जब रिश्तों में तीसरा नाम जुड़ता है
“पति, पत्नी और वो…” — ये सिर्फ एक फिल्म का नाम नहीं, बल्कि एक ऐसी वास्तविकता है जो आज के रिश्तों की दीवार पर अक्सर किसी परछाईं की तरह उभरती है। यह “वो” कोई एक निश्चित व्यक्ति नहीं है, बल्कि किसी तीसरे के रूप में रिश्ते में आई वह उपस्थिति है जो दो लोगों के बीच के भावनात्मक या शारीरिक खालीपन को भरने की कोशिश करती है। सवाल यह है कि यह उपस्थिति कितना सही है? कितना सहज? कितना अनैतिक या कभी-कभी जरूरी भी? आधुनिक जीवनशैली, बढ़ती व्यक्तिगत आज़ादी, रिश्तों में संवाद की कमी और भावनात्मक अलगाव — ये सब ऐसी स्थिति को जन्म देते हैं जहां कभी पति, कभी पत्नी, या कभी ‘वो’ — तीनों ही उलझ जाते हैं। यह लेख इन्हीं उलझनों को परत-दर-परत खोलता है।
पति-पत्नी का रिश्ता: साझेदारी या सिर्फ जिम्मेदारी?
शादी सिर्फ सामाजिक या शारीरिक बंधन नहीं होती, यह एक भावनात्मक निवेश होता है। पति-पत्नी एक-दूसरे के साथी, सहारा और सबसे करीबी दोस्त होते हैं — या कम से कम उन्हें होना चाहिए। लेकिन जब संवाद खत्म होने लगता है, जरूरतें अनसुनी रह जाती हैं, और आत्मीयता सिर्फ रूटीन बनकर रह जाती है, तब इस रिश्ते में एक खाली जगह बनती है — जहां से ‘वो’ की संभावना जन्म लेती है। बहुत बार यह ‘वो’ एक प्रेमी नहीं होता, बल्कि कोई ऐसा इंसान होता है जिससे मन की बातें की जाती हैं, जो सुनता है, समझता है — वो बातें जो जीवनसाथी से कहना मुश्किल हो चुका है। ऐसे में सवाल उठता है — क्या ये रिश्ता अब भी उतना मजबूत है जितना होना चाहिए?
‘वो’ की भूमिका: सिर्फ धोखा या एक भावनात्मक सहारा?
‘वो’ को समाज अक्सर “खलनायक” के रूप में देखता है — लेकिन जरूरी नहीं कि हर बार ‘वो’ ही ग़लत हो। कभी-कभी ‘वो’ भी भावनात्मक रूप से जटिल परिस्थितियों में होता है। वह किसी के अधूरे रिश्ते में प्रवेश करता है — जहां प्यार कम है, संवाद खत्म हो चुका है, और साथ केवल सामाजिक ढांचे के कारण बचा है। ऐसे में अगर ‘वो’ के साथ एक गहरा जुड़ाव होता है, तो सवाल बनता है — क्या यह एक नया रिश्ता है या एक पुराने रिश्ते की असफलता? क्या यह धोखा है, या मन का बचाव? जब कोई साथी अपने जीवनसाथी से अलग-थलग महसूस करता है, और ‘वो’ उसे समझता है, हंसाता है, सुनता है — तब यह रिश्ता नैतिकता और भावनाओं के बीच जूझने लगता है।
कितना सही, कितना गलत: नैतिकता की नजर से
हर समाज की अपनी नैतिकता होती है। भारत जैसे पारिवारिक और परंपरागत मूल्यों वाले समाज में विवाह के बाहर कोई भी भावनात्मक या शारीरिक जुड़ाव “ग़लत” माना जाता है। लेकिन क्या रिश्तों की नैतिकता सिर्फ समाज तय करेगा? अगर एक पति या पत्नी सालों से उपेक्षा, अपमान या एकाकीपन से जूझ रहा है, तो क्या उसे सहने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होना चाहिए? यह सवाल आसान नहीं, लेकिन जरूरी है। विशेषज्ञ मानते हैं कि किसी भी तीसरे व्यक्ति से रिश्ता तभी ग़लत बनता है जब वह छल, झूठ और गुप्तता पर आधारित हो। लेकिन यदि वह एक खुला संवाद, आपसी सहमति और सम्मान के साथ जुड़ा हो, तो उस पर सिर्फ ‘गलत’ का ठप्पा नहीं लगाया जा सकता।
कितना सहज: आधुनिक रिश्तों की ज़रूरत या भ्रम?
आज के दौर में जब लोग भावनात्मक रूप से अकेले हैं, करियर में व्यस्त हैं, और हर कोई “खुश रहने का हकदार” है — तब ऐसे रिश्ते कहीं-कहीं सहज लगने लगे हैं। लेकिन यह सहजता कब आत्मग्लानि, अपराधबोध और रिश्तों के टूटने में बदल जाए — यह भी कोई नहीं जानता। बहुत से लोग ‘वो’ के साथ रिश्ता इसलिए बनाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वही उनकी अधूरी चाहत को पूरा करेगा, लेकिन कई बार यह आकर्षण अस्थायी होता है। फिर पछतावा, गिल्ट और रिश्तों की अस्थिरता ही हाथ लगती है। इसलिए जरूरी है कि किसी भी तीसरे रिश्ते को सहज मानने से पहले अपने भीतर झांका जाए — कि हम क्या ढूंढ़ रहे हैं, और क्या खो सकते हैं।
क्या कभी ‘वो’ जरूरी भी हो सकता है?
एक कठोर सत्य यह है कि कुछ रिश्ते सिर्फ समाज निभाने के लिए चल रहे हैं — जहां न स्नेह है, न समझदारी। ऐसे में अगर कोई ‘वो’ किसी के जीवन में खुशी, समर्थन और उम्मीद लेकर आता है, तो कई लोग उसे जरूरी मानते हैं। यह ज़रूरी होना जरूरी नहीं कि नैतिक रूप से सही हो, लेकिन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कभी-कभी यह इंसान को डिप्रेशन, अकेलेपन और टूटन से बचा सकता है। कुछ लोग कहते हैं — “अगर ‘वो’ न होता तो मैं शायद बिखर चुका होता।” यह दर्द भरी सच्चाई हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या रिश्तों की परिभाषा अब बदल रही है? और क्या हमें शादी को सिर्फ पवित्र संस्था नहीं, बल्कि एक जीवंत समझदारी की तरह देखना चाहिए?
रिश्ता तब तक पवित्र है जब तक उसमें सच्चाई है
पति, पत्नी और वो — इस त्रिकोण को समझने के लिए पहले रिश्तों की सच्चाई को समझना जरूरी है। हर रिश्ता परफेक्ट नहीं होता, लेकिन हर रिश्ता एक ईमानदार कोशिश के काबिल जरूर होता है। यदि पति और पत्नी में संवाद हो, सम्मान हो, और सच्चाई हो — तो कोई तीसरा आ ही नहीं सकता। लेकिन अगर ये सब नहीं है, और ‘वो’ एक रास्ता बन जाता है — तो उस रास्ते को निंदनीय या पूजनीय कहने से पहले उसकी जड़ों को देखना होगा।
शायद सही या गलत तय करने से पहले, हमें यह समझना चाहिए कि हर इंसान भावनात्मक जुड़ाव, अपनापन और समझ का हकदार है — और हर रिश्ता, चाहे वो दो लोगों का हो या तीन, तभी टिक सकता है जब उसमें सच्चाई हो, समझ हो और इंसानियत हो। तीसरे को दोष देने से पहले यह देखिए कि पहले दो में क्या छूटा था। रिश्ते सहेजने से टिकते हैं, छुपाने से नहीं।