नई दिल्ली, 26 सितंबर 2025।
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक और दूरगामी प्रभाव डालने वाला निर्णय सुनाया है, जिसमें 80 वर्षीय बुजुर्ग पिता को उनकी ही संपत्ति का मालिकाना हक बहाल करते हुए बेटे को घर खाली करने का आदेश दिया गया है। यह मामला महाराष्ट्र के मुंबई से जुड़ा है और कई सालों से विवाद में चल रहा था। पिता और माता ने “Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens Act, 2007” के अंतर्गत याचिका दायर कर अपने बेटे और बेटियों से दो कमरों को खाली कराने तथा मासिक भरण-पोषण की मांग की थी। वनस्थली ट्रिब्यूनल ने जून 2024 में माता-पिता के पक्ष में फैसला सुनाया और बेटे को आदेश दिया कि वह दोनों कमरे खाली करे और ₹3,000 प्रति माह का भरण-पोषण दे।
इस फैसले को अपील न्यायाधिकरण ने भी बरकरार रखा, लेकिन अप्रैल 2025 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस आदेश को रद्द कर दिया। हाई कोर्ट ने कहा कि ट्रिब्यूनल को बेदखली का आदेश देने का अधिकार नहीं है क्योंकि बेटे की उम्र उस समय 60 साल हो चुकी थी और उसे भी “वरिष्ठ नागरिक” माना जाना चाहिए। इस निर्णय से निराश होकर 80 वर्षीय पिता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले को त्रुटिपूर्ण करार दिया और स्पष्ट किया कि बेटे की उम्र का आकलन उस तारीख से किया जाना चाहिए जब माता-पिता ने ट्रिब्यूनल में याचिका दायर की थी, न कि जब फैसला सुनाया गया। उस समय बेटा 59 वर्ष का था, इसलिए उसे वरिष्ठ नागरिक नहीं माना जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ, जिसमें न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता शामिल थे, ने अपने निर्णय में कहा कि “Parents and Senior Citizens Act, 2007” एक कल्याणकारी कानून है और इसे उदारता से व्याख्यायित किया जाना चाहिए ताकि वृद्ध माता-पिता के अधिकार सुरक्षित रह सकें। कोर्ट ने कहा कि यदि संतानें माता-पिता के प्रति अपने दायित्वों को निभाने में विफल होती हैं, तो उन्हें संपत्ति से बेदखल किया जा सकता है। यह फैसला उन लाखों वरिष्ठ नागरिकों के लिए राहत लेकर आया है जो अपनी ही संपत्ति में सम्मान और सुरक्षा के साथ रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने बेटे को दो सप्ताह का समय दिया है कि वह लिखित रूप से आश्वासन दे कि 30 नवंबर 2025 तक संपत्ति खाली कर देगा। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो माता-पिता को आदेश के तुरंत क्रियान्वयन का अधिकार रहेगा। इस फैसले ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि बच्चों का दायित्व केवल नैतिक नहीं बल्कि कानूनी भी है और माता-पिता के जीवन की गरिमा एवं सुरक्षा सर्वोपरि है।
यह निर्णय एक नज़ीर बन सकता है और देशभर में उन मामलों को प्रभावित करेगा जहां वृद्ध माता-पिता अपनी संपत्ति को लेकर संतान के अत्याचार या कब्ज़े से परेशान हैं। इस फैसले के बाद उम्मीद है कि और भी वरिष्ठ नागरिक अपने अधिकारों के लिए ट्रिब्यूनल का रुख करेंगे। यह मामला इस बात की गवाही देता है कि न्यायपालिका संवेदनशील है और सामाजिक न्याय को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है।