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भारत में संस्कृति और राजनीति: चुनावी अभियानों में सांस्कृतिक प्रतीकों की शक्ति

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लेखक : निपुणिका शाहिद, असिस्टेंट प्रोफेसर, मीडिया स्ट्डीज, स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज, क्राइस्ट यूनिवर्सिटी दिल्ली NCR 

नई दिल्ली 25 अगस्त 2025

भारत, जो अपनी बहुलता, विविधता और पुरातन परंपराओं के लिए विश्वभर में विशिष्ट पहचान रखता है, वहाँ राजनीति और संस्कृति का रिश्ता हमेशा से एक-दूसरे के पूरक की तरह रहा है। हमारे यहाँ मतदान कभी केवल घोषणापत्रों, नीतियों या विकास के आंकड़ों तक सीमित नहीं रहा; बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक स्मृतियों, धार्मिक प्रतीकों, त्योहारों और ऐतिहासिक नायकों से गहराई से जुड़ा रहा है। बदलते समय के साथ यह रिश्ता और भी सघन हो गया है। आज की राजनीति में संस्कृति और परंपराएँ “सॉफ्ट पावर” के रूप में सामने आ रही हैं, जो न केवल जनमानस को प्रभावित करती हैं, बल्कि पूरे चुनावी विमर्श का स्वर तय करती हैं।

सांस्कृतिक प्रतीकों का राजनीतिक अर्थशास्त्र

भारतीय राजनीति में सांस्कृतिक प्रतीक हमेशा निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। आज़ादी के दौर में गांधीजी का चरखा और खादी न केवल आत्मनिर्भरता के प्रतीक बने, बल्कि वे राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रमुख राजनीतिक हथियार भी बन गए। 1990 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन और उसके बाद अयोध्या में राम मंदिर का सवाल सीधे सत्ता परिवर्तन का कारण बना। हाल ही में जनवरी 2024 में राम मंदिर का उद्घाटन केवल धार्मिक आयोजन नहीं था, बल्कि भारतीय राजनीति में एक गहरा सांस्कृतिक मोड़ भी बनकर सामने आया। लोकनीति-सीएसडीएस के 2024 सर्वे में 52% मतदाताओं ने साफ तौर पर माना कि राम मंदिर आंदोलन ने उनकी राजनीतिक सोच और वोटिंग पैटर्न को प्रभावित किया। वहीं सरदार पटेल की “स्टैच्यू ऑफ यूनिटी” जैसे प्रतीकात्मक ढांचे राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक गौरव की राजनीति के आधुनिक उदाहरण हैं।

सिर्फ बड़े प्रतीक ही नहीं, बल्कि क्षेत्रीय त्योहार और धार्मिक रीति-रिवाज भी चुनावी रणनीतियों में अहम जगह रखते हैं। बिहार-उत्तर प्रदेश में छठ पूजा, महाराष्ट्र में गणेशोत्सव और बंगाल में दुर्गा पूजा जैसे त्यौहारों के दौरान राजनीतिक दल अपनी उपस्थिति और शक्ति प्रदर्शन करना कभी नहीं भूलते। इन उत्सवों के मंच पर सांसदों, विधायकों और नेताओं की सक्रियता केवल धार्मिक आस्था ही नहीं दर्शाती, बल्कि यह सांस्कृतिक पूंजी को राजनीतिक ताकत में बदलने का माध्यम बन जाती है।

डेटा बता रहे हैं तस्वीर

सांस्कृतिक प्रतीकों का असर केवल भावनाओं तक सीमित नहीं। 2024 लोकसभा चुनाव के बाद किए गए सर्वेक्षण स्पष्ट संकेत देते हैं कि सांस्कृतिक पहचान भारतीय राजनीति में वोटिंग का निर्णायक पहलू बन चुकी है। CSDS- लोकनीति के मुताबिक़, 61% हिंदू मतदाता मानते हैं कि सांस्कृतिक पहचान उनके वोटिंग निर्णय में एक बड़ा कारक रही, वहीं 47% मुस्लिम मतदाता खुले तौर पर यह मानते हैं कि उनकी राजनीतिक प्राथमिकताएँ सांस्कृतिक-अस्मिता से प्रभावित होती हैं। ग्रामीण इलाके शहरी क्षेत्रों की तुलना में सांस्कृतिक आधार पर ज्यादा प्रभावित नजर आए — जहाँ 58% ग्रामीण मतदाता सांस्कृतिक/धार्मिक पहचान को मतदान से जोड़ते हैं, वहीं शहरी इलाकों में यह प्रतिशत 36% है।

सोशल मीडिया के आंकड़े और भी दिलचस्प तस्वीर पेश करते हैं। 2023-24 के चुनावी सीज़न में #RamMandir, #SanatanCulture और #BharatiyaParampara जैसे हैशटैग ट्विटर (X) और मेटा प्लेटफ़ॉर्म्स पर सबसे ज्यादा ट्रेंड हुए। YouTube और WhatsApp पर धार्मिक-सांस्कृतिक वीडियो चुनावी प्रचार का सबसे शक्तिशाली माध्यम बन गए। यह बदलाव दिखाता है कि डिजिटल लोकतंत्र के ज़माने में राजनीतिक दल सिर्फ सभाओं में नारों और मंचीय भाषणों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि सांस्कृतिक भावनाओं को वायरल कर वोटों में बदलने की दक्षता हासिल कर चुके हैं।

सांस्कृतिक पूंजी: सामाजिक मनोविज्ञान से सत्ता तक

समाजशास्त्री पियरे बुरदियू की “सांस्कृतिक पूंजी” की अवधारणा भारतीय राजनीति को समझने में बेहद उपयोगी है। भारत जैसे विविधता-प्रधान देश में राजनीतिक दल समझ चुके हैं कि केवल आर्थिक या नीतिगत वादे काफी नहीं। उन्हें समाज की स्मृतियों में बसी सांस्कृतिक पूंजी को राजनीतिक लाभ में बदलना होगा। यही कारण है कि हिंदी पट्टी में चुनावी भाषणों में कबीर और तुलसी के दोहे सुनाई देते हैं, जबकि बिहार-पूर्वी उत्तर प्रदेश की रैलियों में भोजपुरी-अवधी लोकगीत माहौल को भावनात्मक बना देते हैं। राजनीति केवल घोषणापत्र नहीं, बल्कि लोककथा, गीत, नाटक, मंदिरों और पर्वों की स्मृतियों में जीवंत रहती है।

इसी सांस्कृतिक पूंजी का विस्तार खेल और सिनेमा में भी दिखता है। क्रिकेट और बॉलीवुड सितारों की उपस्थिति चुनावी प्रचार में केवल मनोरंजन का पुट नहीं देती, बल्कि यह जनता के साथ सांस्कृतिक पहचान के भावनात्मक सेतु का निर्माण करती है। यह सब मिलकर राजनीति को बहुआयामी और भावनात्मक रूप से अधिक असरदार बनाते हैं।

आलोचना: संस्कृति बनाम मुद्दे

हालांकि राजनीति और संस्कृति का यह घनिष्ठ मेल भारतीय लोकतंत्र को लोकप्रिय और जनसंवेदनशील बनाता है, पर इसके खतरे भी उतने ही गहरे हैं। संस्कृति के राजनीतिकरण का अर्थ अक्सर अल्पसंख्यक समुदायों की अस्मिता को दरकिनार करना बन जाता है। जब पूरा विमर्श मंदिर-मस्जिद या त्योहार के इर्द-गिर्द घूमने लगे, तो बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक असमानता जैसे मुद्दे चुनावी बहसों के हाशिये पर चले जाते हैं।

चुनाव आयोग की 2023 की रिपोर्ट भी बताती है कि 32% चुनावी विज्ञापन सीधे सांस्कृतिक-धार्मिक अपील पर आधारित थे। ऐसे विज्ञापन कई बार आचार संहिता का उल्लंघन करते हैं। यह लोकतंत्र के लिए चेतावनी है कि सांस्कृतिक पहचान की राजनीति कहीं वास्तविक नीतिगत बातचीत और सुधार की जगह न ले ले।

निष्कर्ष: संस्कृति संवेदना है, रणनीति भी

भारतीय राजनीति और संस्कृति का रिश्ता केवल परंपरा का हिस्सा भर नहीं है, बल्कि यह आज रणनीति और शक्ति का संसाधन बन चुका है। डिजिटल युग ने इस रिश्ते को और गहरा कर दिया है, जहाँ एक ट्वीट, हैशटैग या वायरल वीडियो लाखों मतदाताओं तक पहुँचकर उनकी राजनीतिक सोच को प्रभावित कर सकता है। पर यह भी उतना ही जरूरी है कि संस्कृति का राजनीतिकरण समाज में विभाजन और असंतुलन उत्पन्न न करे।

भविष्य की भारतीय राजनीति केवल घोषणापत्र या विकास योजनाओं से तय नहीं होगी। वह इस बात से तय होगी कि कौन-सा दल, किस तरह संस्कृति, परंपरा और आधुनिक राजनीति का मेल साधकर जनता की भावनाओं को सबसे प्रभावी तौर पर झकझोर पाता है। यही मेल भारत के लोकतंत्र को भविष्य की दिशा देगा—या तो यह अधिक गहरा और समावेशी होगा, या फिर भावनात्मक लेकिन विभाजनकारी।

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