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भाजपा राज में सांस्कृतिक नवजागरण: छत्तीसगढ़ी अस्मिता को मिला आत्मगौरव

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15 जुलाई 2025

छत्तीसगढ़ केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि एक जीवंत संस्कृति, परंपरा और आस्था का संगम है। यहां की भूमि केवल खनिज से भरपूर नहीं, बल्कि लोकगीत, देव स्थान, आदिवासी कला, गोंड-कुंवर-नागवंशी लोकश्रद्धाओं और प्रकृति की पूजा से समृद्ध है। वर्षों तक यह संस्कृति राजनीति के किनारे पड़ी रही — शासन ने कभी इसे पहचान दी, तो केवल चुनावी मंचों से भाषण तक। परंतु जब भाजपा ने राज्य की कमान संभाली, विशेषकर विष्णुदेव साय जैसे ज़मीन से जुड़े नेता के नेतृत्व में, तो संस्कृति को केवल स्मरण नहीं, सम्मान और संरक्षण मिला। अब छत्तीसगढ़ की मिट्टी से निकलने वाली बाजे-गाजे, मांदर-नगाड़े, परंपरागत वेशभूषा, देवी-देवताओं की यात्राएं और माटी की महक सिर्फ़ उत्सवों की बात नहीं, राजकीय सम्मान और नवगौरव का प्रतीक बन चुकी है।

भाजपा शासन ने सबसे पहले छत्तीसगढ़ की धार्मिक पहचान और सांस्कृतिक जड़ों को पुनः स्थापित करने का कार्य किया। माँ दंतेश्वरी, महामाया, चंद्रासिनी, खल्लारी वाली माता, रतनपुर की महामाया, राजिम की त्रिवेणी संगम तीर्थ, और शिवरीनारायण में भगवान विष्णु के अवतारों से जुड़ी कथा परंपरा को सरकार ने पुनः जीवित किया। अब इन स्थलों पर न केवल इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित हुआ, बल्कि वहाँ सालाना राजकीय मेले, तीर्थ योजना, और विशेष श्रद्धा ट्रेनों की सुविधा भी दी जा रही है। “छत्तीसगढ़ धार्मिक परिक्रमा सर्किट” के रूप में इन स्थलों को जोड़कर राज्य के पर्यटन को सांस्कृतिक आस्था से जोड़ा गया है। परिणामस्वरूप, देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु अब इन तीर्थस्थलों की ओर आकर्षित हो रहे हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था, रोजगार और गौरव — तीनों को बल मिला है।

भाजपा शासन में लोककला और लोकसंस्कृति को भी पहली बार राजनीति के केन्द्रीय मंच पर स्थान मिला। पंथी, राऊत नाचा, करमा, ददरिया, सुवा नृत्य, झांझर, भरथरी जैसे लोकनृत्यों और गीतों को न केवल सांस्कृतिक प्रस्तुतियों का हिस्सा, बल्कि राजकीय उत्सवों का स्थायी स्वरूप दिया गया। “छत्तीसगढ़िया ओलंपिक” जैसी अभिनव पहल में जहां पारंपरिक खेलों को बढ़ावा दिया गया, वहीं “लोक कलाकार सम्मान योजना” के अंतर्गत हज़ारों कलाकारों को पहचान, मंच और आजीविका का आधार मिला। यह केवल उत्सव नहीं, संस्कृति को जीवित और सशक्त रखने की योजना है, जिससे नई पीढ़ी अपने माटी से कटने के बजाय जुड़ने लगी है।

मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने स्पष्ट रूप से कहा कि “आर्थिक विकास तब तक अधूरा है, जब तक सांस्कृतिक आत्मगौरव न हो।” इस दृष्टिकोण से भाजपा शासन ने राज्य के लोक पर्वों — हरेली, तीजा, पोला, गौरा-गौरी, दीपावली, छेरछेरा, छठ, रामनवमी और मातर — को न केवल सांस्कृतिक अवकाश के रूप में घोषित किया, बल्कि उन्हें राजकीय आयोजनों के रूप में मनाया जाने लगा। इससे समाज के हर वर्ग, विशेषकर महिलाओं, किसानों और आदिवासी समुदाय को सम्मान मिला। ये पर्व अब केवल परंपरा नहीं, राज्य की आत्मा और पहचान बन गए हैं।

सांस्कृतिक पुनर्जागरण की इस यात्रा में भाजपा शासन ने यह भी सिद्ध किया कि संस्कृति को संरक्षित करना केवल संग्रहालय बनाना नहीं, बल्कि जीवंत परंपराओं को रोज़मर्रा के जीवन में स्थान देना है। इसी सोच के तहत “छत्तीसगढ़ संस्कृति परिषद”, “राजकीय शिल्प प्रशिक्षण केंद्र”, “लोक साहित्य अनुदान योजना”, “देवगुड़ी विकास अभियान”, और “ग्राम्य देवस्थल संरक्षण कार्यक्रम” जैसी योजनाएं लागू की गईं। इसके माध्यम से राज्य भर में फैले हज़ारों पारंपरिक देव स्थलों, बैगा-गुनिया की तपस्थलियों, और आदिवासी कुलदेवता स्थलों को सहेजने और विकसित करने का कार्य शुरू हुआ। इन कार्यों में स्थानीय युवाओं, शिक्षकों, पुजारियों और महिला मंडलों को भागीदार बनाया गया — जिससे संस्कृति अब सरकारी फाइलों से निकल कर गांव-गांव की सांसों में लौट आई है।

छत्तीसगढ़ में भाजपा शासन के इस संवेदनशील सांस्कृतिक दृष्टिकोण ने यह स्पष्ट कर दिया कि विकास की असली यात्रा वही है, जिसमें परंपरा पीछे न छूटे, और प्रगति आगे बढ़े। मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ आज केवल आर्थिक, औद्योगिक और प्रशासनिक रूप से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी सशक्त हो रहा है।

अब यह राज्य केवल साधनों का भंडार नहीं, संस्कारों और सांस्कृतिक चेतना का भी केन्द्र बन रहा है। यह वह नया छत्तीसगढ़ है, जहां परंपरा को बोझ नहीं, ऊर्जा माना जा रहा है — और भाजपा शासन इसे भविष्य की नींव में बदल रहा है।

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