आज बच्चे मोबाइल को ‘डिजिटल नैनी’ मान बैठे हैं और बड़े भी घंटों इसकी गिरफ्त में हैं। इसका असर सीधा सेहत पर पड़ रहा है — बच्चों में मोटापा, आंखों की कमजोरी और चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है, जबकि बड़ों में स्पोंडलाइटिस, कमर-दर्द, नींद की कमी, हाइपरटेंशन, डिप्रेशन, एंग्जायटी, हार्ट अटैक और ब्रेन स्ट्रोक जैसी गंभीर बीमारियों का खतरा तेजी से बढ़ रहा है। लगातार बैठकर स्क्रीन देखने से शरीर निष्क्रिय हो रहा है और ज़िंदगी खतरे की ओर बढ़ रही है।
डिजिटल जीवनशैली: सुविधा से अस्वस्थता की ओर
आज का युग विज्ञान और तकनीक का युग है। मोबाइल फोन, इंटरनेट, स्मार्ट टीवी, लैपटॉप जैसी चीज़ें अब लग्ज़री नहीं, रोज़मर्रा की ज़रूरत बन गई हैं। हम एक क्लिक पर दुनिया भर की खबरें पढ़ सकते हैं, दूर बैठे अपने प्रियजनों से बात कर सकते हैं और काम से लेकर मनोरंजन तक सब कुछ घर बैठे कर सकते हैं। परन्तु जिस डिजिटल तकनीक ने हमारी ज़िंदगी को आसान बनाया, उसी ने हमें धीरे-धीरे मानसिक और शारीरिक रूप से थका दिया है। सुबह की शुरुआत मोबाइल अलार्म से होती है और रात का अंत किसी वीडियो या रील्स के साथ होता है। इस बीच घंटों की स्क्रीन टाइम हमें दिखती नहीं, लेकिन उसका असर हमारे शरीर और रिश्तों पर गहरा होता है। डॉक्टरों की राय के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन 6 घंटे से अधिक स्क्रीन देखता है, तो उसकी आंखों की रेटिना और दिमाग की थकान तेजी से बढ़ती है। मोबाइल का अत्यधिक उपयोग नींद, याददाश्त और एकाग्रता को सबसे पहले प्रभावित करता है — और यह आज हर उम्र के व्यक्ति की सबसे बड़ी शिकायत बन चुका है।
खोती नींद और बढ़ती मानसिक थकान
नींद शरीर के लिए उतनी ही ज़रूरी है जितनी ऑक्सीजन। लेकिन मोबाइल ने नींद को भी बाधित कर दिया है। लोग रात को ‘लेट कर’ रील्स देखते हैं, सोशल मीडिया स्क्रॉल करते हैं, या गेम खेलते हैं — और कब रात के 12 या 1 बज गए, इसका अंदाज़ा ही नहीं होता। नींद पूरी न होने से मस्तिष्क दिनभर सुस्त रहता है, काम में मन नहीं लगता, और तनाव बढ़ता है। भारत में 2022 में हुए एक स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार, लगभग 37% शहरी युवा नींद की कमी से जूझ रहे हैं, और उनमें से अधिकतर की वजह ‘मोबाइल की लत’ पाई गई। डॉक्टरों के अनुसार, ब्लू लाइट यानी मोबाइल और टीवी से निकलने वाली नीली रोशनी हमारे दिमाग को रात में भी ‘जागते रहने’ का संकेत देती है, जिससे मेलाटोनिन नामक हार्मोन का स्राव रुक जाता है — और व्यक्ति को नींद नहीं आती। इससे धीरे-धीरे स्पोंडलाइटिस, कमर-दर्द, नींद की कमी, हाइपरटेंशन, डिप्रेशन, एंग्जायटी, हार्ट अटैक और ब्रेन स्ट्रोक जैसी गंभीर समस्याएं जन्म लेती हैं।
बच्चों का बचपन: स्क्रीन बनाम मैदान
कुछ साल पहले तक बच्चों की शामें मैदान में बितती थीं — क्रिकेट, फुटबॉल, बैडमिंटन, टेनिस जैसे खेलों से बच्चों का न केवल शारीरिक विकास होता था, बल्कि उनमें टीम भावना, धैर्य और मित्रता भी पनपती थी। आज वही शामें घर की चारदीवारी में डिजिटल प्ले में तब्दील हो चुकी हैं। अब बच्चे मोबाइल या टैब में वर्चुअल गेम्स खेलते हैं — जिनमें न हिंसा की कोई सीमा होती है, न समय की। इससे बच्चों की आँखें कमजोर हो रही हैं, उनकी सोच में आक्रामकता बढ़ रही है और सामाजिक बातचीत में कमी आ रही है। चिकित्सकीय अध्ययन बताते हैं कि 2 साल से कम उम्र के बच्चों को स्क्रीन टाइम देना उनके दिमागी विकास को धीमा करता है, और 5 साल से ऊपर के बच्चों में 1 घंटे से अधिक रोज़ाना स्क्रीन देखने से उनका ध्यान हटता है और भाषा विकास पर नकारात्मक असर पड़ता है। अफसोस की बात ये है कि माता-पिता खुद व्यस्त हैं और मोबाइल को ‘डिजिटल नैनी’ की तरह बच्चों के हाथ में पकड़ा देते हैं — जबकि हकीकत में यही स्क्रीन उनके शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास को रोक रही है।
रिश्तों में बढ़ती खामोशी
मोबाइल न केवल हमारे शरीर, बल्कि हमारे रिश्तों पर भी आघात कर रहा है। पहले जहां परिवार के सदस्य शाम को बैठकर एक-दूसरे से दिनभर की बातें किया करते थे, अब वहाँ सबकी नजरें स्क्रीन पर होती हैं। खाना खाते समय, यात्रा करते समय, यहां तक कि त्योहारों या सामाजिक कार्यक्रमों में भी मोबाइल हमारी बातचीत की जगह ले चुका है। इसका परिणाम यह हुआ है कि भावनात्मक जुड़ाव कम हो गया है, और रिश्तों में संवाद की जगह ‘डिजिटल मौन’ ने ले ली है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इंसान सामाजिक प्राणी है — अगर वह भावनाओं को साझा नहीं करेगा, तो अंदर ही अंदर टूटने लगेगा। आज वही हो रहा है — मोबाइल ने हमें दूसरों से दूर और खुद से भी अनजान बना दिया है।
फेक न्यूज़: समाज में फैलता डिजिटल ज़हर
मोबाइल के ज़रिए फैलने वाला सबसे खतरनाक संक्रमण है — फेक न्यूज़। हर दिन सोशल मीडिया और मैसेजिंग ऐप्स पर झूठी खबरें वायरल होती हैं — किसी धर्म, जाति या समुदाय को लेकर, किसी नेता या संस्था को बदनाम करने के लिए, या दंगे भड़काने के उद्देश्य से। आम लोग बिना सच्चाई की जांच किए इन खबरों को बस ‘फॉरवर्ड’ कर देते हैं। कुछ ही घंटों में यह झूठ पूरे समाज में ज़हर की तरह फैल जाता है। ऐसी अफवाहें लोगों के बीच अविश्वास, भय और नफरत पैदा करती हैं। मीडिया अध्ययन बताते हैं कि भारत में फैलने वाली 70% वायरल खबरें अपुष्ट या झूठी होती हैं, और इनमें से अधिकांश सोशल मीडिया के ज़रिए आती हैं। यह एक डिजिटल हथियार बन गया है, जो समाज के ताने-बाने को तोड़ रहा है। इसलिए डॉक्टरों के साथ-साथ अब सोशल साइंटिस्ट और साइकोलॉजिस्ट भी डिजिटल डिटॉक्स की सलाह दे रहे हैं, ताकि व्यक्ति न केवल अपने लिए, बल्कि समाज के लिए भी ज़िम्मेदारी से तकनीक का उपयोग करे।
शारीरिक निष्क्रियता और बीमारियों की दावत
डिजिटल दुनिया ने हमारे शरीर को जड़ बना दिया है। पहले लोग सुबह-शाम पार्कों में टहला करते थे, व्यायाम करते थे, योग करते थे — जिससे शरीर में लचीलापन और मन में ऊर्जा बनी रहती थी। आज वे ही लोग ऑफिस या घर के किसी कोने में बैठकर घंटों मोबाइल चला रहे हैं। काम का बहाना बना कर शरीर की हरकत कम हो गई है। चिकित्सक कहते हैं कि एक दिन में कम से कम 45 मिनट की फिज़िकल एक्टिविटी हर इंसान को करनी चाहिए, लेकिन मोबाइल पर व्यस्त रहने के कारण यह लगभग गायब हो गई है। परिणामस्वरूप मोटापा, डायबिटीज, हाइपरटेंशन और स्पॉन्डिलाइटिस जैसी बीमारियां कम उम्र में ही घर कर रही हैं। शरीर को जितनी ज़रूरत भोजन की है, उतनी ही ज़रूरत हरकत की भी है — और मोबाइल हमें आलसी, निष्क्रिय और बीमार बना रहा है।
डिजिटल डिटॉक्स: एक ज़रूरी इलाज
डिजिटल डिटॉक्स यानी कुछ समय के लिए मोबाइल, टीवी और इंटरनेट से दूरी बनाना — एक ऐसा कदम है जो न केवल हमें फिर से ऊर्जा देता है, बल्कि हमारी सोच, सेहत और रिश्तों को भी ठीक करता है। विशेषज्ञों की मानें तो हर इंसान को सप्ताह में कम से कम 1 दिन ‘नो मोबाइल डे’ मनाना चाहिए, और रोज़ाना सोने से पहले 1 घंटा और खाने के समय मोबाइल बंद रखना चाहिए। सुबह उठते ही मोबाइल देखने के बजाय थोड़ा ध्यान, योग या किताब पढ़ना भी एक बेहतर शुरुआत है। बच्चों के लिए स्क्रीन समय सीमित करें — और उन्हें खुले में खेलने, पढ़ने और बोलने का मौका दें। सबसे ज़रूरी बात — कोई भी खबर या संदेश फॉरवर्ड करने से पहले सोचें, जांचें और जिम्मेदारी से व्यवहार करें।
संतुलन ही समाधान है
तकनीक बुरी नहीं है — लेकिन उसकी लत बुरी है। मोबाइल और इंटरनेट का सीमित और संतुलित उपयोग हमारी ज़िंदगी को बेहतर बना सकता है, लेकिन बिना नियंत्रण के यही चीज़ें हमें खोखला कर रही हैं। आज ज़रूरत है डिजिटल अनुशासन की। अगर हम चाहें तो अपनी आदतों में छोटे-छोटे बदलाव करके फिर से एक सुकून भरी, स्वस्थ और जुड़ी हुई ज़िंदगी जी सकते हैं। हमें तय करना होगा — मोबाइल हमारे हाथ में है, या हम मोबाइल के कब्जे में हैं। डिजिटल डिटॉक्स कोई फैशन नहीं, यह आने वाले समय में जीवन रक्षा का तरीका है। खुद के लिए, अपनों के लिए और समाज के लिए — समय आ गया है कि हम स्क्रीन से आँखें हटाएं और फिर से असली दुनिया की ओर लौटें।