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बिहार का बदलता मिज़ाज: चुनावी जंग का नया रंग

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लेखक : प्रो. शिवाजी सरकार, राजनीतिक विशेषज्ञ | नई दिल्ली 4 सितम्बर 2025

राजनीति के मैदान में बदलता संतुलन

बिहार की राजनीति हमेशा से अपने अप्रत्याशित मोड़ों और गठबंधनों के लिए जानी जाती रही है। आज जब राज्य एक नई चुनावी लड़ाई में उतर रहा है, तो यह स्पष्ट है कि इस बार कहानी केवल विकास बनाम भ्रष्टाचार की नहीं है, बल्कि “जनता के अधिकार” बनाम “सत्ता का दबदबा” की है। महागठबंधन (राजद, कांग्रेस और सहयोगी दल) ने बीजेपी-जेडीयू के मजबूत गढ़ को चुनौती देने का मन बना लिया है। इस चुनौती की बुनियाद कोई आकस्मिक मुद्दा नहीं, बल्कि सत्ता के प्रति जनता में पनप रही नाराज़गी और विपक्ष का जमीनी स्तर पर सक्रिय होना है।

वोटर अधिकार यात्रा की हलचल

राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की संयुक्त “वोटर अधिकार यात्रा” ने चुनावी हवा को झकझोर दिया है। सासाराम की ऐतिहासिक भूमि से आरंभ हुई इस यात्रा ने अब आंदोलन का रूप ले लिया है। 1300 किलोमीटर की दूरी, 25 जिलों से गुज़रना और 110 विधानसभा क्षेत्रों तक पहुंच बनाना महज़ एक राजनीतिक रैली नहीं, बल्कि जनता को सीधा संदेश देने का प्रयास है कि “वोट की चोरी अब सहन नहीं होगी”। जब सत्ता पक्ष की सभाएँ खाली कुर्सियों से जूझती दिखें और विपक्षी कार्यक्रमों में जनता बिना बुलाए पहुँच जाए, तो यह संकेत है कि राजनीति की धारा दिशा बदल रही है।

सत्ता पक्ष पर दबाव और विपक्ष की बढ़त

इस यात्रा का असर इतना गहरा पड़ा है कि जहाँ महागठबंधन खुद प्रचार कर रहा है, उससे कहीं अधिक चर्चा खुद भाजपा-जेडीयू के हमलों की वजह से हो रही है। व्यंग्य, आलोचना और गाली-गलौज से सत्ता पक्ष विपक्ष को कमजोर करने का प्रयास करता है, लेकिन आंदोलन की प्रकृति यही है कि विरोध भी उसे शक्ति देता है। इस तरह महागठबंधन का संदेश और ज़्यादा जनता तक पहुँच रहा है।

चुनाव आयोग और मतदाता सूची का विवाद

बिहार की चुनावी राजनीति में नया विवाद Special Intensive Revision (SIR) से जुड़ा है। आरोप है कि 8 करोड़ मतदाताओं में से 65 लाख नाम गायब कर दिए गए। ऊपर से मतदाता सूची में हास्यास्पद गलतियाँ भी सामने आईं—किसी मतदाता का पिता 56 अन्य वोटरों का “कॉमन पिता”, किसी महिला के पति का नाम “हज़बैंड हज़बैंड”, तो किसी की मां का नाम “चुनाव आयोग”! अदालत की फटकार ने इस मामले को और गंभीर बना दिया है। जनता को एहसास हो चुका है कि वोटर लिस्ट की गड़बड़ियाँ सीधे-सीधे लोकतंत्र को कमजोर करती हैं, और इस बार वह सतर्क है।

विपक्ष का आत्मविश्वास और बाहरी सहयोग

महागठबंधन की सबसे बड़ी पूंजी अब उसका बढ़ता आत्मविश्वास है। राहुल गांधी की साख, जो लंबे समय तक सवालों के घेरे में थी, अब जनसंपर्क के जरिये बेहतर होती दिख रही है। तेजस्वी यादव पर शुरुआत में कई लोगों को संदेह था, लेकिन उनकी स्वाभाविक शैली और ज़मीनी जुड़ाव ने उन्हें एक विविध विकल्प के रूप में पेश किया है। इस यात्रा में अखिलेश यादव, हेमंत सोरेन और एमके स्टालिन जैसे नेताओं का शामिल होना महागठबंधन की राष्ट्रीय प्रासंगिकता को और ऊँचा उठाता है। संदेश साफ है—सत्ता को चुनौती अकेले नहीं, बल्कि साझा ताकत से ही दी जा सकती है।

नए दावेदारों की भूमिका

हालाँकि बिहार की राजनीतिक तस्वीर फिलहाल साफ़ नहीं है। सीट बंटवारे जैसे मुद्दों पर तनाव उभर सकता है। चिराग पासवान हर सीट पर उतरने की तैयारी में हैं और प्रशांत किशोर अपने अभियान के जरिए दावा कर रहे हैं कि वे ही अगली सरकार बनाएँगे। वास्तविकता में ये दोनों फिलहाल “किंगमेकर” से ज्यादा “वोट-काटने वाले खिलाड़ी” लगते हैं, जिनकी वजह से असली संघर्ष अधिक टकरावपूर्ण होगा।

सत्ता पक्ष की कमज़ोरी और ताक़त

जेडीयू की साख पिछले चुनावों की तुलना में काफी कमजोर दिख रही है। पार्टी के भीतर असंतुष्टि और जनता में नाराज़गी साफ झलकती है। भाजपा, भले ही विपक्षी लहर से परेशान है, लेकिन उसके पास कैडर की ताक़त है। बूथ स्तर पर सक्रिय और मजबूत संगठन संरचना भाजपा को किसी भी मुश्किल में जीत की वैकल्पिक रणनीति देती है। यही वजह है कि विपक्ष की लोकप्रियता के बावजूद भाजपा अपने आत्मविश्वास को बनाए हुए है।

जनता की बेचैनी और उम्मीदें

बिहार सबसे अधिक युवा पलायन वाला राज्य है। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा जैसे मुद्दे लंबे समय से अधूरे वादों में फंसे रहे हैं। विपक्ष की यात्राएँ केवल राजनीति नहीं, बल्कि यही संदेश देती हैं कि जनता को सत्ता की जवाबदेही चाहिए। लोग उम्मीद कर रहे हैं कि इस बार उनका वोट मजबूरी नहीं, बल्कि बदलाव का माध्यम बने। वह बदलाव हो पाएगा या नहीं, यह आने वाले चुनावी नतीजे पर निर्भर करेगा।

सत्ता परिवर्तन या राजनीतिक शोर?

बिहार की राजनीति फिलहाल उबाल पर है। महागठबंधन अपनी सक्रियता और जनसंपर्क से आगे बढ़ रहा है, जबकि सत्ता पक्ष संगठन और रणनीति पर भरोसा कर रहा है। चुनाव अभी दो महीने दूर हैं, लेकिन माहौल तय हो चुका है। जनता जाग रही है, सवाल पूछ रही है और जवाब भी चाहती है। यह जागरण क्या सत्ता परिवर्तन की ओर ले जाएगा या फिर केवल राजनीतिक हलचल बनकर रह जाएगा—यह देखने का इंतज़ार सभी को है।

 

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