जहाँ कभी पर्दा और परंपरा की बेड़ियों ने मुस्लिम महिलाओं को चारदीवारी में सीमित कर दिया था, वही बिहार का सीमावर्ती इलाका किशनगंज आज महिला नेतृत्व और सामाजिक बदलाव का अनोखा उदाहरण बन रहा है। यहां की मुस्लिम महिलाएं न केवल पंचायत चुनाव जीत रही हैं, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण और न्याय तक पहुँच के संघर्ष में नेतृत्वकारी भूमिका निभा रही हैं।
“सरपंच बीबी” से “लीडर आपा” तक का सफर
45 वर्षीय नूरजहाँ बेगम, जो पहले एक स्कूल की चपरासी थीं, आज किशनगंज के नरसंडा पंचायत की निर्वाचित मुखिया हैं। उन्होंने न सिर्फ रिकॉर्ड मतों से चुनाव जीता, बल्कि पंचायत कार्यालय में पहली बार महिलाओं के लिए अलग परामर्श केंद्र, डिजिटल हेल्प डेस्क और बेटियों की शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति योजना की शुरुआत की।
नूरजहाँ कहती हैं, “पहले मैं सिर्फ खाना बनाना जानती थी, अब बजट बनाती हूँ, गाँव की लड़कियों को स्कॉलरशिप दिलाती हूँ और अफसरों को जवाब देती हूँ। मैंने सीखा है कि इस्लाम में पढ़ाई और जिम्मेदारी सबसे बड़ी इबादत है।”
हिजाब में बदलाव की लहर
इन महिलाओं ने यह साबित कर दिया कि हिजाब रुकावट नहीं, हिम्मत की पहचान है। रुखसार परवीन, जो कभी केवल तालीम-ए-कुरान पढ़ाती थीं, अब किशनगंज जिले की महिला शिक्षा अधिकारी हैं। उन्होंने गाँव-गाँव जाकर मदरसों में लड़कियों को स्किल ट्रेनिंग दिलवाई, सिलाई मशीनों का वितरण कराया और “इज्जत और रोजगार दोनों” नाम से अभियान चलाया।
रुखसार बताती हैं –
“हमने गाँव की महिलाओं को बताया कि वो सिर्फ घरेलू काम के लिए नहीं बनीं। अल्लाह ने हर इंसान को इल्म और अक़्ल दी है, हमें बस उसे इस्तेमाल करना सीखना है।”
महिलाओं की पंचायत – मुस्लिम समाज में नई परंपरा
किशनगंज जिले में अप्रैल 2025 में एक अनोखी पहल शुरू हुई – “मुस्लिम महिला पंचायत”। हर गाँव की महिलाएं महीने में एक दिन पंचायत भवन में जुटती हैं, जहाँ वे शौचालय, पोषण, घरेलू हिंसा, बेटी की पढ़ाई, राशन और इलाज जैसे विषयों पर खुलकर चर्चा करती हैं।
इस पंचायत की अध्यक्ष मुमताज़ खातून कहती हैं, “जब मर्द हमारी समस्याएँ नहीं सुनते, तो हम खुद हल निकालते हैं। हमने तय किया है कि हर लड़की को दसवीं पास कराना है, वरना निकाह नहीं होगा।”
बदलती ज़ुबान, बदलता समाज
पहले जहाँ महिलाएं पंचायत में बोलने से डरती थीं, अब वे RTI डालना, ब्लॉक ऑफिस में आवेदन देना, शिकायत रजिस्टर में लिखवाना, और ऑनलाइन पोर्टल से काम कराना सीख चुकी हैं।
साइमा नाज़, जो पहले कभी स्कूल नहीं गईं, अब डिजी-सेवा केंद्र चलाती हैं और महिलाओं को आधार अपडेट से लेकर बिजली बिल भुगतान तक में मदद करती हैं। उन्होंने हाल ही में डिजिटल लीडर अवार्ड भी जीता है।
ताक़त बनी तालीम – शिक्षा से निकली नेतृत्व की चिंगारी
इन महिलाओं का नेतृत्व सिर्फ भावनात्मक नहीं, शैक्षणिक और व्यावहारिक आधार पर टिकता है। किशनगंज में पिछले दो वर्षों में 35% मुस्लिम छात्राओं का नामांकन बढ़ा है। इसमें पंचायत और महिला समूहों की भूमिका अहम रही।
महिलाओं ने खुद मोहल्ला-शिक्षा समूह बनाए, जिनमें बुजुर्ग महिलाएं छोटी बच्चियों को पढ़ाती हैं। “एक माँ पढ़े, तो पीढ़ी पढ़े” जैसे नारों से पूरे इलाके में शिक्षा के प्रति एक नई जागरूकता फैली है।
बड़े शहरों को भी दे रही हैं सीख
यह बदलाव केवल गाँव तक सीमित नहीं है। किशनगंज की “इम्तिहान बीबी महिला मंडल” अब पटना, पूर्णिया और दरभंगा तक कार्यशालाएं आयोजित कर रही है, जहाँ ये महिलाएं शहरी मुस्लिम समुदायों को प्रेरित कर रही हैं – “तालीम, तहज़ीब और तहफ़्फुज़” को साथ लेकर चलने का रास्ता बता रही हैं।
नतीजा – समाज में आत्मबल और पहचान का नया अध्याय
किशनगंज की मुस्लिम महिलाओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि नेतृत्व का ताल्लुक लिंग, पर्दे या पृष्ठभूमि से नहीं – हिम्मत और हक़ से होता है। उन्होंने यह भी दिखाया है कि एक बार जब महिलाएं खुद के अधिकार समझ लेती हैं, तो वे समाज को भी सही दिशा में ले जाती हैं।
यह कहानी न केवल किशनगंज की है, बल्कि पूरे देश की मुस्लिम महिलाओं के लिए एक मिसाल है कि जब शिक्षा, नेतृत्व और साहस एक साथ आते हैं, तो बदलाव सिर पर हिजाब लेकर आता है और हाथ में संविधान।