शाहिद सईद
वरिष्ठ पत्रकार एवं समाजसेवी
भारत और इस्लामिक देशों के संबंधों का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी इस भूमि पर सभ्यता की उपस्थिति। परंतु आधुनिक भारत, जो लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी संविधान पर आधारित है, उसकी विदेश नीति को जब इस्लामी राष्ट्रों के साथ जोड़ा जाता है, तो यह विषय अत्यंत संवेदनशील और रणनीतिक बन जाता है। भारत किसी एक मज़हब के आधार पर न तो अपनी घरेलू नीति चलाता है और न ही विदेशी नीति — फिर भी भारत को बार-बार इस्लामिक दुनिया के मंचों, विशेषतः OIC (Organization of Islamic Cooperation) में ‘मुस्लिम विरोधी’ के रूप में चित्रित करने की कोशिश की जाती रही है। यह दोगली नीति उस वक्त और स्पष्ट हो जाती है जब भारत जैसे शांतिप्रिय राष्ट्र को मानवाधिकारों और मुसलमानों की स्थिति को लेकर सवालों में घेरा जाता है, जबकि स्वयं अनेक इस्लामी देश अपने यहाँ के धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति गंभीर दमन और भेदभाव की नीति अपनाते हैं।
भारत और इस्लामिक राष्ट्रों के संबंध बहुआयामी हैं — इनमें ऊर्जा सुरक्षा, प्रवासी भारतीय श्रमिक, व्यापार, सामरिक साझेदारी, सांस्कृतिक संबंध और हाल के वर्षों में जियो-पॉलिटिक्स का संतुलन शामिल है। उदाहरण के लिए, भारत सऊदी अरब और यूएई से अपनी ऊर्जा ज़रूरतों का एक बड़ा हिस्सा आयात करता है, वहीं क़तर, कुवैत और बहरीन में लाखों भारतीय प्रवासी श्रमिक हैं जो न केवल देश को अरबों डॉलर की विदेशी मुद्रा भेजते हैं, बल्कि इन देशों की अर्थव्यवस्था में भी रीढ़ का काम करते हैं। लेकिन इन संबंधों में सच्चा मूल्यांकन तब होता है जब इन देशों की सरकारें भारत के आंतरिक मामलों पर बयान देने लगती हैं — चाहे वह CAA का विरोध हो, 370 हटाने पर चिंता जताना हो, या पैगंबर मुहम्मद पर विवादास्पद टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया देना हो। भारत ने इन मुद्दों पर संयम, लेकिन दृढ़ता से अपनी स्थिति स्पष्ट की है — कि भारत का संविधान सभी धर्मों को संरक्षण देता है, और भारत के मुसलमान भारत के नागरिक हैं, OIC के प्रतिनिधि नहीं।
दरअसल, भारत की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वह विश्व के सबसे बड़े मुस्लिम आबादी वाले लोकतंत्र के रूप में, न तो OIC का सदस्य है, और न ही उसमें कोई निर्णायक भूमिका निभाता है। इसका कारण पाकिस्तान की ऐतिहासिक कूटनीतिक चालबाज़ियाँ हैं, जिसने दशकों तक OIC में भारत-विरोधी एजेंडा चलाया। लेकिन अब परिदृश्य बदल रहा है। सऊदी अरब, यूएई, बहरीन और ओमान जैसे खाड़ी देशों ने भारत के साथ अपने संबंधों को मज़हब के बजाय विकास, निवेश और कूटनीति पर आधारित किया है। यही वजह है कि UAE ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया, और रियाद, अबू धाबी जैसे शहरों में राम मंदिर का निर्माण शुरू हुआ — यह दिखाता है कि भारत के संबंध अब मज़हबी नहीं, बल्कि वैश्विक साझेदारी और आर्थिक सहयोग के स्तर पर मजबूत हो रहे हैं।
भारत के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण इस्लामी देश पाकिस्तान और तुर्की हैं। पाकिस्तान, भारत के विरुद्ध लगातार आतंकवाद और कट्टर इस्लामी एजेंडे को हवा देता है, जबकि तुर्की ने हाल के वर्षों में कश्मीर मुद्दे को उठाकर OIC में भारत विरोधी माहौल बनाने की कोशिश की है। इसके साथ ही मलेशिया जैसे कुछ देश भी समय-समय पर भारत के खिलाफ खड़े होते रहे हैं, विशेषकर जब भारत अपने संप्रभु हितों की रक्षा करता है। लेकिन इन देशों की आलोचना का कारण धार्मिक सहानुभूति कम और चीन और इस्लामी कट्टरता से गठजोड़ ज़्यादा है। भारत को इस्लामिक देशों के साथ रिश्तों में धर्म के बजाय राष्ट्रहित और रणनीतिक संतुलन पर केंद्रित रहना चाहिए।
भारत के लिए यह अवसर भी है और चुनौती भी, कि वह मुस्लिम बहुल लेकिन लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में अपनी छवि को मज़बूत करे — न केवल खाड़ी देशों में, बल्कि अफ्रीका, मध्य एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के मुस्लिम देशों में भी। भारत की बहुलता, उसकी दरियादिली, और उसका यह दृढ़ विश्वास कि हर धर्म, हर नागरिक इस राष्ट्र का अभिन्न अंग है, उसे वैश्विक स्तर पर नैतिक बढ़त प्रदान करता है। भारत यदि दुनिया को यह समझा सके कि मुसलमानों को न्याय, अवसर और सम्मान केवल लोकतंत्र में मिल सकता है, न कि मज़हबी तानाशाही में — तो वह इस्लामिक दुनिया के लिए एक वैकल्पिक मॉडल बन सकता है।
भारत को इस्लामी देशों के साथ रिश्तों में ना तो आत्मग्लानि की ज़रूरत है, और ना ही आत्ममुग्धता की। उसे चाहिए कि वह अपने कूटनीतिक हित, आर्थिक संप्रभुता और संविधान की गरिमा को प्राथमिकता देते हुए, संबंधों को मज़हबी दबाव के बजाय मानवीय साझेदारी, वैश्विक स्थिरता और सांस्कृतिक विनमय के स्तर पर आगे बढ़ाए। इस्लामिक देशों के साथ भारत का रिश्ता न तो किसी डर के कारण होना चाहिए और न ही किसी झुकाव से — बल्कि उसे अपने गौरव, राष्ट्रहित और लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर खड़ा करना चाहिए।