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राहुल बनाम मोदी : ऑपरेशन सिंदूर पर संसद से व्हाइट हाउस तक संग्राम

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शाहिद सईद

नई दिल्ली, 29 जुलाई

संसद से संयुक्त राष्ट्र तक: ऑपरेशन सिंदूर पर गरमाई सियासत

संसद के भीतर छिड़ी बहस और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठे सवालों ने भारत की सैन्य नीति, कूटनीति और राजनीतिक विमर्श को एक साथ कटघरे में खड़ा कर दिया है। ऑपरेशन सिंदूर, जो पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में भारतीय सेना द्वारा शुरू किया गया था, अब राजनीति की कसौटी बन चुका है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच लोकसभा में हुई तीखी बहस ने इस मुद्दे को संसद की चौहद्दियों से निकालकर वैश्विक स्तर पर पहुंचा दिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा किए गए बार-बार के दावों, जिनमें उन्होंने खुद को भारत-पाकिस्तान के बीच कथित सीजफायर का सूत्रधार बताया, ने इस पूरी बहस को एक अंतरराष्ट्रीय सियासी रंग दे दिया है। संसद की गरमाहट अब सिर्फ घरेलू राजनीति का विषय नहीं रही, बल्कि इसमें कूटनीतिक प्रतिष्ठा, रणनीतिक पारदर्शिता और सैन्य निर्णयों की वैधता जैसे महत्वपूर्ण प्रश्न भी जुड़े हैं।

ऑपरेशन सिंदूर: जवाबी कार्रवाई या रणनीतिक संदेश?

ऑपरेशन सिंदूर की शुरुआत 7 मई 2025 को हुई थी, जो 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए उस भीषण आतंकी हमले की प्रतिक्रिया थी, जिसमें 26 निर्दोष जानें गई थीं। इन मौतों में अधिकतर पर्यटक और स्थानीय व्यवसायी थे, जिसने कश्मीर की शांति को झकझोर दिया। सरकार ने इस ऑपरेशन को आतंकी ठिकानों पर एक निर्णायक और सफल सर्जिकल स्ट्राइक बताया, जिसने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) में गहरी चोट पहुंचाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गर्व के साथ इसे स्वदेशी हथियारों की सफलता बताया और दावा किया कि भारत ने पाकिस्तान के कई एयरबेसों को निष्क्रिय कर दिया। लेकिन जैसे-जैसे बहस आगे बढ़ी, राहुल गांधी ने इसके समय, रणनीति और परिणामों पर गंभीर सवाल खड़े किए, विशेष रूप से ऑपरेशन की “22 मिनट की अवधि” और इसके तत्क्षण समापन को लेकर। उन्होंने इसे “तत्काल आत्मसमर्पण” की संज्ञा दी, जिसने संसद में हलचल मचा दी।

राहुल गांधी का वार: “राष्ट्रीय सुरक्षा नहीं, इमेज बिल्डिंग हुई”

लोकसभा में राहुल गांधी के शब्द केवल आलोचना नहीं थे, बल्कि वे प्रधानमंत्री की सैन्य और विदेश नीति को चुनौती देने का प्रयास थे। उन्होंने अपने भाषण में प्रधानमंत्री पर आरोप लगाया कि यह पूरा ऑपरेशन सिर्फ एक ‘छवि निर्माण’ (Image Management) था — एक तरह का राजनीतिक पीआर अभियान, जिसका उद्देश्य नरेंद्र मोदी को एक निर्णायक नेता के रूप में प्रस्तुत करना था, न कि भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करना। उन्होंने ऐतिहासिक संदर्भ देते हुए 1971 के युद्ध का हवाला दिया, जिसमें इंदिरा गांधी ने फील्ड मार्शल मानेकशॉ को पूरी स्वायत्तता दी थी, और कहा कि आज की सरकार सेना की भूमिका सीमित कर, उसे राजनीतिक प्रचार का उपकरण बना रही है। उन्होंने गुस्से और निराशा के साथ यह भी कहा कि पांच भारतीय लड़ाकू विमानों का क्रैश हो जाना इस बात का प्रमाण है कि ऑपरेशन को बिना योजना और बिना दीर्घकालिक सोच के अंजाम दिया गया।

ट्रंप की दखलअंदाजी या भारत की चुप्पी?

राहुल गांधी के आरोपों का सबसे विवादास्पद हिस्सा अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप से जुड़ा था, जिनका कहना था कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर करवा दिया। राहुल ने न सिर्फ प्रधानमंत्री को चुनौती दी कि वे संसद में खड़े होकर ट्रंप को “झूठा” कहें, बल्कि उन्होंने यह भी पूछा कि अगर यह दावा झूठा है, तो भारत सरकार की तरफ से स्पष्ट और कड़ा खंडन क्यों नहीं किया गया। उन्होंने यह सवाल भी उठाया कि आखिर क्या वजह है कि एक आतंकवाद से जुड़े पाकिस्तानी जनरल आसिम मुनीर को अमेरिका में व्हाइट हाउस बुलाया जाता है और भारत का प्रधानमंत्री उस समय चुप्पी साध लेता है? उन्होंने इस चुप्पी को “भारत की कूटनीतिक विफलता” करार देते हुए कहा कि यह एक गंभीर राष्ट्रीय अपमान है।

मोदी का पलटवार: “सेना की गरिमा पर सवाल मत उठाइए”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष के आरोपों को “देशद्रोह जैसा” बताया और राहुल गांधी की बातों को सेना के मनोबल को तोड़ने वाला करार दिया। उन्होंने अपनी बात में इस बात पर ज़ोर दिया कि ऑपरेशन सिंदूर पूरी तरह से भारत की संप्रभुता की रक्षा के लिए किया गया और इसमें किसी विदेशी नेता की कोई भूमिका नहीं थी। प्रधानमंत्री ने अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वांस से अपनी बातचीत का उल्लेख किया और कहा कि भारत ने किसी धमकी या मध्यस्थता से नहीं, बल्कि अपने दम पर कार्यवाही की थी। उन्होंने विपक्ष पर हमला बोलते हुए कहा कि जब-जब भारत आतंकियों पर कड़ा प्रहार करता है, तब-तब कांग्रेस जैसे दल सबूत मांगने लगते हैं और पाकिस्तान के प्रचार तंत्र का हिस्सा बन जाते हैं।

ट्रंप की ’25 बार की गूंज’ और भारत की खामोशी

इस पूरी बहस को और भी जटिल बना दिया अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लगातार किए जा रहे दावों ने, जो न सिर्फ भारत की विदेश नीति की साख पर सवाल खड़ा कर रहे हैं, बल्कि एक संप्रभु राष्ट्र के निर्णयों को अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप के तहत प्रस्तुत कर रहे हैं। विपक्ष ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी है और कहा कि भारत को वैश्विक मंच पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए थी, लेकिन विदेश मंत्री एस. जयशंकर के “ट्रंप से बातचीत नहीं हुई” वाले बयान को कांग्रेस ने “अधूरा और अस्पष्ट” बताते हुए नकार दिया। इस संदर्भ में मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा में तंज कसते हुए कहा कि “ट्रंप ने 29 बार दावा किया, भाषण के खत्म होते-होते शायद 30वीं बार भी कह दें।”

सरकार का पक्ष: “हमने पाकिस्तान को झुकाया”

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और गृह मंत्री अमित शाह ने सरकार का रुख स्पष्ट करते हुए कहा कि यह ऑपरेशन आतंक के खिलाफ ठोस कार्रवाई थी और इसमें पाकिस्तान को कड़ा संदेश दिया गया। राजनाथ सिंह ने कहा कि पाकिस्तान ने खुद ही सीजफायर की मांग की थी, जबकि राहुल गांधी ने इस पर पलटवार करते हुए पूछा कि अगर पाकिस्तान हार मान गया था, तो ऑपरेशन को महज़ 22 मिनट में क्यों रोक दिया गया? यह तर्क और तथ्य के बीच संघर्ष का एक बड़ा उदाहरण है, जो संसद के भीतर और बाहर दोनों ही स्थानों पर गर्मी पैदा कर रहा है। विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा कि पहलगाम हमले के बाद दुनिया के कई बड़े मुस्लिम देशों — सऊदी अरब, यूएई, मिस्र, ईरान — ने भारत का समर्थन किया, जो इस बात का संकेत है कि भारत की कूटनीति कमजोर नहीं, बल्कि सशक्त है।

कांग्रेस की आक्रामक रणनीति: मुद्दे को मोड़ने की कोशिश या गंभीर चिंता?

कांग्रेस ने इस बहस को एक रणनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है। पार्टी ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति की विफलता के रूप में चित्रित किया है, और अपने सांसदों को सक्रिय भागीदारी का निर्देश देते हुए तीन लाइन का व्हिप भी जारी किया। जयराम रमेश, खड़गे, और अन्य नेताओं ने लगातार प्रेस और सोशल मीडिया पर ट्रंप के दावों का जिक्र किया, जिससे सरकार की चुप्पी पर सवाल और तेज हो गए। विपक्ष का यह दावा रहा कि सरकार ने सेना को स्वतंत्रता नहीं दी और एक निर्णायक अभियान को राजनीतिक संतुलन के लिए अधूरा छोड़ दिया गया।

अंतरराष्ट्रीय मीडिया की नजर: भारत की प्रतिष्ठा दांव पर?

ट्रंप के दावों और भारत की प्रतिक्रियाओं ने अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान भी आकर्षित किया है। विश्लेषकों का मानना है कि यदि भारत ने ट्रंप के दावे का खंडन नहीं किया तो यह देश की विदेश नीति में “सॉफ्ट स्पॉट” की तरह देखा जाएगा। वहीं, बीजेपी ने आरोप लगाया कि विपक्ष देश की छवि को नुक़सान पहुँचा रहा है। सोशल मीडिया पर यह बहस अब केवल “मोदी बनाम राहुल” नहीं रही, बल्कि यह प्रश्न बन गया है कि क्या भारत एक वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी संप्रभुता की रक्षा करने में सक्षम है या नहीं?

सैन्य अभियान या राजनीतिक अखाड़ा?

अंततः यह बहस अब केवल ‘कौन सही’ और ‘कौन गलत’ तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की संस्थाओं, सेना की भूमिका, विदेश नीति की दिशा और राजनीतिक नैतिकता की सीमा रेखाओं को परिभाषित करने लगी है। यह बहस एक और उदाहरण है कि भारत की राजनीति में अब राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों पर भी सियासी नफा-नुकसान के चश्मे से देखा जाने लगा है। क्या राहुल गांधी का सवाल उठाना राष्ट्रभक्ति के खिलाफ है, या यह लोकतंत्र का मूल स्वभाव है? क्या मोदी सरकार का जवाब पर्याप्त था, या उसमें संप्रभुता से अधिक प्रचार की झलक थी? इन सवालों के जवाब भविष्य की राजनीति और नीति निर्धारण की दिशा तय करेंगे।

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