सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि जनता के टैक्स का पैसा राजनीतिक प्रतीकों और नेताओं की प्रतिमाओं पर खर्च नहीं होना चाहिए। तमिलनाडु सरकार की याचिका खारिज करते हुए अदालत ने कहा कि “सार्वजनिक धन का उपयोग जनहित के कामों के लिए हो, न कि पूर्व नेताओं को महिमामंडित करने के लिए।”
मामला तिरुनेलवेली ज़िले में पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि की प्रतिमा लगाने का था। राज्य सरकार चाहती थी कि इसे सरकारी फंड से स्थापित किया जाए, लेकिन मद्रास हाईकोर्ट ने पहले ही यह योजना रोक दी थी। हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया था कि सार्वजनिक स्थानों पर नई प्रतिमाएँ लगाने की अनुमति नहीं दी जा सकती और इसके लिए अलग से ‘लीडर्स पार्क’ जैसी जगह चिन्हित की जानी चाहिए।
तमिलनाडु सरकार ने हाईकोर्ट के इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की बेंच—न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा—ने इसे खारिज करते हुए राज्य को दो टूक कहा: “यह सार्वजनिक धन का दुरुपयोग है। किसी भी पूर्व नेता को गौरवान्वित करने के लिए पब्लिक मनी खर्च नहीं की जा सकती।”
इस फैसले का महत्व बहुत बड़ा है क्योंकि यह सिर्फ तमिलनाडु तक सीमित नहीं रहेगा। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार जैसे राज्यों में भी अक्सर सरकारें मूर्तियों, स्मारकों और पार्कों पर भारी भरकम खर्च करती हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह संदेश उन सभी राज्यों के लिए है कि टैक्सपेयर्स का पैसा जनता की सुविधा—शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, रोज़गार—पर खर्च होना चाहिए, न कि राजनीतिक शख्सियतों की छवि गढ़ने पर।
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर लोकतंत्र के उस मूल सिद्धांत की ओर इशारा किया है कि सरकार जनता की है और उसके पैसे की प्राथमिकता भी जनता ही होनी चाहिए। मूर्तियाँ प्रतीक हैं, लेकिन ज़रूरत है विकास, रोजगार और बुनियादी ढांचे की। अदालत का यह आदेश नेताओं और सरकारों को यह याद दिलाने वाला है कि पब्लिक फंड पब्लिक के लिए है, राजनीति के प्रदर्शन के लिए नहीं।