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हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो

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नई दिल्ली 10 सितंबर 2025

बोलने की भीड़ में सुनने की तन्हाई

हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ हर व्यक्ति अपने शब्दों से दुनिया को भर देना चाहता है। हर कोई चाहता है कि उसकी आवाज़ सबसे ऊँची और सबसे प्रभावी हो। लेकिन इस शोरगुल के बीच जो सबसे ज्यादा गुम हो गया है, वह है सुनने की शक्ति। यह एक गहरी त्रासदी है कि समाज में बोलने वालों की संख्या तो बढ़ रही है, पर सुनने वालों की संख्या घटती जा रही है। संवाद का संतुलन टूट चुका है—बातें होती हैं, लेकिन वे रिश्तों को जोड़ती नहीं; वे विचारों को उजागर करती हैं, लेकिन समझ पैदा नहीं करतीं। यह सुनने की कमी इंसान को भीतर ही भीतर अकेला बना रही है।

सुनना: आत्मा से आत्मा का संवाद

सुनना केवल कानों की क्रिया नहीं है। यह आत्मा से आत्मा का संवाद है। जब हम सच में किसी को सुनते हैं, तो केवल शब्द ही नहीं पकड़ते बल्कि उनके पीछे छिपे दर्द, भावनाओं और अनुभवों को भी महसूस करते हैं। सुनने का यह गुण रिश्तों में विश्वास का आधार है। माता-पिता का अपने बच्चे को ध्यान से सुनना, एक मित्र का अपने मित्र की पीड़ा को समझना या एक नेता का जनता की आवाज़ को गंभीरता से ग्रहण करना—ये सब उदाहरण दिखाते हैं कि सुनना ही वह शक्ति है जो समाज को जीवित और प्राणवान बनाती है। यदि यह शक्ति समाप्त हो जाए तो मनुष्य का जीवन केवल बोलने और टकराने की प्रक्रिया बनकर रह जाएगा।

न सुनने की बीमारी: समाज का मौन संकट

आज का समाज एक ऐसे संकट से जूझ रहा है जो दिखाई नहीं देता, लेकिन महसूस हर कोई करता है। यह संकट है—न सुनने की बीमारी। यह बीमारी रिश्तों को खोखला करती है और मानसिक तनाव को जन्म देती है। जब कोई महसूस करता है कि उसकी बात को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा, तो वह भीतर से टूटने लगता है। धीरे-धीरे यह स्थिति अविश्वास, निराशा और अंततः अकेलेपन का कारण बनती है। परिवारों में टूटन, दोस्तों में दूरी और समाज में असहिष्णुता इसी “न सुनने के सिंड्रोम” के लक्षण हैं। इसने हमें संवेदनहीन बना दिया है और हमारी समझ को संकीर्ण कर दिया है। यह मौन संकट उतना ही खतरनाक है जितना कोई सामाजिक या राजनीतिक संकट, क्योंकि यह इंसान की आत्मा पर चोट करता है।

सुनने से मानसिक शक्ति का निर्माण

सुनना एक मानसिक अभ्यास भी है। जब हम ध्यानपूर्वक सुनते हैं, तो हम धैर्यवान बनते हैं। यह धैर्य ही मानसिक शक्ति की जड़ है। सुनने से हमारे भीतर सहानुभूति और करुणा का विकास होता है। हम दूसरों की भावनाओं को समझ पाते हैं और उनके दृष्टिकोण से चीज़ों को देखने लगते हैं। यही समझ हमें मानसिक रूप से मज़बूत बनाती है। सुनना हमें एक गहरी स्पष्टता देता है, जिससे हम निर्णय लेने में सक्षम होते हैं और कठिन परिस्थितियों में भी संतुलित रहते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो सुनने की कला केवल रिश्तों को सुधारने का साधन नहीं है, बल्कि आत्मविकास और मानसिक दृढ़ता का आधार है।

सक्रिय सुनवाई: एक जीता-जागता अनुभव

सक्रिय सुनवाई यानी एक्टिव लिसनिंग, संवाद का सबसे सुंदर रूप है। इसमें हम केवल कानों से नहीं, बल्कि आँखों, मन और दिल से भी सुनते हैं। जब हम सामने वाले की बातों को गंभीरता से सुनते हैं, तो हम उसकी भावनाओं को स्वीकार करते हैं। प्रतिक्रिया देना, सवाल करना और उसके दर्द को समझना इस प्रक्रिया का हिस्सा है। सक्रिय सुनवाई एक तरह से दूसरे के जीवन में सहभागी बनने की कला है। इससे सामने वाला यह महसूस करता है कि उसकी उपस्थिति और उसकी आवाज़ का मूल्य है। यही अनुभव रिश्तों को गहराई देता है और समाज को मानवीय संवेदना से भर देता है।

डिजिटल युग और सुनने की चुनौती

आज के डिजिटल युग ने सुनने की कला को सबसे ज़्यादा चोट पहुँचाई है। मोबाइल, सोशल मीडिया और लगातार आने वाले संदेशों ने हमारी एकाग्रता को भंग कर दिया है। हर चीज़ को तुरंत पाने की आदत ने हमें अधीर और असहिष्णु बना दिया है। अब कोई इंतज़ार नहीं करना चाहता, कोई दूसरे की पूरी बात सुनना नहीं चाहता। यही अधीरता हमारी मानवीयता को कमजोर कर रही है। इस चुनौती से निपटने के लिए डिजिटल डिटॉक्स आवश्यक है—कुछ समय के लिए तकनीक से दूरी बनाना और अपने भीतर के मौन को सुनना। यह मौन ही हमें सुनने की असली शक्ति लौटाता है।

सुनना ही जीवन का सार है

“हम ही हम हैं तो क्या हम हैं, तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो।” इस वाक्य में गहरी दार्शनिकता छिपी है। जीवन तभी पूर्ण है जब उसमें सुनने की क्षमता है। सुनना केवल संवाद की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि अस्तित्व का आधार है। यह हमें एक-दूसरे से जोड़ता है और स्वयं के भीतर झांकने की शक्ति देता है। जब हम सुनते हैं, तो न केवल सामने वाले को सम्मान देते हैं, बल्कि अपने विचारों और संवेदनाओं को भी विस्तार देते हैं। यही कला जीवन को अर्थपूर्ण और सुंदर बनाती है। सच यही है कि बोलना केवल अभिव्यक्ति है, लेकिन सुनना ही असली इंसानियत है। और जब तक हम सुनना नहीं सीखेंगे, तब तक हमारी मानवता अधूरी रहेगी।

 

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