नई दिल्ली 15 सितंबर 2025
वक्फ़ संशोधन अधिनियम 2025 भारतीय लोकतंत्र के उस अध्याय का हिस्सा बन गया है, जिसने सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को अपनी-अपनी रणनीतियों में कसौटी पर कस दिया। इसकी शुरुआत संसद में हुई, फिर सड़क पर आंदोलन खड़ा हुआ और आखिरकार मामला सुप्रीम कोर्ट की चौखट तक पहुंचा। यह अधिनियम केवल एक कानून भर नहीं, बल्कि भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाओं—संसद, समाज और न्यायपालिका—की ताकत और सीमाओं का आईना है। सत्ता पक्ष ने इसे पारदर्शिता और जवाबदेही का साधन बताया, जबकि विपक्ष ने इसे अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर चोट कहा। अदालत ने संतुलन साधते हुए विवादित धाराओं पर आंशिक रोक लगाई और इस पूरे संघर्ष को “आंशिक जीत” और “आंशिक हार” की दिशा में मोड़ दिया।
संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की बैठकों से इसकी बुनियाद रखी गई। 34 बैठकों में 284 से अधिक पक्षकारों से राय ली गई। सत्ता पक्ष ने इसे सबसे व्यापक लोकतांत्रिक प्रक्रिया बताया, जबकि विपक्ष ने आरोप लगाया कि उनके सुझाव बिना चर्चा खारिज कर दिए गए। असहमति नोट दर्ज कराते हुए विपक्ष ने इसे लोकतंत्र के अपमान की संज्ञा दी। सत्ता पक्ष की बहुमत वाली समिति ने 14 संशोधनों को मंजूरी दी और विपक्षी संशोधनों को खारिज कर दिया। इस स्तर पर ही यह साफ हो गया था कि आगे संसद में यह बिल बहस का बड़ा मुद्दा बनेगा।
जब बिल संसद में पहुंचा, तो माहौल और भी गरम हो गया। लोकसभा और राज्यसभा दोनों में इस पर लंबी बहस चली। सत्ता पक्ष ने जोर देकर कहा कि पिछले दशकों में वक्फ़ संपत्तियों का दुरुपयोग हुआ है और यह संशोधन पारदर्शिता और संस्थागत मजबूती लाने के लिए आवश्यक है। उन्होंने दावा किया कि गैर-मुस्लिम सदस्यों की भागीदारी से वक्फ़ बोर्ड की कार्यशैली अधिक पारदर्शी और जवाबदेह होगी। दूसरी ओर, विपक्ष ने इसे संविधान के अनुच्छेदों के खिलाफ बताते हुए आरोप लगाया कि यह कानून धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों की संपत्ति अधिकारों पर सीधा हमला है। कांग्रेस, शिवसेना, तृणमूल कांग्रेस, CPI(M), RJD, SP और AIMIM जैसे दलों ने मिलकर इस बिल का विरोध किया। बहस इतनी तीखी हुई कि संसद में बार-बार नारेबाजी और बहिर्गमन हुआ, लेकिन अंततः सत्ता पक्ष के पास बहुमत था और बिल पास हो गया।
संसद से बाहर आते ही सड़क पर गहमागहमी और विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। हैदराबाद, मुंबई, कोलकाता, लखनऊ, जयपुर और कटक जैसे बड़े शहरों में हज़ारों लोग प्रदर्शन के लिए जुटे। AIMIM, AIMPLB और अन्य मुस्लिम संगठनों ने इसे “वक्फ़ संपत्तियों को छीनने की साज़िश” कहा। कई जगह महिलाओं और छात्रों ने भी विरोध मार्च और धरने किए। यह आंदोलन केवल राजनीतिक दलों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सामाजिक संगठनों और धार्मिक संस्थाओं ने भी इसे व्यापक रूप से उठाया। सड़क पर उठी यह आवाज़ सत्ता पक्ष के लिए चुनौती बन गई, लेकिन साथ ही विपक्ष को जनता से नैतिक बल भी मिला।
जब कानून का स्वरूप तय होकर लागू हुआ, तब विपक्ष और विभिन्न संस्थाओं ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया। 21 से अधिक याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गईं, जिनमें सांसद, सामाजिक संगठन और धार्मिक संस्थाएं शामिल थीं। अदालत ने तीन दिनों तक गहन सुनवाई की। सरकार ने तर्क दिया कि यह कानून पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिए ज़रूरी है, जबकि विपक्ष ने इसे संवैधानिक अधिकारों का हनन बताया। अंततः सुप्रीम कोर्ट ने पूरे अधिनियम को रद्द करने से इनकार किया, लेकिन कुछ विवादित धाराओं पर आंशिक रोक लगा दी। विशेष रूप से “5 वर्ष तक इस्लाम का पालन करने” की शर्त को अस्थायी तौर पर निरस्त कर दिया गया। इसी तरह धारा 2(सी) और 3C, जिनमें कार्यपालिका को वक्फ़ संपत्ति का निर्धारण करने का अधिकार दिया गया था, उन्हें रोक दिया गया। अदालत ने साफ किया कि ऐसे प्रावधान शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) और नागरिक अधिकारों के खिलाफ़ हैं।
अब सवाल यही है—क्या यह सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए जीत की स्थिति है? सत्ता पक्ष को बहुमत के सहारे बिल पास कराने और उसका बड़ा हिस्सा लागू कराने में सफलता मिली। यह उनकी रणनीति और ताक़त का प्रमाण है। लेकिन अदालत ने जिन प्रावधानों पर रोक लगाई, वे वही हिस्से थे जिन्हें विपक्ष लगातार असंवैधानिक बता रहा था। यानी विपक्ष ने संसद में हार के बावजूद सड़क और अदालत में अपनी बात मनवा ली। यह उनके लिए नैतिक और राजनीतिक जीत है। सत्ता पक्ष पारदर्शिता और जवाबदेही के एजेंडे को आगे बढ़ाने में सफल रहा, और विपक्ष संवैधानिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में अपनी छवि बनाए रखने में।
निष्कर्ष यही निकलता है कि वक्फ़ संशोधन अधिनियम 2025 लोकतंत्र की जटिलता और बहुआयामी प्रकृति का प्रतीक है। संसद ने सत्ता पक्ष को ताक़त दी, सड़क ने विपक्ष को सहारा दिया और अदालत ने दोनों पक्षों को आंशिक जीत और आंशिक हार के साथ लोकतांत्रिक संतुलन साधा। यह केवल एक कानून की कहानी नहीं, बल्कि लोकतंत्र की उस निरंतर यात्रा का हिस्सा है जिसमें हर पक्ष अपनी लड़ाई लड़ता है और अंत में संवैधानिक संस्थाएं संतुलन की भूमिका निभाती हैं। इसे सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए विन-विन कहना गलत नहीं होगा, बशर्ते वे इसे जनहित और संवैधानिकता की जीत मानें, न कि केवल राजनीतिक चालों की बाज़ीगरी।