताकतवर क्रिकेट बॉडी है और ICC पर भी उसका असर है, तब यह दोहरा रवैया क्यों? अगर इतनी ही समस्या थी तो साफ-साफ कह देते कि हम नहीं खेलेंगे। लेकिन खेलना भी है, पैसे भी कमाने हैं और जनता के सामने “राष्ट्रवाद” भी बेचना है — यही राजनीति का दोहरा खेल है।
जनता को मूर्ख समझना बंद करो
सबसे बड़ा सवाल यही है — आखिर यह नौटंकी कब तक चलेगी? बंद कमरे में हंसी-ठहाका और बाहर आकर नफरत का नाटक कब तक? जनता अब जाग चुकी है। अगर इतना ही दर्द था तो मैच ही न खेलते। अगर खेल खेलने का फैसला किया तो शिष्टाचार निभाते और खेल को खेल की तरह रखते। लेकिन यह दिखावा सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए किया गया और खिलाड़ी मोहरे बन गए। यह न खेल के हित में है, न देश के सम्मान में।