Home » National » SIR पर देशव्यापी बवाल — सुप्रीम कोर्ट करेगा 11 नवंबर को सुनवाई

SIR पर देशव्यापी बवाल — सुप्रीम कोर्ट करेगा 11 नवंबर को सुनवाई

Facebook
WhatsApp
X
Telegram

नई दिल्ली, 7 नवंबर 2025:

सुप्रीम कोर्ट में आगामी 11 नवंबर का दिन बेहद अहम साबित होने जा रहा है। देशभर में चल रहे विवादित SIR (State Intelligence Record या State Investigation Registry) को लेकर दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की बेंच — जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमल्या बागची — सुनवाई करेगी। इस सुनवाई को लेकर पूरे देश की निगाहें अब सर्वोच्च अदालत पर टिक गई हैं, क्योंकि मामला सिर्फ एक प्रशासनिक नीति का नहीं, बल्कि नागरिक अधिकारों, निजता और संवैधानिक स्वतंत्रता से जुड़ा है।

SIR यानी State Intelligence Record को लेकर पिछले कुछ महीनों से देश के विभिन्न हिस्सों में विरोध और कानूनी लड़ाई जारी है। यह रिकॉर्ड सिस्टम कथित रूप से उन नागरिकों का डेटा इकट्ठा करता है जो “राज्य की सुरक्षा” या “सामाजिक स्थिरता” के नाम पर निगरानी की सूची में रखे गए हैं। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि SIR का यह मॉडल नागरिकों की निजी स्वतंत्रता पर “असंवैधानिक और असहनीय हमला” है, जो व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आज़ादी और निजता के अधिकार (Article 19 और Article 21) का उल्लंघन करता है।

याचिकाएं यह भी आरोप लगाती हैं कि कई राज्यों में SIR के तहत नागरिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और यहां तक कि शिक्षाविदों की सूचनाएं एकत्र की जा रही हैं — बिना किसी न्यायिक आदेश या वैधानिक अनुमति के। इन डेटा रिकॉर्ड्स में नागरिकों की निजी यात्रा, सोशल मीडिया गतिविधियां, संगठनात्मक संबद्धता, और यहां तक कि उनके पारिवारिक संपर्कों तक की जानकारी दर्ज की जा रही है। विरोध करने वालों का कहना है कि यह नीति “लोकतंत्र की जासूसी” में तब्दील हो चुकी है।

याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और दुष्यंत दवे ने दलील दी है कि केंद्र और राज्य सरकारें सुरक्षा के नाम पर संविधान की आत्मा को घायल कर रही हैं। सिब्बल ने कहा था — “जब नागरिक अपने ही देश में निगरानी का विषय बन जाएं, तो लोकतंत्र की परिभाषा खतरे में पड़ जाती है। SIR कोई सुरक्षा तंत्र नहीं, बल्कि एक डिजिटल जासूसी नेटवर्क है।” वहीं दवे ने इसे “सर्विलांस स्टेट की ओर बढ़ता हुआ खतरनाक कदम” बताया है।

दूसरी ओर, केंद्र सरकार ने अपनी दलील में कहा है कि SIR किसी भी व्यक्ति के निजी डेटा का दुरुपयोग नहीं करता, बल्कि यह केवल “आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद-रोधी गतिविधियों” की निगरानी का साधन है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पहले कहा था — “यह नागरिकों पर नजर रखने का नहीं, बल्कि देश को सुरक्षित रखने का प्रयास है। हर लोकतंत्र में आंतरिक खतरों से निपटने के लिए ऐसे सिस्टम की जरूरत होती है।”

मगर विरोधी पक्ष का मानना है कि सरकार का यह तर्क मात्र एक आड़ है। वे कहते हैं कि सुरक्षा के नाम पर नागरिकों की स्वतंत्रता का गला घोंटने की परंपरा खतरनाक हो सकती है। कई मानवाधिकार संगठनों ने कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सख्त दिशा-निर्देश नहीं दिए, तो यह नीति आगे चलकर “डिजिटल इमरजेंसी” का रूप ले सकती है।

इस पूरे विवाद का दायरा इतना बढ़ गया है कि अब यह केवल कुछ याचिकाओं तक सीमित नहीं रहा। देशभर के 17 उच्च न्यायालयों में SIR से जुड़े मामलों की सुनवाई चल रही है, जिनमें नागरिक स्वतंत्रता, मीडिया की आज़ादी और प्रशासनिक पारदर्शिता के सवाल उठाए जा रहे हैं। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि इन सभी मामलों की निगरानी और अंतिम दिशा निर्देश केवल शीर्ष अदालत से ही जारी होंगे।

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमल्या बागची की बेंच इस पूरे मसले की कानूनी संरचना, संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत समीक्षा करेगी। अदालत यह तय करेगी कि क्या SIR जैसी नीतियां संविधान के मूल अधिकारों के साथ संगत हैं या नहीं। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह सुनवाई “Puttaswamy Judgment (Right to Privacy Case, 2017)” की भावना को परखने वाली अगली बड़ी परीक्षा होगी।

11 नवंबर की सुनवाई से पहले देशभर के नागरिक संगठनों, वकीलों, शिक्षाविदों और टेक विशेषज्ञों ने भी एक संयुक्त बयान जारी कर कहा है कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकों की निजता की रक्षा नहीं की, तो आने वाले वर्षों में भारत एक “सर्विलांस रिपब्लिक” बन सकता है। कई पूर्व जजों और सेवानिवृत्त नौकरशाहों ने भी कहा है कि यह मामला सिर्फ कानून का नहीं, बल्कि “लोकतंत्र की आत्मा” का है।

11 नवंबर को जब सुप्रीम कोर्ट की बेंच इस मुद्दे पर सुनवाई शुरू करेगी, तो असल में सवाल सिर्फ SIR की वैधता का नहीं होगा — सवाल होगा कि क्या भारत अब भी वही लोकतंत्र है जो नागरिकों को देखने के बजाय, उनकी आंखों से शासन देखना चाहता है। यह सुनवाई आने वाले वर्षों के लिए नागरिक अधिकारों, निजता और राज्य की शक्तियों की सीमा को तय करने वाला ऐतिहासिक फैसला साबित हो सकती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *