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नई शिक्षा नीति में धार्मिक शिक्षा की भूमिका “ज्ञान और आस्था के बीच संतुलन: नई शिक्षा नीति में धार्मिक शिक्षा की संभावनाएँ और सीमाएँ”

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भारत की नई शिक्षा नीति (NEP 2020) एक ऐतिहासिक और दूरदर्शी प्रयास है, जो शिक्षा को केवल नौकरी के साधन के रूप में नहीं, बल्कि व्यक्ति के सर्वांगीण विकास और राष्ट्र निर्माण की नींव के रूप में देखती है। इस नीति ने जहां कौशल आधारित शिक्षा, मातृभाषा में पढ़ाई, डिजिटल लर्निंग, और समावेशिता को बढ़ावा देने की दिशा में ठोस कदम उठाए हैं, वहीं इसमें धार्मिक शिक्षा की भूमिका पर भी गंभीर विमर्श की आवश्यकता है। भारत जैसे विविधतापूर्ण, बहु-धार्मिक देश में धार्मिक शिक्षा को शिक्षा व्यवस्था में शामिल करना एक संवेदनशील, चुनौतीपूर्ण और रणनीतिक विषय है। यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि धार्मिक शिक्षा क्या केवल धार्मिक ग्रंथों तक सीमित होनी चाहिए, या उसका उद्देश्य मानवता, नैतिकता, और सांस्कृतिक बोध को बढ़ावा देना भी होना चाहिए?

NEP की मूल आत्मा यह है कि छात्रों में Critical Thinking, Inquiry-Based Learning और Constitutional Values विकसित की जाएँ। यदि धार्मिक शिक्षा केवल आस्था आधारित विश्वासों की पुनरावृत्ति बन जाए, तो वह आलोचनात्मक सोच को दबा सकती है। परंतु यदि धार्मिक शिक्षा को मानव मूल्यों, परस्पर सहिष्णुता, तथा अंतर-धार्मिक समझदारी के आधार पर परिभाषित किया जाए, तो वह न केवल सामाजिक समरसता को मज़बूत करेगी, बल्कि धार्मिक विविधता के प्रति सम्मान भी पैदा करेगी। दुर्भाग्यवश, आज भी कई शिक्षण संस्थानों में धार्मिक शिक्षा के नाम पर बच्चों को अन्य धर्मों के प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण सिखाया जाता है, जो उनके मन में अज्ञान पर आधारित असहिष्णुता को जन्म देता है।

मदरसे, गुरुकुल, मिशनरी स्कूल — ये सभी भारतीय शिक्षा प्रणाली के लंबे इतिहास का हिस्सा रहे हैं। लेकिन जब मदरसों में केवल उर्दू, अरबी, इस्लामी इतिहास और धार्मिक कानून पढ़ाया जाता है, और विज्ञान, गणित, भूगोल या संविधान की शिक्षा नहीं दी जाती, तो यह शिक्षा संपूर्ण नहीं रह जाती। इस प्रकार के संस्थान धार्मिक शिक्षकों को तो पैदा करते हैं, लेकिन राष्ट्रनिर्माता नागरिक नहीं। यह स्थिति उस वक्त और भी चिंताजनक हो जाती है जब धार्मिक शिक्षा के नाम पर बच्चों को समाज और संविधान से काटने की कोशिश की जाती है। क्या एक ऐसा बच्चा जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम, वैज्ञानिक उपलब्धियों, संविधान की संरचना या वैश्विक विकास की खबरों से अंजान है, देश के लिए जिम्मेदार नागरिक बन पाएगा?

नई शिक्षा नीति में इस मुद्दे पर सबसे बड़ा अवसर यही है कि वह धार्मिक शिक्षा को सांस्कृतिक समावेशिता और आधुनिकता से जोड़ दे। इसका अर्थ है कि सभी विद्यालयों में नैतिक शिक्षा, सभी धर्मों के मूलभूत सिद्धांतों की जानकारी, और धर्मनिरपेक्षता की संविधानसम्मत समझ को शामिल किया जाए। इस तरह की धार्मिक शिक्षा किसी धर्म को बढ़ाने या प्रचारित करने के लिए नहीं, बल्कि यह दिखाने के लिए होगी कि हर धर्म प्रेम, करुणा, और सह-अस्तित्व की शिक्षा देता है। इससे न केवल विद्यार्थी सांप्रदायिक घृणा से मुक्त होंगे, बल्कि वे भारत के विविधतापूर्ण समाज को समझने और सहने में भी सक्षम बनेंगे।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि 21वीं सदी में ज्ञान और आस्था के बीच की खाई को पाटने की जरूरत है। धार्मिक शिक्षा यदि वैज्ञानिक सोच के साथ चल सके, तो वह आस्था को अंधविश्वास नहीं बनने देगी। जैसे, कुरआन या वेद की आयतों में जब प्रकृति, ब्रह्मांड, जीवन या मानवता की बात की जाती है, तो उन्हें विज्ञान के चश्मे से देखने की आदत डाली जानी चाहिए। यही वह दृष्टिकोण है जो आज गुम है। हमें ऐसे शिक्षकों और संस्थानों की ज़रूरत है जो धार्मिक शिक्षा को आत्मा का पोषण और विवेक का विस्तार मानें — न कि घृणा और श्रेष्ठतावाद का हथियार।

इस दिशा में सरकार और समाज दोनों की भूमिका अत्यंत अहम है। मदरसों में नए पाठ्यक्रम लागू करना, गुरुकुलों में आधुनिक विषय जोड़ना, मिशनरी स्कूलों को बहुधार्मिक चेतना से जोड़ना — ये सब शैक्षिक सुधार और सांप्रदायिक सौहार्द का हिस्सा बन सकते हैं। यही नहीं, धार्मिक नेताओं को भी चाहिए कि वे शिक्षा को सिर्फ धर्म प्रचार का माध्यम न बनाएं, बल्कि राष्ट्रहित और मानवता के निर्माण का उपकरण मानें। तभी शिक्षा एक मिशन बनेगी, और भारत में पढ़ने वाला हर बच्चा पहले नागरिक बनेगा, फिर उपासक।

नई शिक्षा नीति भारत के भविष्य की स्क्रिप्ट लिख रही है। अगर इस स्क्रिप्ट में धार्मिक शिक्षा को सही परिप्रेक्ष्य, संतुलित दृष्टिकोण और संवैधानिक दायरे में रखा गया, तो यह भारतीयता को मज़बूत करेगी। लेकिन यदि इसे धर्म आधारित अलगाव या श्रेष्ठतावाद की विचारधारा में डूबा रहने दिया गया, तो यह विभाजन को बढ़ावा दे सकती है। इसलिए आवश्यकता है — आस्था और अक्ल के बीच संतुलन स्थापित करने की, ताकि शिक्षा मंदिर भी बने और समाज का आईना भी।

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