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थोपा गया युद्ध, शांति की गुहार और मुनाफ़े की मंडी में मानवता की मौत

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जब युद्ध किसी सैन्य सीमा से नहीं, बल्कि चुप्पी, पूंजी, और नैरेटिव से शुरू होता है — तब वह केवल एक क्षेत्रीय संघर्ष नहीं रहता, वह पूरी सभ्यता की परीक्षा बन जाता है। 2025 का पश्चिम एशिया, विशेष रूप से गाज़ा, ईरान, और इज़रायल — यही गवाही दे रहे हैं कि आधुनिक दुनिया में युद्ध की परिभाषा बदल चुकी है। अब टैंक बाद में आते हैं, पहले आते हैं प्रतिबंध, मीडिया की धारणाएँ, और वह साज़िश जिसे ‘शांति मिशन’ के नाम पर बेचा जाता है।

ईरान पर दशकों से जारी अमेरिकी प्रतिबंध, इज़रायली साइबर हमले, जनरल क़ासिम सुलेमानी की हत्या, और क्षेत्रीय दबाव — यह सब पश्चिम द्वारा बनाए गए उस शत्रु की रचना थी जिसे वे “ईरानी विस्तारवाद” कहकर बेचते रहे। लेकिन जब ईरान ने संयम से जवाब देना शुरू किया, और 2025 में मिसाइलों के ज़रिए क़तर स्थित अमेरिकी बेस अल-उदैद और इज़रायली रडार स्टेशनों पर सीधा जवाब दिया — तो वही अमेरिका और इज़रायल जो युद्ध का नेतृत्व कर रहे थे, अचानक सीज़फायर की गुहार लगाने लगे। यह पहली बार था जब पूंजी और प्रभुत्व के मद में चूर ताक़तें आत्मसम्मान के प्रतिरोध से डर गईं। संदेश साफ़ था — आत्मरक्षा पश्चिम का विशेषाधिकार नहीं, सार्वभौमिक अधिकार है।

लेकिन इस संघर्ष का सबसे क्रूर पहलू वह है, जो बमों और मिसाइलों से नहीं, बल्कि निवेश और व्यापार के आकड़ों से झलकता है। गाज़ा की जलती ज़मीन पर गिरता हर बम, कहीं न कहीं उस निवेश से जुड़ा है जिसे मुस्लिम दुनिया की पूंजी ने सींचा है। सऊदी अरब की Public Investment Fund (PIF) ने अमेरिकी निवेश फर्म ‘अफिनिटी पार्टनर्स’ के माध्यम से इज़रायली बीमा कंपनी ‘Phoenix Insurance’ में करोड़ों डॉलर लगाए। जनवरी 2025 तक इस निवेश से लगभग ₹191 करोड़ (19 मिलियन USD) का लाभ अर्जित किया गया। UAE की मुबाडाला कंपनी ने इज़रायली गैस क्षेत्र में $1.1 बिलियन का निवेश किया। क़तर ने $275 मिलियन और सऊदी अरब ने अतिरिक्त $30 मिलियन तक की रकम इज़रायली हाई-टेक कंपनियों में लगाई। इसके अलावा, अल-राज़ही परिवार की MithaQ Capital ने इज़रायली mobility कंपनी Otonomo में 20.4% हिस्सेदारी खरीदी, जिसका कुल मूल्यांकन अरबों डॉलर में है।

इसका अर्थ क्या है? यह कि अब युद्ध केवल हथियारों से नहीं लड़े जाते — उन्हें फंड किया जाता है। वे बोर्डरूम में बनते हैं, और बमों में तब्दील होकर गरीब बस्तियों पर गिरते हैं। अरबों डॉलर की यह साझेदारी इज़रायल को केवल आर्थिक बल नहीं देती, उसे नैतिक समर्थन भी देती है। गाज़ा में जो नरसंहार हुआ, वह किसी एक सरकार की नीति नहीं, पूरी वैश्विक व्यवस्था का अधोपतन है।

अब्राहम समझौते (2020) ने अरब-इज़रायली संबंधों की परिभाषा ही बदल दी। UAE, बहरीन, मोरक्को जैसे देश जो एक समय फिलिस्तीन की आज़ादी के सबसे बड़े पैरोकार थे, अब इज़रायल के साथ सांस्कृतिक, तकनीकी और रक्षा सहयोग कर रहे हैं। 2025 तक यह सहयोग व्यापार, रक्षा सौदों और साइबर इंटेलिजेंस तक पहुँच चुका था। UAE की G42 जैसी कंपनियाँ इज़रायली जासूसी फर्मों जैसे NSO और Cellebrite के साथ तकनीकी गठबंधन कर चुकी हैं — जबकि इन पर मानवाधिकार उल्लंघन के गंभीर आरोप हैं। यह गठबंधन केवल आर्थिक नहीं, नैतिक पतन का भी संकेत है।

इस पूरे समीकरण में आम उपभोक्ता भी अनजाने में शामिल है। Strauss Group, Soda Stream, Teva Pharmaceuticals, Ahava, Netafim जैसी इज़रायली कंपनियाँ अरब देशों में यूरोपीय या अमेरिकी ब्रांडिंग के तहत अपने उत्पाद बेच रही हैं। स्नैक्स, स्किन क्रीम, मिनरल वॉटर, दवाइयाँ, ऐप्स — सब कुछ। Waze, Fiverr, Wix जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म्स भी अरब बाज़ारों में मौजूद हैं। लेकिन उपभोक्ता यह नहीं जानता कि जो वह खरीद रहा है, वह उस व्यवस्था को मज़बूत कर रहा है जो गाज़ा में बम बरसा रही है।

गाज़ा की त्रासदी को केवल एक युद्ध कहना गलत होगा। यह एक सुनियोजित नरसंहार था — जिसमें 40,000 से अधिक लोगों की जान गई, जिनमें 17,000 बच्चे और 12,000 महिलाएँ थीं। अल-शिफ़ा अस्पताल जैसे चिकित्सा केंद्रों पर बम गिराए गए, बिजली बंद कर दी गई, और नवजात शिशु ऑक्सीजन के बिना दम तोड़ते रहे। स्कूल, मस्जिदें, बाज़ार — सब नष्ट। लेकिन दुनिया खामोश रही। UN, OIC, अरब लीग — सब केवल प्रेस विज्ञप्तियाँ जारी करते रहे। यह खामोशी केवल सहमति नहीं, बल्कि साझेदारी है।

OIC जैसे संगठन जो मंचों पर फिलिस्तीन के लिए आँसू बहाते हैं, वे पर्दे के पीछे इज़रायल में निवेश कर रहे हैं। यह दोहरा चरित्र केवल भ्रम पैदा नहीं करता, यह नैतिकता का विनाश करता है। एक तरफ़ क़िब्ला की रक्षा की बातें, दूसरी तरफ़ उस व्यवस्था में निवेश जो उसी क़िब्ला को अपवित्र करती है। यह रणनीतिक पाखंड है — और इस पाखंड में सबसे बड़ी कीमत फिलिस्तीन ने चुकाई है।

इज़रायल की ताकत उसकी सेना या हथियारों में नहीं, हमारी चुप्पी में है। वह चुप्पी जो अरब दुनिया की मौन स्वीकृति से आती है। वह चुप्पी जो उपभोक्ता की आँखों पर ब्रांडिंग की पट्टी बांधकर आती है। वह चुप्पी जो वैश्विक संस्थाओं की निष्क्रियता से आती है। और अब यह चुप्पी केवल विकल्प नहीं, पाप बन चुकी है।

इसलिए अब निर्णय का समय है। हमें यह तय करना होगा कि क्या हम मुनाफ़े की मंडी के गूंगे ग्राहक बने रहेंगे, या जागरूक नागरिक बनकर ज़ुल्म का प्रतिकार करेंगे। उपभोक्ता के तौर पर हमें इज़रायली कंपनियों की पहचान करनी होगी और उनका बहिष्कार करना होगा। मीडिया को समर्थन देना होगा जो गाज़ा की सच्चाई दिखाता है, न कि जो उसे छिपाने की तनख्वाह पाता है। नागरिक समाज, लेखक, बुद्धिजीवी, और एनजीओ — सभी को BDS जैसे वैश्विक आंदोलनों को ज़मीन पर लाना होगा।

फिलिस्तीन की लड़ाई, केवल फिलिस्तीन की नहीं — यह हर उस आदमी की लड़ाई है जो इंसानियत पर विश्वास करता है। यह लड़ाई सत्ता बनाम सत्य की, पूंजी बनाम करुणा की, साम्राज्यवाद बनाम न्याय की है। अगर आज हम नहीं बोले, तो कल हमारे मौन से भी कोई शहर जलेगा। और तब सवाल नहीं उठेगा कि ‘किसने मारा?’ — बल्कि यह पूछा जाएगा कि ‘कौन चुप था?’ अब चुप रहना गुनाह है, और प्रतिकार ही प्रायश्चित।

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