नई दिल्ली । 31 जुलाई 2025
साल 2015 में जब ज़्यादातर फिल्में चीख-चीखकर अपने किरदारों की बातें दर्शकों तक पहुंचाने में लगी थीं, तब एक ऐसी फिल्म आई जो धीरे से आई, चुपचाप हमारे भीतर उतर गई और वहां हमेशा के लिए घर कर गई। उस फिल्म का नाम था ‘मसान’। बनारस की गलियों, घाटों और उन अधजली चिताओं के बीच गूंथी गई यह कहानी भारतीय समाज की सबसे पुरानी बीमारियों – जातिवाद, लैंगिक पक्षपात, सामाजिक शर्म और व्यवस्था की हिंसा – पर एक ऐसा करारा तमाचा थी, जो बिना शोर मचाए भी साफ सुनाई दिया।
नीरज घेवन द्वारा निर्देशित यह फिल्म अपनी सादगी, संवेदनशीलता और सच्चाई की वजह से इतनी गहराई तक उतरती है कि आप इससे बच नहीं सकते। ‘मसान’ उन फिल्मों में से है जो खत्म होने के बाद शुरू होती है – आपके भीतर। ऋचा चड्ढा की देवी, जो एक युवा लड़की के तौर पर प्रेम करती है और समाज के दोगले चरित्र से शर्मिंदा की जाती है, और विक्की कौशल का दीपक, जो अपने प्यार को खोकर भी खुद को तलाशने की कोशिश करता है – ये दोनों किरदार हमारे उस भारत की तस्वीर हैं जिसे ‘आधुनिक’ तो कहा जाता है, लेकिन जिसकी सोच आज भी सदियों पुरानी बंदिशों में कैद है।
फिल्म न तो कोई नारा लगाती है और न ही कोई भाषण देती है, लेकिन उसकी हर एक सांस, हर एक सीन एक क्रांति की तरह काम करता है। दीपक का वो डायलॉग – “तुम्हारी ज़िंदगी से आग और पानी कब जाएगा?” – सिर्फ स्क्रीन पर बोला गया एक वाक्य नहीं था, बल्कि हर उस आदमी का सवाल था जो सामाजिक व्यवस्था की भट्टी में जल रहा है। फिल्म की चुप्पी ने दर्शकों के भीतर वो आवाज़ पैदा की, जो शायद किसी उपदेश में नहीं हो सकती थी।
‘मसान’ ने विक्की कौशल को एक अभिनेता के रूप में दुनिया के सामने लाया और यह साबित कर दिया कि सिनेमा सिर्फ स्टारडम या ग्लैमर नहीं, बल्कि इंसानियत का आईना भी हो सकता है। फिल्म को इंटरनेशनल अवॉर्ड्स भी मिले और भारत में क्रिटिक्स और दर्शकों का प्यार भी। लेकिन असली सफलता इसकी उस चुप्पी में है जो आज भी लाखों दर्शकों के दिल में गूंज रही है।
आज जब इस फिल्म को रिलीज़ हुए 10 साल पूरे हो चुके हैं, तब सोशल मीडिया पर फिर से इसके दृश्य, डायलॉग्स और किरदार ट्रेंड कर रहे हैं। नए दौर के युवा, जो शोर और इंस्टैंट ग्रैटिफिकेशन की दुनिया में पले हैं, उन्हें भी इस फिल्म की धीमी रफ्तार और गहरी बातें खींचती हैं। वे इसे ‘भारतीय इंडी सिनेमा का मील का पत्थर’ मानते हैं।
‘मसान’ उन फिल्मों में से है जो वक़्त से नहीं, ज़ख्मों से बनती हैं। और जब आप इसे देखते हैं, तो आपको अपने ज़ख्म याद आ जाते हैं। फिर वो ज़ख्म चाहे प्रेम का हो, पहचान का हो, या समाज की बेरूखी का – ‘मसान’ हर दर्शक को उसकी अपनी कहानी लौटा देती है।
इस फिल्म को सिर्फ ‘देखना’ एक बहुत छोटा शब्द है। इसे महसूस किया जाता है, इसे जिया जाता है, और फिर… इसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
क्योंकि कुछ फिल्में खत्म नहीं होतीं – वे बस अंदर कहीं चलती रहती हैं… हमारी खामोशियों की तरह।