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राहुल गांधी की वोट अधिकार यात्रा: बिहार की जंग से उठता राष्ट्रीय भूचाल

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पटना / नई दिल्ली 25 अगस्त 2025

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी परीक्षा बन चुका है। यह केवल अगले पाँच वर्षों के लिए एक राज्य की सत्ता का सवाल नहीं है, बल्कि पूरे देश की लोकतांत्रिक दिशा को तय करने वाला निर्णायक मोड़ माना जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाला एनडीए अपने पूरे चुनावी अभियान को विकास, हिंदुत्व और स्थिरता पर टिका रहा है, लेकिन इसके ठीक उलट विपक्षी महागठबंधन ने बेरोज़गारी, महंगाई और लोकतांत्रिक संस्थाओं की साख जैसे ज़मीनी मुद्दों को केंद्र में रखकर एक व्यापक चुनौती खड़ी कर दी है। चुनावी परिदृश्य में इस बार जो सबसे बड़ा फर्क दिख रहा है, वह कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी की आक्रामक रणनीति है। ‘वोट अधिकार यात्रा’ के ज़रिए राहुल गांधी ने पूरे अभियान को एक नई धार दी है और आज स्थिति यह है कि बिहार की इस जंग को विशुद्ध रूप से ‘तेजस्वी का चेहरा + राहुल का नैरेटिव’ कहा जा रहा है।

कांग्रेस की यह सक्रियता अपने आप में चौंकाने वाली है। दशकों से बिहार में वह लालू यादव और नीतीश कुमार की राजनीति के बीच दबकर अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ती रही थी। एक समय तो यह भी कहा जाने लगा कि बिहार से कांग्रेस का राजनीतिक सफाया हो चुका है। लेकिन 2025 का चुनाव इस तस्वीर को बदलता दिख रहा है। संगठन को कसने के लिए प्रभारी कृष्णा अल्लावरु, दलित-महादलित वोटों को साधने के लिए प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम और युवाओं-छात्रों को संगठित करने के लिए कन्हैया कुमार – इस ‘नई कांग्रेस तिकड़ी’ ने पार्टी को हाशिये से उठाकर केंद्र में ला खड़ा किया। बूथ स्तर तक संगठन की पकड़, दलित वर्ग में पैठ और युवाओं को अपने पक्ष में लाने की इस तिकड़ी की मेहनत ने साबित कर दिया कि महागठबंधन को धार देने वाली असली ताकत अब केवल आरजेडी नहीं, बल्कि कांग्रेस भी है।

‘वोट अधिकार यात्रा’ ने बिहार की राजनीति में मानो बिजली-सी गिरा दी हो। जब राहुल गांधी ने इस यात्रा की शुरुआत की थी, तब भाजपा इसे महज “राजनीतिक ड्रामा” कहकर दरकिनार कर रही थी। लेकिन जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ी, हर गाँव-शहर में उमड़ती भीड़ ने सत्तापक्ष की नींदें उड़ा दीं। राहुल गांधी ने अपने सीधे और आक्रामक भाषणों में लगातार यह संदेश दिया कि यह चुनाव सत्ता पर काबिज़ होने के लिए नहीं, बल्कि लोकतंत्र और वोट के अधिकार को बचाने की लड़ाई है। उन्होंने बेरोज़गारी और महंगाई को पूरे नैरेटिव का केंद्र बनाया और बार-बार याद दिलाया कि युवाओं के पास रोजगार नहीं, महिलाओं पर महंगाई का बोझ बढ़ता जा रहा है और किसानों की हालत बदहाल है। खास बात यह रही कि इस यात्रा में सोशल मीडिया की ताकत और ज़मीनी संवाद का संगम देखने को मिला। युवाओं और छात्रों की भारी भागीदारी ने इसे केवल एक राजनीतिक प्रचार नहीं रहने दिया, बल्कि एक जनआंदोलन का रूप दिया।

तेजस्वी यादव इस बार भी महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के निर्विवाद चेहरा हैं। पिछली बार के चुनावों में उन्होंने यह साबित किया था कि वे भाजपा और नीतीश कुमार के खिलाफ सबसे मजबूत विकल्प हैं। लेकिन 2025 के इस चुनाव में समीकरण कुछ अलग है। राहुल गांधी इस बार सिर्फ़ पर्दे के पीछे की भूमिका में नहीं हैं, बल्कि पूरे अभियान का ‘ड्राइविंग नैरेटिव’ तय कर रहे हैं। तेजस्वी जहां स्थानीय मुद्दों—रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार—पर जनता से सीधे संवाद बना रहे हैं, वहीं राहुल गांधी मोदी सरकार को राष्ट्रीय स्तर पर कठघरे में खड़ा कर महागठबंधन को भावनात्मक और वैचारिक ऊर्जा मुहैया करा रहे हैं। यही वजह है कि अब बड़े विश्लेषक कह रहे हैं – “तेजस्वी चेहरा हैं, लेकिन चुनावी नैया की पतवार राहुल के हाथ में है।”

महागठबंधन की रणनीति मोदी सरकार पर लगातार हमले करने की रही है। राहुल गांधी बेरोज़गारी पर कहते हैं कि मोदी सरकार ने युवाओं को सिर्फ़ जुमले दिए हैं, नौकरियाँ नहीं। महंगाई पर कांग्रेस व आरजेडी मिलकर हमला करते हैं कि आम आदमी की थाली से दाल-रोटी गायब हो रही है, जबकि भाजपा पूंजीपतियों के लिए सोने की थाली सजा रही है। सबसे तीखा हमला लोकतंत्र के सवाल पर बोला जा रहा है। राहुल गांधी चुनाव आयोग की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता पर बार-बार सवाल उठाकर इसे “वोट चोरी” और “जनता की आवाज़ दबाने” का मुद्दा बना चुके हैं। विपक्ष के इस आक्रामक तेवर ने भाजपा को कठिन स्थिति में डाल दिया है, क्योंकि अब उसे केवल अपने विकास कार्यों का बचाव नहीं करना, बल्कि लोकतंत्र पर हमले जैसे गहरे आरोपों का जवाब भी देना पड़ रहा है।

यात्रा का सबसे अहम पहलू जनता की भारी भागीदारी है। लंबे समय बाद विपक्ष की किसी रैली या यात्रा में महिलाओं, युवाओं और किसानों की इतनी बड़ी भागीदारी देखी जा रही है। बेरोज़गार नौजवान नौकरी की खोज में भटकने से आहत हैं और इस आंदोलन में उन्हें अपनी निराशा को आवाज़ देने का मंच मिला है। महिलाएँ महंगाई और असुरक्षा से परेशान होकर यात्रा से जुड़ रही हैं, वहीं किसान अपनी पीड़ा को लेकर सड़कों पर उतर आए हैं। राहुल गांधी का हर पड़ाव मानो एक नया जनसैलाब पैदा कर देता है। इससे एक नई राजनीतिक चेतना का संचार हुआ है, जो महज चुनाव तक सीमित नहीं बल्कि लोकतंत्र को लेकर जनता के भीतर गहराते असंतोष का प्रतीक है।

अब तस्वीर साफ़ हो गई है कि बिहार चुनाव किसी एक प्रदेश तक सीमित नहीं रहा, यह राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने वाला बड़ा रण बन चुका है। एक तरफ नरेंद्र मोदी गरीब-समर्थक और स्थिर शासन का दावा करते हैं तो दूसरी तरफ राहुल गांधी अपने अभियान को ‘जनता बनाम सत्ता’ की जंग बताते हैं। विदेशी मीडिया तक इस यात्रा को कवर कर रहा है और इसे “भारत का नया जनआंदोलन” कहकर प्रस्तुत कर रहा है। यह राहुल गांधी को अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक नए कद के नेता के रूप में भी उभार रहा है।

सबसे बड़ा असर राहुल गांधी की बदली हुई छवि के रूप में दिख रहा है। भाजपा ने वर्षों तक उन्हें “कमज़ोर” और “अनुभवहीन” नेता बताने की कोशिश की थी, लेकिन वोट अधिकार यात्रा ने वह दीवार तोड़ दी है। अब वे एक आक्रामक, जमीनी और मुद्दों पर सटीक आवाज़ उठाने वाले नेता के रूप में सामने आए हैं। उनके भाषणों में भावुक अपील भी है और तर्क की धार भी। यही कारण है कि बड़ी संख्या में लोग उनसे जुड़ रहे हैं। यही तस्वीर यह साफ़ करती है कि बिहार की यह लड़ाई अब महज़ विधानसभा चुनाव तक सीमित नहीं है—यह सीधे तौर पर राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय मुकाबला बन चुकी है, जिसका असर आने वाले लोकसभा चुनावों पर भी गहराई से पड़ेगा।

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