नई दिल्ली 7 सितंबर 2025
भारत की न्यायपालिका में लैंगिक असमानता एक गंभीर सवाल बनकर सामने आई है। 1950 से अब तक सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ 11 महिला जज नियुक्त हुई हैं, जबकि अदालत का इतिहास 75 साल से ज्यादा पुराना है। मौजूदा समय में भी देश की सबसे बड़ी अदालत में केवल एक ही महिला न्यायाधीश कार्यरत हैं। सवाल उठता है कि क्या यह “योग्यता का मिथक” है या फिर प्रणालीगत खामी, जो महिलाओं को न्यायपालिका के शीर्ष तक पहुंचने से रोक रही है।
हाई कोर्ट में और भी खराब हालात
देशभर के 25 हाई कोर्ट में महिला जजों की हिस्सेदारी महज 14 प्रतिशत के आसपास है। कई हाई कोर्ट में सिर्फ एक महिला जज हैं और कुछ अदालतों में तो महिला न्यायाधीशों की संख्या शून्य है। यह स्थिति लोकतांत्रिक संस्थाओं में समान प्रतिनिधित्व के दावे पर बड़ा सवालिया निशान खड़ा करती है।
वजहें और चुनौतियाँ
- नियुक्तियों में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी महिलाओं की हिस्सेदारी को प्रभावित करती है।
- महिला वकीलों का करियर पारिवारिक जिम्मेदारियों और लंबे अभ्यास की शर्तों के चलते बाधित हो जाता है।
- अदालत परिसरों में महिला-अनुकूल बुनियादी सुविधाओं का अभाव भी बड़ी चुनौती है।
न्यायपालिका के भीतर से उठती आवाज
पूर्व जज इंदिरा बनर्जी ने साफ कहा था कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में महिलाओं की संख्या “घोर रूप से अपर्याप्त” है। वहीं, जस्टिस बी.वी. नगरथना ने कहा कि महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से न्याय प्रणाली अधिक “समावेशी और उत्तरदायी” बन सकती है।
बराबरी क्यों जरूरी है?
न्यायपालिका में महिला प्रतिनिधित्व सिर्फ संख्या का सवाल नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र में भागीदारी, समाज के हर तबके की आवाज और न्यायपालिका की विश्वसनीयता का मुद्दा है। जब अदालतों में विविध नजरिये शामिल होंगे तभी फैसले ज्यादा व्यापक, संवेदनशील और समाज के लिए उपयोगी होंगे।
आगे का रास्ता
- नियुक्ति प्रणाली में पारदर्शिता और सकारात्मक कार्रवाई की जरूरत।
- अदालतों में महिला जजों के लिए सहूलियतें और सुरक्षित कार्य वातावरण।
- योग्य महिला वकीलों को उच्च न्यायपालिका तक पहुंचाने के लिए संस्थागत समर्थन।
यह समय है कि अदालतें अपने भीतर झांकें और लैंगिक समानता को प्राथमिकता दें। क्योंकि न्याय सिर्फ निष्पक्ष ही नहीं, समावेशी भी होना चाहिए।