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पुणे पोर्श केस: नाबालिग ही माना जाएगा, JJB ने राज्य याचिका खारिज की

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पुणे

16 जुलाई 2025

पुणे के बहुचर्चित पोर्श कार हादसा मामले में किशोर आरोपी पर अब व्यस्क की तरह मुकदमा नहीं चलेगा। सोमवार को जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड (JJB) ने महाराष्ट्र सरकार की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें आरोपी को व्यस्क घोषित कर न्यायिक प्रक्रिया चलाने की मांग की गई थी। बोर्ड ने कहा कि किशोर होने के नाते उसकी मानसिक और सामाजिक परिपक्वता, परिस्थितियों और पुनर्वास की संभावनाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

यह फैसला ऐसे समय आया है जब इस हादसे ने पूरे देश में आक्रोश पैदा किया था।

दरअसल, यह भीषण घटना 19 मई 2024 की रात करीब 2:30 बजे पुणे के कल्याणी नगर इलाके में हुई थी, जब एक पोर्श कार, जिसे कथित तौर पर 17 वर्षीय किशोर ने नशे की हालत में चलाया, एक तेज़ रफ्तार में मोटरसाइकिल से टकरा गई। इस भीषण टक्कर में मध्य प्रदेश निवासी दो युवा सॉफ्टवेयर इंजीनियर—अनीश अवधिया और अश्विनी कोष्टा, दोनों की उम्र 24 वर्ष थी, मौके पर ही दर्दनाक मौत के शिकार हो गए।

एफआईआर उसी दिन यरवड़ा पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई। इसके बाद पुणे सिटी पुलिस ने 21 और 22 मई को जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड का रुख करते हुए जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन) एक्ट, 2015 के तहत यह अनुमति मांगी कि आरोपी पर व्यस्क की तरह मुकदमा चलाया जाए।

राज्य सरकार का तर्क था कि मामला बेहद गंभीर है और आरोपी की उम्र भले ही 18 से कुछ महीने कम हो, लेकिन अपराध की प्रकृति अत्यंत भयावह और जानलेवा रही है। इसलिए, किशोर को व्यस्क मानते हुए मुकदमा चलाना ज़रूरी है ताकि समाज को सख्त संदेश दिया जा सके।

हालांकि, बोर्ड ने यह याचिका अस्वीकार करते हुए स्पष्ट किया कि किशोर न्याय अधिनियम (JJ Act) के अनुसार न्याय का उद्देश्य केवल दंड देना नहीं बल्कि सुधार और पुनर्वास सुनिश्चित करना है। बोर्ड ने अपने आदेश में कहा,

“किसी भी किशोर को सुधार और पुनर्वास का अवसर देना हमारी संवैधानिक जिम्मेदारी है। यदि उसमें सुधार की संभावना है, तो कठोर दंड अंतिम उपाय होना चाहिए।” अब यह मामला किशोर न्यायालय में ही चलेगा, जहां आरोपी की उम्र, मानसिक स्थिति और सामाजिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए कार्यवाही होगी।

मृतकों के परिवारों की प्रतिक्रिया:

पीड़ितों के परिजनों ने इस फैसले पर निराशा व्यक्त की है। अश्विनी कोष्टा के पिता ने मीडिया से कहा, “हमारी बेटी को सड़क पर कुचल दिया गया, और अब सिस्टम ने उस अपराध को सुधार की गुंजाइश मानकर हमें दूसरा घाव दे दिया।” एक अन्य परिजन ने कहा, “न्याय तभी होगा जब कानून सबके लिए बराबर हो। उम्र की चंद महीनों की ढाल में अगर जानबूझकर की गई लापरवाही छिपाई जाती है, तो ये न्याय नहीं, विशेषाधिकार है।”

सरकार की अगली रणनीति:

महाराष्ट्र सरकार ने फिलहाल इस फैसले को चुनौती देने की संभावना से इंकार नहीं किया है। सूत्रों के अनुसार, यह मामला उच्च न्यायालय में अपील के लिए भेजा जा सकता है। देखना होगा कि न्याय का पलड़ा किशोर के सुधार की संभावना की ओर झुकता है या फिर पीड़ितों के न्याय की पुकार भारी पड़ती है। इस मामले ने एक बार फिर समाज को आईना दिखाया है—जहां अमीर घरों के नाबालिगों की लापरवाहियां दो निर्दोष ज़िंदगियों को लील जाती हैं, और जवाबदेही सिर्फ “सुधार” के नाम पर टाल दी जाती है।

 

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