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मनोरंजन या मानसिक निर्माण? — युवाओं के सामने नई चुनौती

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आज का युवा तीन विशाल और प्रभावशाली धाराओं के बीच बह रहा है — संगीत, सिनेमा और सोशल मीडिया। ये तीनों माध्यम सिर्फ़ मनोरंजन का साधन नहीं रहे, बल्कि अब यह युवा सोच, व्यवहार और व्यक्तित्व को आकार देने वाले तंत्र बन चुके हैं। इनकी पहुंच गहरी है, प्रभाव स्थायी और आकर्षण लगभग चुंबकीय है। लेकिन सवाल यह है कि यह आकर्षण युवा मन को जागरूक बना रहा है या भ्रमित कर रहा है? क्या यह मनोरंजन हमें मानसिक रूप से मज़बूत कर रहा है, या धीरे-धीरे हमें सोचने, सवाल करने और अपनी असलियत से दूर ले जा रहा है?

संगीत: धुनों में डूबा मन, लेकिन किस दिशा में?

संगीत आत्मा का भोजन है, यह सच है। लेकिन आज का संगीत किस प्रकार की आत्मा गढ़ रहा है? यदि गीतों के बोल में केवल शरीर, शराब और शोर है — तो वह संगीत आनंद नहीं, संवेदनहीनता फैला रहा है। पहले के गीत आत्मा को स्पर्श करते थे — प्रेम में संयम था, पीड़ा में दर्शन था, और देशभक्ति में जोश था। आज की पॉप संस्कृति में बहुत बार भावनाओं की जगह उत्तेजना ने ले ली है। युवाओं को ज़रूरत है ऐसे संगीत को चुनने की जो उन्हें स्थिरता, प्रेरणा और आत्मानुभूति दे। वरना लहरों में बहते-बहते वे अपनी गहराई खो देंगे।

सिनेमा: पर्दे का असर मन के परदे पर

फिल्में केवल मनोरंजन का साधन नहीं, वे समाज का आईना और कभी-कभी भविष्य की दिशा भी होती हैं। लेकिन आज की फ़िल्मों में, विशेषकर कुछ कमर्शियल फिल्मों में, हिंसा का महिमामंडन, रिश्तों की अस्थिरता और संवेदना की कमी स्पष्ट देखी जा सकती है। जब कोई युवा बार-बार यही देखता है कि सफल वही है जो चालाक है, प्यार महज़ टाइमपास है और पैसा ही सब कुछ है — तो धीरे-धीरे उसकी सोच में भी वही तत्व प्रवेश करने लगते हैं। इसके विपरीत, कुछ प्रेरणादायक सिनेमा — जैसे Taare Zameen Par, The Kashmir Files, Swades, Article 15, Sitare Zameen Par, 3 Idiots— यह दिखाते हैं कि सिनेमा न केवल बदल सकता है, बल्कि संवार सकता है। युवाओं को चाहिए कि वे अपने देखने की आदतों को केवल “ट्रेंड” से न चलाएं, बल्कि “दृष्टि” से चुनें।

सोशल मीडिया: संवाद का माध्यम या स्वार्थ का मंच?

सोशल मीडिया एक क्रांति है — इसमें कोई शक नहीं। यह अभिव्यक्ति का सबसे तेज़, सबसे सशक्त मंच है। लेकिन यह वही मंच है जहाँ सत्य से अधिक महत्व ‘सेल्फी’ को मिलने लगा है, विचार से अधिक वायरलिटी को, और ज्ञान से अधिक गॉसिप को। युवा दिन के कई घंटे इन प्लेटफॉर्म्स पर बिताते हैं, लेकिन क्या वे कुछ सीखते हैं या सिर्फ़ तुलनाओं में खोते हैं? Like, Share, Follow — ये शब्द अब आत्म-सम्मान के मापदंड बन चुके हैं, जो मानसिक स्वास्थ्य को गहराई से प्रभावित करते हैं। सोशल मीडिया तभी उपयोगी है जब वह विचारों को फैलाने, आत्म-प्रकाशन और संवाद के लिए प्रयोग हो — न कि केवल दिखावे, झूठी तुलना और ध्यानाकर्षण की लालसा के लिए।

तीनों धाराओं का सही संगम: विवेक और चयन का यंत्र चाहिए

संगीत, सिनेमा और सोशल मीडिया — ये तीनों शक्तिशाली माध्यम हैं। इन्हें नकारा नहीं जा सकता, न ही पूरी तरह स्वीकारा जा सकता है। ज़रूरत है विवेकपूर्ण चयन की। युवा अगर सीखें कि क्या सुनना है, क्या देखना है, और कहाँ जुड़ना है — तो यही तीन धाराएँ उन्हें ज़िंदगी की नई ऊँचाइयों तक ले जा सकती हैं। लेकिन अगर वे आंख मूंदकर इन प्रवाहों में बहते रहे, तो यह उन्हें सतही, अस्थिर और आत्मविहीन बना देंगे। सोच को गहराई चाहिए, न कि केवल स्क्रीन की चमक।

सोच की शक्ति — बनाओ मनोरंजन को माध्यम, उद्देश्य को मार्ग

आज के युवा अगर इन तीनों माध्यमों को साधन बनाकर चलें, और अपने लक्ष्य को स्पष्ट रखें, तो यह त्रयी उन्हें बहुत आगे ले जा सकती है। लेकिन अगर यह माध्यम ही उनका लक्ष्य बन जाए — तो वे खो जाएंगे। “संगीत में संवेदना हो, सिनेमा में दृष्टि हो और सोशल मीडिया में सोच हो — तभी बनेगा एक सशक्त युवा समाज। मनोरंजन हो, लेकिन मर्म के साथ — क्योंकि जो सोचता है वही बदलता है।

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