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20 वर्षों से नीतीश, नाम लालू का जंगलराज! सुशासन बाबू या ‘कुशासन के प्रतीक”

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शाहिद सईद, वरिष्ठ पत्रकार एवं समाजसेवी 

25 जुलाई 2025

 

मुख्य बातें :- 

  1. 71 हजार करोड़ के लापता खर्च पर CAG की रिपोर्ट
  2. पुलों के गिरने और निर्माण में भ्रष्टाचार
  3. बढ़ता अपराध और कानून व्यवस्था की बदहाली
  4. बेरोजगारी और युवाओं में निराशा
  5. शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था की जर्जर हालत
  6. सुशासन के नाम पर कुशासन का पर्दाफाश
  7. नीतीश सरकार की जवाबदेही और नैतिक संकट
  8. बिहार की जनता की अपेक्षाएं और भविष्य की राह
  9. 20 वर्षों से नीतीश का शासन, फिर भी नाम लालू का जंगलराज!
  10. कब तक झोकेंगे जनता की आंखों में धूल? सुशासन बाबू नहीं, ‘कुशासन के प्रतीक

लोकतंत्र की बुनियाद हिलती दिख रही है

यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि बिहार में बीते दो दशकों से सत्ता की बागडोर संभाल रहे नीतीश कुमार आज भी हर विफलता, हर बदहाली और हर भ्रष्टाचार का ठीकरा लालू प्रसाद यादव के तथाकथित ‘जंगलराज’ पर फोड़ते हैं। जब पुल गिरते हैं, जब अस्पतालों में ऑक्सीजन नहीं होता, जब युवाओं को नौकरी नहीं मिलती, जब अपराधी खुलेआम खून बहाते घूमते हैं — तो जवाबदेही से बचने के लिए “पुराने दौर” की दुहाई दी जाती है। लेकिन जनता अब यह सवाल पूछ रही है कि आखिर 20 वर्षों का शासन क्या किसी और की विरासत का रोना रोने में ही बीता? अगर 20 साल बाद भी राज्य की हालत वही है, तो फर्क कहां आया? और अगर फर्क आया भी है तो वह सिर्फ सत्ता की कुर्सियों और घोटालों की ऊंचाई में! नीतीश सरकार कब तक जनता की आंखों में “जंगलराज” की धूल झोंक कर अपना कुशासन छिपाएगी? बिहार की जनता अब जवाब मांग रही है — सिर्फ अतीत को कोसने से भविष्य नहीं सुधरता।

वित्तीय अनुशासन किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का मूल स्तंभ होता है। जब जनता द्वारा चुनी गई सरकारें करदाताओं के पैसे से योजनाएं चलाती हैं, तो उस पैसे के हर उपयोग का पारदर्शी हिसाब देना उनका संवैधानिक और नैतिक दायित्व होता है। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) की ताज़ा रिपोर्ट में बिहार सरकार के कामकाज पर जो प्रश्नचिह्न खड़े हुए हैं, वे केवल तकनीकी या लेखांकन त्रुटियाँ नहीं हैं। वे व्यापक प्रशासनिक लापरवाही, सुशासन की गिरती साख और संभावित भ्रष्टाचार की ओर संकेत करते हैं।

यह मामला इसलिए भी अधिक गंभीर है क्योंकि यह एक ऐसे राज्य से जुड़ा है जिसे दशकों से पिछड़ेपन, पलायन, गरीबी और बेरोजगारी की चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है। और अब जब CAG रिपोर्ट ने 71 हजार करोड़ रुपये के खर्च पर सरकार से जवाब मांगा है, तब सवाल सिर्फ वित्तीय नहीं रह जाते — ये सवाल बिहार के समग्र शासन की साख, नीयत और नीतियों पर भी खड़े हो जाते हैं।

CAG रिपोर्ट का सार:

CAG की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार सरकार 70,877 करोड़ रुपये की उपयोगिता प्रमाण पत्र (Utilisation Certificates) अब तक नहीं दे पाई है। ये प्रमाण पत्र इस बात का प्रमाण होते हैं कि आवंटित धनराशि का समुचित और नियमानुसार उपयोग हुआ। इनका न होना न केवल वित्तीय अनियमितता को दर्शाता है, बल्कि यह संदेह भी जन्म देता है कि कहीं योजनाएं सिर्फ कागजों पर तो नहीं चल रही थीं?

इतिहास और पैटर्न:

यह पहली बार नहीं है कि बिहार में वित्तीय गड़बड़ियों पर सवाल उठे हों। पिछले दो दशकों में समय-समय पर पंचायती राज, ग्रामीण विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे प्रमुख विभागों में बजटीय प्रावधानों के दुरुपयोग के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन इस बार मामला बहुत बड़ा है — ₹70,000 करोड़ से अधिक की राशि का लेखा-जोखा न होना सिर्फ एक प्रशासनिक भूल नहीं, बल्कि एक पूरे सिस्टम के चरमराने का संकेत है।

बनते ही टूटते पुल: भ्रष्टाचार की जीती-जागती मिसालें

बिहार में हाल के वर्षों में जिस तरह से कई पुल निर्माणाधीन अवस्था में ही ढह गए या उद्घाटन के कुछ ही महीनों में ध्वस्त हो गए, वह राज्य के निर्माण कार्यों में व्याप्त भ्रष्टाचार की भयावहता को उजागर करता है। गोपालगंज, सहरसा, भागलपुर, पूर्णिया और मुजफ्फरपुर जैसे जिलों में पुलों के गिरने की घटनाएं अब आम हो गई हैं। ये सिर्फ तकनीकी खामियां नहीं, बल्कि शासन के भीतर व्याप्त घोटालों और कमीशनखोरी की पराकाष्ठा हैं। लाखों-करोड़ों की लागत से बने ये पुल राज्य की बुनियादी संरचना और प्रशासनिक ईमानदारी की पोल खोलते हैं।

अपराध का बोलबाला, कानून व्यवस्था का मज़ाक

भ्रष्टाचार से जुड़ी समस्याओं के साथ-साथ बिहार में अपराध का भी बोलबाला बना हुआ है। हत्या, बलात्कार, रंगदारी और अपहरण जैसी घटनाएं आम हो चुकी हैं। कई जिलों में अपराधी खुलेआम घूमते हैं और प्रशासन उनके सामने नतमस्तक दिखाई देता है। जब अपराधियों का मनोबल बढ़े और पुलिस या प्रशासन उनके खिलाफ कार्रवाई करने से डरे, तो यह लोकतंत्र और नागरिक सुरक्षा पर सीधा प्रहार है।

बेरोजगारी की मार और युवाओं में निराशा

बिहार में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है। सरकारी नौकरियों में नियुक्तियां या तो वर्षों तक अटकी रहती हैं, या फिर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। बेरोजगार युवाओं को या तो पलायन करना पड़ता है या फिर किसी राजनीतिक दल की भीड़ बनकर नारे लगाने होते हैं। तकनीकी शिक्षा, स्टार्टअप संस्कृति और औद्योगिक विकास की योजनाएं कागज़ों से आगे नहीं बढ़ पाईं।

नीतीश सरकार की सुशासन छवि पर सवाल:

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वर्षों तक खुद को “सुशासन बाबू” के रूप में पेश किया, लेकिन CAG की रिपोर्ट, पुल गिरने की घटनाएं, अपराध और शिक्षा एवं स्वास्थ्य व्यवस्था की दुर्दशा उनके दावों की सच्चाई उजागर कर चुकी हैं। शिक्षा विभाग में शिक्षकों की भारी कमी, कई स्कूलों की बिना भवन, बिना बेंच और बिना शौचालय के हालत, स्वास्थ्य विभाग में डॉक्टरों की अनुपलब्धता और अस्पतालों में उपकरणों की कमी — यह सब दर्शाता है कि सिर्फ आंकड़ों और योजनाओं से विकास नहीं होता।

लोकतंत्र और जवाबदेही का प्रश्न:

भारत का संविधान लोकतंत्र की भावना पर टिका है, जहां सरकारें जनता के प्रति जवाबदेह होती हैं। CAG जैसी संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका इसी उत्तरदायित्व की निगरानी करना है। जब सरकारें इतनी बड़ी राशि के खर्च का हिसाब देने में असफल होती हैं, तो यह लोकतांत्रिक जवाबदेही की मूल भावना पर हमला है।

बिहार जैसे राज्य में इसका असर और गहराई:

बिहार भारत के सबसे गरीब और विकासशील राज्यों में गिना जाता है। यहां की जनता वर्षों से बुनियादी सुविधाओं — शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता और रोजगार के लिए संघर्ष कर रही है। ऐसे में यदि हजारों करोड़ रुपये खर्च होने के बावजूद ज़मीन पर उसका कोई ठोस असर नहीं दिखता और सरकार प्रमाण भी नहीं दे पाती, तो यह गरीब जनता के साथ एक क्रूर मज़ाक जैसा प्रतीत होता है।

राजनीतिक प्रतिक्रियाएं और सियासी मायने:

CAG की इस रिपोर्ट ने बिहार की राजनीति में हलचल मचा दी है। विपक्षी दलों ने इसे नीतीश कुमार सरकार की “वित्तीय नाकामी” और “भ्रष्टाचार की मिसाल” बताया है। राजद, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने मांग की है कि इस पूरे मामले की निष्पक्ष जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो।

दूसरी ओर, सत्ताधारी दलों — जदयू और भाजपा — ने इसे महज़ तकनीकी देरी और प्रक्रियात्मक चूक बताया है। उनका कहना है कि जल्द ही सभी उपयोगिता प्रमाण पत्र प्रस्तुत कर दिए जाएंगे।

जनता का विश्वास और उसकी चोट:

एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सरकार पर भरोसा करती है कि वह उसके पैसों का उपयोग समाज के भले के लिए करेगी। जब यह भरोसा टूटता है, तो न सिर्फ सरकार की वैधता पर प्रश्न उठते हैं, बल्कि जनता में भी मोहभंग और आक्रोश फैलता है। आज बिहार की आम जनता यह सवाल पूछ रही है कि अगर ₹71 हजार करोड़ खर्च हो गए, तो उसके लाभ कहां हैं? अस्पतालों की बदहाली क्यों है? स्कूलों में शिक्षक और छात्रों की कमी क्यों है? ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार और आधारभूत संरचना की स्थिति जर्जर क्यों बनी हुई है?

प्रशासनिक दृष्टिकोण से विश्लेषण:

सरकार के कामकाज में उपयोगिता प्रमाण पत्रों की देरी को कई बार कागजी कार्यवाही की जटिलता और जमीनी अधिकारियों की अक्षम दक्षता के खाते में डाल दिया जाता है। लेकिन जब इतने बड़े पैमाने पर देरी हो और सालों तक प्रमाण पत्र न सौंपे जाएं, तो यह सामान्य शिथिलता नहीं, बल्कि योजनाबद्ध असावधानी या इच्छाशक्ति की कमी को दर्शाता है।

संविधानिक संस्थाओं की भूमिका:

CAG की रिपोर्ट के बाद अब जिम्मेदारी राज्यपाल, विधानसभा की लोकलेखा समिति (PAC), मीडिया और नागरिक समाज संगठनों की है कि वे इस मुद्दे को दबने न दें। एक सक्रिय लोकतंत्र में सिर्फ रिपोर्ट आ जाना ही पर्याप्त नहीं होता; उस पर सार्वजनिक बहस, संसदीय कार्यवाही और दंडात्मक कदम जरूरी होते हैं।

भविष्य की राह:

बिहार को बदलने के लिए केवल रिपोर्टें, घोषणाएं और भाषण पर्याप्त नहीं हैं। नीचे दिए गए कदम उठाए जाना अनिवार्य है:

  1. सशक्त लोकायुक्त और सतर्कता आयोग: भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए स्वतंत्र और शक्तिशाली लोकायुक्त की स्थापना की जाए।
  1. अपराध पर कठोर नियंत्रण: पुलिस में राजनीतिक दखल बंद हो और अपराधियों पर त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित की जाए।
  1. रोजगार योजनाओं का व्यावहारिक क्रियान्वयन: युवाओं को प्रशिक्षण और रोज़गार देने वाली योजनाओं को ज़मीन पर सख्ती से लागू किया जाए।
  1. शिक्षा और स्वास्थ्य में क्रांतिकारी सुधार: बजट का सही उपयोग सुनिश्चित करते हुए स्कूलों और अस्पतालों को प्राथमिकता दी जाए।
  1. डिजिटल पारदर्शिता: सभी योजनाओं और खर्च की जानकारी जनता को ऑनलाइन दी जाए।

बिहार में 71 हजार करोड़ रुपये का लापता खर्च, बार-बार ढहते पुल, शिक्षा और स्वास्थ्य में गहराता संकट, बढ़ता खून खराबा और बेरोजगारी की भयावहता — ये सभी मिलकर एक गहरी सच्चाई को उजागर करते हैं। राज्य को केवल नारे नहीं, ईमानदार नेतृत्व, मजबूत प्रशासनिक ढांचा और सजग जनप्रतिनिधित्व चाहिए। नीतीश सरकार को अब जवाब देना ही होगा — नहीं तो इतिहास उन्हें सुशासन नहीं, ‘कुशासन के प्रतीक’ के रूप में याद करेगा।

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