नई दिल्ली / पटना
मोदी सरकार की चुप्पी और बहुजन समाज का आक्रोश
मोदी सरकार पर कांग्रेस नेताओं का सबसे बड़ा आरोप यही है कि उसने पिछले 11 साल में बहुजन समाज और वंचित वर्ग के शिक्षा अधिकार को पूरी तरह नजरअंदाज किया। निजी कॉलेज और विश्वविद्यालयों की संख्या लगातार बढ़ती रही, लेकिन वहां SC/ST और OBC वर्ग के छात्रों के लिए आरक्षण लागू नहीं किया गया। यह केवल एक प्रशासनिक विफलता नहीं है बल्कि राजनीतिक उदासीनता का साफ संकेत है। बिहार जैसे राज्य में, जहां हर परिवार शिक्षा को ही अपने भविष्य की कुंजी मानता है, यह मुद्दा सीधे भावनाओं को झकझोरता है। समाज में यह संदेश जाता है कि सरकार केवल बड़े पूंजीपतियों और निजी शिक्षा माफियाओं के हितों के लिए काम कर रही है, जबकि बहुजन समाज को जानबूझकर बाहर रखा गया है। यही आक्रोश आने वाले चुनाव में राजनीतिक रूप से विस्फोटक मुद्दा साबित हो सकता है।
बिहार की जातिगत बिसात और सामाजिक न्याय का समीकरण
बिहार की जातिगत शक्ति समीकरण
- OBC (यादव + कुर्मी + कुशवाहा आदि): ~36%
- EBC (अति पिछड़े): ~18–20%
- SC (दलित/महादलित): ~16%
- ST (आदिवासी/जनजातीय): ~1–2%
- सवर्ण (ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कायस्थ): ~12–13%
- मुस्लिम: ~16–17%
बिहार की राजनीति हमेशा जातिगत बिसात पर तय होती रही है। यहां OBC वर्ग (लगभग 36%), EBC यानी अति पिछड़े (18–20%), SC दलित/महादलित (16%) और ST जनजातीय वर्ग (1–2%) मिलाकर कुल वोट बैंक का लगभग 70% हिस्सा बनाते हैं। दूसरी ओर मुस्लिम वोट लगभग 16–17% और सवर्ण जातियां लगभग 12–13% हैं। ऐसे में “निजी शिक्षा में बहुजन समाज का हाशियाकरण” केवल एक नीति विफलता का सवाल नहीं बल्कि सीधा उसी 70% आबादी का सवाल है, जो बिहार की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाती है। महागठबंधन की रणनीति साफ है—अगर यह मुद्दा समाजिक न्याय और मंडल आयोग की अधूरी उपलब्धियों से जोड़ा गया तो यूपी-बिहार की राजनीति में नए सामाजिक न्याय आंदोलन का मंच तैयार हो सकता है। यहां साफ है कि जिस मुद्दे को कांग्रेस उठा रही है, उसका सीधा असर 60% से ज्यादा आबादी पर पड़ सकता है।
पिछला चुनाव और वोट प्रतिशत की तंग लड़ाई
2020 चुनाव का वोट प्रतिशत (Bihar Assembly Election)
- NDA (BJP + JDU + HAM + VIP): ~37.3% वोट, 125 सीटें
- महागठबंधन (RJD + Congress + Left): ~37.0% वोट, 110 सीटें
- अन्य (LJP, AIMIM, BSP, Independents): ~25% वोट
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में यह साफ हो गया था कि राज्य में मुकाबला बहुत करीबी है। उस समय NDA (BJP+JDU+HAM+VIP) को करीब 37.3% वोट मिले और उन्होंने 125 सीटें जीतीं। दूसरी तरफ महागठबंधन (RJD+Congress+Left) को लगभग 37% वोट मिले और उन्हें 110 सीटों पर जीत मिली। यानी मतों का अंतर केवल 0.3% रहा। इसका सीधा मतलब है कि अगर सिर्फ 2–3% वोट बहुजन समाज की तरफ से शिफ्ट हो जाएं, तो 20–25 सीटों के नतीजे बदल सकते हैं। यह बिहार के चुनावी गणित का सबसे अहम संकेत है कि कोई भी मुद्दा, जो OBC, दलित या महादलित वोटरों तक गहराई से पहुंच जाए, वह परिणाम का पासा पलट सकता है। कांग्रेस इस बार ठीक उसी संवेदनशील बिंदु पर वार कर रही है। यानी NDA और महागठबंधन के बीच वोट अंतर बहुत ही कम था। यही कारण है कि अगर 2–3% भी बहुजन वोटों का मूड बदलता है, तो यह सीधे 20–25 सीटों का फर्क डाल सकता है
कांग्रेस की रणनीति और संभावित चुनावी असर
कांग्रेस इस आक्रामक मुहिम से खुद को केवल RJD की सहायक पार्टी नहीं बल्कि “सामाजिक न्याय की असली आवाज़” पेश करने की कोशिश कर रही है। निजी कॉलेजों में आरक्षण लागू न होने का मामला शिक्षित और बेरोजगार युवा वर्ग को भी झकझोरता है। यह वही वर्ग है जो NDA की नीतियों से नाराज होकर 2015 में महागठबंधन के पक्ष में एकजुट हुआ था। अगर कांग्रेस इस विषय पर बड़ा नैरेटिव गढ़ने में सफल होती है, तो उसका असर NDA की आधारभूत ताकत—EBC और गैर-यादव OBC वर्ग—पर पड़ सकता है। अनुमान है कि यह कैंपेन महागठबंधन के पक्ष में कम से कम 20–25 सीटों पर निर्णायक असर डाल सकता है, खासकर उत्तर बिहार, मिथिलांचल और मगध क्षेत्र में, जहां निजी शिक्षा संस्थान ज्यादा हैं और बेरोजगारी लोगों की बड़ी पीड़ा है।
भाजपा के लिए चेतावनी और मंडल बनाम मंदिर की वापसी
भाजपा की राजनीति हमेशा “हिंदुत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा” के मुद्दों पर केन्द्रित रही है। लेकिन बिहार में यह विमर्श लंबे समय तक “मंडल बनाम मंदिर” की लड़ाई से तय होता आया है। पिछले कुछ सालों में भाजपा को सबसे ज्यादा फायदा EBC और गैर-यादव OBC वोटरों से हुआ है। मगर कांग्रेस आक्रामक ढंग से अगर “निजी शिक्षा में आरक्षण लागू करने की विफलता” और “OBC वर्ग के साथ छल” वाला नैरेटिव तैयार करती है, तो यह उसी वोट बैंक को झकझोर देगा, जो NDA की जीत की सबसे बड़ी गारंटी रहता आया है। इस बार भाजपा को चुनौती केवल विपक्ष से नहीं, बल्कि मंडल बनाम मंदिर के पुराने संघर्ष से मिल सकती है, जहां सामाजिक न्याय फिर से केंद्र में लौट सकता है।
क्या बिहार में बदलेगा समीकरण?
यह सवाल अब और टलने वाला नहीं है। 11 साल की चुप्पी, बहुजन छात्रों के साथ अन्याय और आरक्षण लागू करने की विफलता यदि चुनावी विमर्श का मुख्य सवाल बन गया, तो बिहार का समीकरण वास्तव में बदल सकता है। कांग्रेस को यही अवसर मिला है कि वह आंदोलन को सोशल मीडिया से लेकर गांव-देहात तक फैला दे। महागठबंधन के लिए यह “गोल्डन इश्यू” साबित हो सकता है, क्योंकि यह सिर्फ एक वादे की बात नहीं बल्कि बहुजन समाज के जीवन से जमीनी तौर पर जुड़ा मुद्दा है। बिहार की राजनीति यह दिखा चुकी है कि जब बहुजन समाज की आवाज़ उठती है, तो सत्ता के तख़्त तक हिल जाते हैं।