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अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति – एक अंतरराष्ट्रीय नैतिक संकट

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भूमिका: उपमहाद्वीप में बहुसंख्यकवाद की उग्रता और अल्पसंख्यकों की त्रासदी

दक्षिण एशिया — विशेषकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश — एक समय धर्मनिरपेक्ष विविधता का घर हुआ करता था। इन देशों की रचना में अनेक धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों ने भूमिका निभाई थी। परन्तु समय के साथ, इन राष्ट्रों की राजनैतिक दिशा ने धार्मिक असहिष्णुता, कट्टरता और बहुसंख्यकवाद की ओर स्पष्ट झुकाव लिया। इसका सबसे भयावह परिणाम इन देशों में रहने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और यहूदी जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों को भुगतना पड़ा।

इन समुदायों के लोग अपने ही देश में ‘दूसरे दर्जे’ के नागरिक बन गए हैं। उनके धार्मिक स्थलों पर हमले होते हैं, बच्चियों का अपहरण करके जबरन धर्मांतरण और विवाह कराया जाता है, जमीनों पर कब्ज़ा कर लिया जाता है, और न्याय व्यवस्था से उन्हें कोई राहत नहीं मिलती। यह एक दो घटनाओं की बात नहीं है — यह एक संस्थागत बहिष्कार और सुनियोजित उत्पीड़न का परिणाम है, जो अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मंचों पर शर्मसार कर देने वाला विषय बन चुका है।

पाकिस्तान: अल्पसंख्यकों के लिए नर्क बनती एक ‘इस्लामिक गणराज्य’

पाकिस्तान की स्थापना ही धार्मिक विभाजन की बुनियाद पर हुई थी। जिन्ना के “secular promises” कब दफन हो गए, ये किसी को नहीं पता चला। 1956 में “इस्लामिक गणराज्य” बनने के बाद से पाकिस्तान ने धार्मिक गैरबराबरी को संविधान में शामिल कर दिया। हिंदुओं, ईसाइयों, सिखों और अहमदिया मुसलमानों के अधिकारों को धीरे-धीरे काट-छाँट कर छीन लिया गया।

हर साल पाकिस्तान में 1000 से ज़्यादा हिंदू और ईसाई लड़कियों का अपहरण, धर्मांतरण और जबरन निकाह होता है। कराची, सिंध और पंजाब में कई मंदिर ध्वस्त कर दिए जाते हैं या उन्हें कब्जा करके दुकान या कार्यालय बना दिया जाता है। शिक्षा व्यवस्था में हिंदू विरोधी सामग्री है, और प्रशासनिक सेवाओं में इन समुदायों की भागीदारी नगण्य है।

ध्यान देने की बात है कि पाकिस्तान के पास अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों पर हस्ताक्षर करने की नैतिकता तो है, पर पालन करने की ईमानदारी नहीं। वहां की न्यायिक व्यवस्था अक्सर उत्पीड़कों का साथ देती है, और पीड़ितों को “काफिर”, “देशद्रोही” कहकर चुप करा दिया जाता है।

अफगानिस्तान: बौद्ध विरासत से तालिबानी बर्बरता तक

अफगानिस्तान कभी बौद्धिक और सांस्कृतिक विविधता का केंद्र था — जहां गंधार कला, नालंदा के बौद्ध विचार और सूफी परंपरा का संगम दिखता था। मगर पिछले दो दशकों में अफगानिस्तान की पहचान तालिबानी उग्रवाद, शरिया कट्टरता और महिलाओं व अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के रूप में बन चुकी है।

1996 से लेकर 2021 तक, जब भी तालिबान सत्ता में आया, उसने सबसे पहले सिखों, हिंदुओं, यहूदियों और हज़ारों साल पुराने बौद्ध प्रतीकों को मिटाने का काम किया। बामियान की बुद्ध प्रतिमाओं का विस्फोट कर नष्ट करना पूरी मानवता पर हमला था। हिंदू और सिख समुदाय जो वहाँ सदीयों से व्यापार और संस्कृति में रचे-बसे थे, उन्हें या तो इस्लाम कबूल करने पर मजबूर किया गया या देश छोड़ने पर।

2021 में तालिबान की पुनः सत्ता वापसी के बाद से ही वहाँ रह गए अंतिम कुछ हिंदू-सिख परिवार भी लगातार भारत या यूरोप की ओर पलायन कर रहे हैं। इसका अर्थ साफ है — अफगानिस्तान अब एक ऐसा राष्ट्र बन गया है जहां धार्मिक विविधता का कोई स्थान नहीं।

बांग्लादेश: ‘सेक्युलर राष्ट्र’ से ‘इस्लामी बहुसंख्यकवाद’ की ओर झुकाव

बांग्लादेश ने अपनी स्वतंत्रता 1971 में “धर्मनिरपेक्षता” के वादे के साथ हासिल की थी, लेकिन समय के साथ राजनीतिक इस्लामीकरण ने वहां की सामाजिक संरचना को बदल डाला। वहां आज भी लाखों हिंदू, बौद्ध और ईसाई नागरिक रहते हैं, लेकिन उनकी स्थिति असुरक्षित, अस्थिर और भयभीत है।

“हिंदू बहुल गाँवों पर हमले, दुर्गा पूजा के पंडाल जलाना, मंदिर तोड़ना, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ खंडित करना” – यह सब वहां की राजनीतिक और प्रशासनिक चुप्पी के साथ चलता है। 2021 में सोशल मीडिया पर एक फर्जी पोस्ट के कारण पूरे बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ दंगे हुए। यह दिखाता है कि वहाँ धार्मिक असहिष्णुता कितनी गहरी है, और कानून का भय पूरी तरह समाप्त हो चुका है।

मीडिया और सरकार इसे “स्थानीय घटना” कहकर टाल देती है, लेकिन सच्चाई यह है कि हिंदुओं की आबादी 30% से घटकर 8% तक आ गई है — यह एक धीमी मगर क्रूर ‘सांस्कृतिक सफ़ाई’ है।

भारत और वैश्विक समुदाय की भूमिका: नैतिक नेतृत्व की ज़रूरत

भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होते हुए भी हिंदुओं, सिखों, जैनों और ईसाइयों की शरणस्थली रहा है। नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) इसी दृष्टि से एक ऐतिहासिक और नैतिक कदम था, जिससे धार्मिक उत्पीड़न के शिकार शरणार्थियों को नागरिकता दी जा सके। लेकिन इसके खिलाफ जो राजनीतिक हंगामा खड़ा किया गया, उसने असल पीड़ितों को फिर से हाशिए पर धकेल दिया।

भारत को अब केवल कानून नहीं, एक अंतरराष्ट्रीय अभियान छेड़ना होगा। संयुक्त राष्ट्र, OIC, और मानवाधिकार संगठनों को यह बताना होगा कि उपमहाद्वीप के इन देशों में “धार्मिक सफ़ाई” एक गंभीर मानवाधिकार संकट है। भारत को चाहिए कि वह इन देशों में हो रहे उत्पीड़न के तथ्यात्मक दस्तावेज़, डेटा और रिपोर्ट्स तैयार करके अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उन्हें मजबूती से उठाए।

साथ ही भारत में रह रहे बांग्लादेशी, अफगानी और पाकिस्तानी अल्पसंख्यक शरणार्थियों को जीवन, शिक्षा और रोजगार में प्राथमिकता मिलनी चाहिए। भारत को ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के सिद्धांत पर अमल करते हुए मानवता की रक्षा के लिए आगे आना ही होगा।

धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा — दक्षिण एशिया की असली परीक्षा

अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों की दुर्दशा आज केवल उनका नहीं, बल्कि समूची मानवता का संकट है। यह असहमति, भिन्नता और सह-अस्तित्व के खिलाफ चल रही एक सुनियोजित मुहिम है। इन देशों को यदि “सभ्य राष्ट्रों” की श्रेणी में रहना है, तो उन्हें अपने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा, सम्मान और समानता देना ही होगा।

भारत को अब केवल पड़ोसी ही नहीं, अल्पसंख्यक मानवाधिकारों का संरक्षक भी बनना पड़ेगा। क्योंकि अगर आज हम चुप रहे, तो आने वाले वर्षों में धार्मिक असहिष्णुता सिर्फ इन देशों तक सीमित नहीं रहेगी — यह पूरे उपमहाद्वीप की शांति और स्थिरता को निगल सकती है। अब वक्त है — सच्चाई को नाम दिया जाए, और न्याय को दिशा।

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