नई दिल्ली 26 सितंबर 2025
दिल्ली हाई कोर्ट में जब समीर वानखेड़े की मानहानि याचिका पर सुनवाई हुई, तो अदालत ने सबसे पहले यही पूछा कि क्या यह याचिका स्वीकार करने लायक भी है। कोर्ट के इन सवालों ने पूरा माहौल बदल दिया और यहीं से यह कहावत एकदम चरितार्थ हो गई — “चोर की दाढ़ी में तिनका।”
समीर वानखेड़े वही अफ़सर हैं जिनका नाम आर्यन खान ड्रग्स केस के दौरान सुर्खियों में आया था। उन्होंने अपने आप को सख्त अफ़सर साबित करने की कोशिश की, लेकिन बाद में उन पर गंभीर आरोप लगे — रिश्वतखोरी के, गवाहों को धमकाने के, और निजी एजेंडा चलाने के। इन सबके बीच अब जब एक वेब सीरीज “Bads of Bollywood” आई और उसमें उनके कार्यकाल और फैसलों को सवालों के घेरे में दिखाया गया, तो वानखेड़े ने तुरंत मानहानि का मुकदमा ठोंक दिया।
लेकिन अदालत ने जैसे ही याचिका की वैधता पर सवाल उठाए, मामला पलट गया। कोर्ट ने साफ कहा कि क्या हर आलोचना को मानहानि मान लिया जाए? क्या पब्लिक ऑफिसर्स को लेकर जन बहस को रोकना ठीक होगा? क्या ऐसे मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचला जा सकता है?
यहीं पर यह कहावत सटीक बैठती है। अगर सबकुछ पारदर्शी और सही होता, तो इतना डर और इतनी बेचैनी क्यों? अदालत का रुख साफ बताता है कि समीर वानखेड़े को खुद पर लगे सवालों का सामना करना पड़ेगा, न कि उन्हें दबाने की कोशिश।
कानूनी और नैतिक संदेश
यह घटना केवल वानखेड़े का मामला नहीं है, बल्कि उन तमाम अफसरों और पब्लिक फिगर्स के लिए सबक है जो आलोचना होते ही अदालत का दरवाज़ा खटखटाने दौड़ पड़ते हैं। न्यायपालिका ने एक बार फिर याद दिलाया कि लोकतंत्र में आलोचना अपराध नहीं है। खासकर वे लोग जो जनता के टैक्स के पैसे से वेतन पाते हैं, उन्हें अधिक जवाबदेह होना चाहिए और आलोचना सहने की क्षमता रखनी चाहिए।
समीर वानखेड़े की याचिका पर कोर्ट के सवाल बतौर संदेश हैं — पारदर्शिता और जवाबदेही ही किसी पब्लिक ऑफिसर की असली पहचान है। यदि काम सही है तो कोई भी वेब सीरीज या आलोचना उन्हें हिला नहीं सकती। लेकिन अगर काम में खोट है, तो चाहे कितने भी मुकदमे कर लें, सच सामने आएगा। अदालत की टिप्पणियाँ इस मामले को एक कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक आईने में बदल देती हैं।